लाला का हितैषी खिसक गया है। रोड़ों की बौछार और बढ़ गई है। मैंने लाला को पकड़ कर बाहर खींच लिया है। भूखे कुत्तों की तरह लंबी कतार राशन की दुकान पर टूट पड़ी है। जिसे गेहूँ मिल गए वो डालडा के डब्बे में गेहूँ भरे जा रहा है। जिसे चीनी मिल गई वो धोती उतार कर चीनी चढ़ा रहा है। आटा, डालडा और जो भी दुकान में राशन के अलावा भी था लोग समेटते चले जा रहे थे। लाला मेरे हाथों में कैद अभी भी गिड़गिड़ा रहा है।

“चल चलते हैं दलीप!” श्याम ने मुझे इशारा किया है।

“लेकिन तेल ले कर चलेंगे बे!” मैंने डपट कर कहा है।

“मिल जाएगा मिल जाएगा कुंवर साहब!” लाला ने मेरी ओर याचना पूर्ण निगाहों से देखा है और किसी अज्ञात आदमी ने तपाक से एक तेल का भरा डब्बा पकड़ा दिया है।

“चल बे! अब फूट चल। पुलिस आती ही होगी।”

मैं और श्याम भीड़ में लपक कर मिल गए हैं। हम बाजार में हर पुलिस वाले को चोर निगाहों से देखते जा रहे हैं। मेरा चेहरा हल्का और फीका पड़ गया है। श्याम भी हांफ रहा है। फिर भी मैं खुश हूँ। मैं भीड़ में मिला हूँ। मुझे भूख लग रही है। लेकिन मैं खाना खाने से पहले कमा लेना चाहता हूँ। जो भी किया है, गलत या सही – किया तो है।

वही टूटती कतार, भूखे कुत्तों का झुरमुट, मूक यातना सहता समाज मेरी आंखों के सामने उमड़ने लगा है। मैं सोचने लगा हूँ – ये सारा बाजार ही क्यों नहीं लुट जाता? लोगों के होंसले पस्त कैसे हो गए हैं? जो नहीं है उसे पा लेने की सामर्थ्य कहां चली गई है?

“मुझे डर था बे तू झगड़ा जरूर करेगा! पर ..” श्याम ने होश में आते ही कहा है।

“हमने कोई झगड़ा नहीं किया! समझा भी कर बे कद्दू!”

“समझ गया समझ गया! पर बेटे ..”

“चुप बे साले खरगोश की औलाद!” मैंने श्याम को फटकार दिया है।

एक महान खुशी ने आकर मेरी कमर ठोक दी है। मेरे कानों में स्वयं ही आवाजें गूंज रही हैं – शाबाश! मेरे कर्मठ नेता, मेरे कर्मठ अगुआ तू तो कमा खाएगा! पहले दिन ही तूने तो जो कर दिखाया ..

श्याम ने खाना बनाया है ओर मैंने मदद की है। बनाते बनाते कई बार खाने का लालच सवार हुआ है लेकिन जीभ चटकारे लेकर चुप हो गई है। नाक ने कृतार्थ हो हो कर दाल से उठती सुगंध का मजा लिया है तथा हाथों ने अंजाने में चपाती बनाने की क्रिया दोहराई है। मैंने श्याम से कहा है – शाम का भोजन हम बनाएंगे भाई।

“तो खुद ही खा लेना भाई!” श्याम ने जवाब दिया है।

“मतलब?”

“साफ है भाई! जो तुम बनाओगे उसे तो कुत्ते भी नहीं खाएंगे!”

“चुप बे! आज कल के कुत्ते बहुत भूखे घूमते हैं। देखा नहीं था आज सस्ते गल्ले की दुकान पर क्या क्या नहीं किया था कुत्तों ने?”

हम दोनों खूब हंसे हैं। इस हंसी का मजा उन मुस्कानों से बढ़ कर है जो दलीप दी ग्रेट उधार बांटते रहते थे।

खाना खाते खाते लगा है कि मेरा खाने का ढंग ही बदल गया है। जमीन पर बैठ कर उंगलियों के पोर भिगो भिगो कर मैंने जब दाल के रस को चाटा है तो जीभ कृतार्थ हो गई है। चपाती और दाल, मोटी मोटी कटी प्याज की दो गिनी गांठें ही भोजन के अंग हैं। लेकिन जो संतोष आज मिला है वो अब तक कभी नहीं मिला था। मैं उस कृत्रिम जीवन से वास्तव में तंग आ गया था। शायद घर में मां होती तो बात ही और होती। पर बाबा ने मुझे कभी किचन में जाने की इजाजत ही नहीं दी।

“अब क्या करना है बे?” मैंने अंगड़ाई तोड़ते हुए पूछा है।

“अब बेटा आराम करो क्योंकि ..”

“रात भर कमाई जो करनी है?” मैंने वाक्य पूरा कर दिया है।

“शाबाश! तू चीज तो चालू है पर देख बे अगर मेरे धंधे पर लात मारी तो .. समझ लेना कल खाना नहीं मिलेगा!”

“ठीक है ठीक है! मत खिलाना!” मैंने थोड़ा अकड़ कर कहा है।

“अरे तू तो बुरा मान गया! आज कल तू इतना टची क्यों हो गया है बे?”

मैं चुप हूँ। सोच रहा हूँ श्याम को क्या बताऊं। लेकिन जो उसने मुझ में परखा है वह तो सच है।

“बस यूं ही कुछ धुन सी सवार रहती है।” मैं उसे बताता हूँ। श्याम और भी कई प्रश्न पूछना चाहता है पर सहम गया लगता है।

“अच्छा श्याम! इस धंधे में सिर्फ रोटी ही क्यों? ये तो लाखों का धंधा है मेरे भाई!” मैंने उसे कुरेदने की गरज से कहा है।

“अरे यार! अपुन तो दलाल है। जो माल भेजता है उसकी खपत करा कर अपना कमीशन सीधा कर लेते हैं।”

“कौन है जो माल भेजता है?”

“देख दलीप! ये टेढ़ी सीधी बातें मत पूछ!”

“अबे! मैं तो तेरे फायदे की बात कर रहा हूँ। तू बहुत भोला है। काम सारा तू करता है ओर माल कोई ओर खा रहा है।”

“खाने दे बे! मैं तो किसी और काम की तलाश में हूँ। देख दलीप! तू बाबा के पास लौट जा। इसमें तेरा ओर मेरा दोनों का कल्याण है।” श्याम ने गिड़गिड़ाते हुए कहा है।

“अब नहीं श्याम! तू तो जानता है ..” मैं गंभीर हो गया हूँ।

श्याम चुप हो गया है। हम दोनों आराम करने के बहाने गहरी नींद में खूब सो लिए हैं।

“तू चलेगा?” श्याम ने पूछा है।

“जरूर चलूंगा!” मैंने भी कह दिया है।

पहले तो मैं श्याम के चमचे का अभिनय करता रहा हूँ। जवान लड़के और लड़कियां आते जा रहे हैं। कुछ गेम में नए हैं तो कुछ पुराने। कुछ के बटुए भरे हैं तो कुछ खाली हाथ हैं! देसी, विदेसी, ऊंच नीच, पढ़े अनपढ़ और लड़की लड़के किसी के लिए भी प्रतिबंध नहीं है यहां। मुझे यहां का ये रिवाज सब से अच्छा लगा है।

“माल आ गया है। जाकर ले आ!” श्याम ने मुझसे कहा है।

मैं अंदर गया हूँ। एक भारी-भरकम आदमी है जो मुझे देख कर चौंक गया है। शायद वो मुझे पहचानता है!

मेजर कृपाल वर्मा

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