“क्या तुम्हें पता चल गया था .. कि ..?”

“नहीं! मैं तो तुम्हारे पास आई थी!”

“कोई नया पाठ पढ़ाने?” मैंने व्यंग किया है।

मैं और सोफी तनिक सहमी सी हंसी से भर गए हैं। मेरा व्यंग उसे बुरा नहीं लगा है और यों छोड़े तीर को सोफी के प्रसारों में ठंडा होते देख मैं भी ठंडा होता लगा हूँ। मेरी एक बात वह अति शालीन ढंग से पचा गई है। लगा है – सोफी मेरी अपनी है!

“बहको मत दलीप! मैं जानती हूँ कि तुम पर क्या गुजरी है। लेकिन जब मुक्ति से सुना तो जानते हो मुझ पर क्या बीती?”

एक बारगी मैं सोफी को घूरता रहा हूँ। मन आया है कि इन संकट भरे प्रसंगों को काट प्रणय लीला का सूत्र पात करूं। लेकिन अब भी एक हिचक मुझे रोक गई है। शायद सोफी के मन में भरे विचारों का बहना भी स्वाभाविक ही है। अतः मैं चुप लगा गया हूँ।

“पहली बार जीवन में मैं बेहोश हो कर गिर गई थी।”

सोफी के नेत्र सजल हो आए हैं। मन आया है कि इन आंसुओं को पी जाऊं। शायद मेरी हर सांस पर कहीं सोफी अपने अजस्र प्रेम प्रभाव से ही मुझे जिलाती आई है और आज आशा का नया रूप धारण कर प्रकट हो गई है। मैं चाहता हूँ कि सोफी की बात सहृदयता पूर्वक सुनूं ताकि जो वो मेरे लिए कर गुजरी है उसका इनाम चुकता कर दूं।

“क्यों ..?” मैंने पूछा है।

“अपना सब कुछ बेच जिस आधार पर टिकने निकली थी वो आधार ही गुम था। सोचो दलीप ..?” एक गहरी निश्वास सोफी छोड़ गई है।

“फिर ..?” मैं इस तरह पूछ रहा हूँ जैसे कोई अजान बालक दादी मां से सती सावित्री की कहानी सुन रहा हो।

“जब होश आया तो मुक्ति ने सारा सच कह सुनाया। उसने दिलासा दी और उन सारी उलझनों को सुलझाने के तरीके बताए!”

“फिर ..?”

“मैंने सोचा केस को सुलझाना तुम्हें पाने से ज्यादा जरूरी है। अतः हम दोनों काम में जुट गए!”

“सुलझ गया?”

“हां!” सोफी ने बेबाक ढंग से अपनी विजय गाथा कह सुनाई है।

“ओह डार्लिंंग! सोफी .. सोफी .. माई लव .. सोफी!” मैंने एक लमहे में सोफी को कुर्सी से अपने पास खींच लिया है।

लोहे की जंजीर जैसे मेरे बाहु पाश में सोफी को जकड़ मैं पागलों की तरह धमाचौकड़ी मचाता रहा हूँ। सोफी ने बढ़ कर मेरा साथ दिया है। लगा है हम दोनों बरसों के भूख के प्रतीक हैं जिन्हें सहसा हालत का परिचय मिलने पर धीरज दगा दे गया है।

“दलीप .. ओह .. लव ओह माई स्वीट! डार्लिंग यू आर माई सोल .. माई ओन – दलीप!” सोफी भी पागलों की तरह बकती रही है।

दुनियादारी से बेखबर, अतीत से बच कर, भविष्य को किसी गैर की जिम्मेदारी समझ हम पहचान को जी लेना चाहते हैं, इन पलों को सच्चे मायनों में जी कर साक्षी बना लेना चाहते हैं ताकि ये गुरबत के दिनों में आड़े आ जाएं!

अचानक दरवाजा सिहर उठा है। घंटी बज उठी है और हम दोनों ने एक दूसरे को प्रश्न वाचक निगाहों से घूरा है।

“शायद कोई है!” मैंने सोफी को दरवाजा खोलने के लिए मुक्त कर दिया है।

यों किसी का दखल खला है पर सुलझ गई गुत्थी में अब भी बहुत कुछ जानने को शेष है और मैं अब सब कुछ जान लेना चाहता हूँ।

“हैलो सर!” मुक्ति ने गहक कर कहा है।

“ओह मुक्ति तुम!” मैं जोरों से चीखा हूँ और मुक्ति से जा लिपटा हूँ।

हम दोनों कुछ एक पलों में एक अजान से सौहार्द का आनंद उठाते रहे हैं। मनों से सच्चाइयां साकार हुए जीवों की तरह मुखरित हो कर एक दूसरे में समाते चले गए हैं। मेरा खोया विश्वास अब पूर्ण स्वस्थ हो कर उठ खड़ा हुआ है।

“सर! अखबारों में छपवाते-छपवाते हम लोग पागल हो गए पर ..”

हम दोनों ने एक दूसरे को जैसे पहली बार देखा है। मैं बहुत जोरों से हंसा हूँ। सोफी और मुक्ति ने भी बे मन से मेरा साथ दिया है। लगा है – एकाएक मैं फिर कुर्सी पर बैठ कर आदेश निर्देश जारी कर रहा हूँ। ये बेखटके हंसना मुझे एक सबक की तरह नया लगा है।

“सच ये है मुक्ति कि मैं .. कि मैं इतना डर गया था कि अखबार पढ़ने की हिम्मत करना ही भूल गया था।”

“लेकिन क्यों? आपका तो कसूर ..?” मुक्ति कहते-कहते रुक गया है।

“होता है मुक्ति! इनका कसूर नहीं। जब आदमी का आत्मविश्वास चुक जाता है तो ..! मौत भी तो इसी तरह आती है, खाती है वरना तो ..”

सोफी मेरा पक्ष लेकर सारी कमजोरियों पर पर्दा डाल गई है। शायद उसने मुझे मेरे इन गुनाहों को कभी गलत नजर से नहीं देखा। मेरी मजबूरी को वह जान गई थी और तभी मेरे लिए लड़ गई है। मैं फिर एक बार सोफीमय हो उठा हूँ।

“अच्छा, ये भी तो बताओ कि हमारे प्रतिद्वंद्वियों का क्या हुआ?” मैंने पूछा है।

“शीतल, आपका नौकर और श्याम जेल में हैं। नवीन ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है और त्यागी करप्शन के चार्ज में जेल जाने वाला है।” मुक्ति एक सांस में सारी कथा सुना गया है।

“श्याम ..?” मैं कुछ कहना चाहता हूँ पर रुक गया हूँ।

पता नहीं क्यों श्याम मुझे कसाई के खूंटे से बंधी गाय लगा है। वह तो एक परम स्नेही व्यक्ति था। पर शीतल उसे ले डूबी। मैं श्याम के प्रति उदार हूँ और आंखों से आंसू पोंछता जा रहा हूँ!

“शीतल का साथ देने के जुर्म में फंस गया!” मुक्ति तनिक मुसकुरा गया है।

मैंने एक विषैली मुसकान को सोफी के होंठों को छोड़ते देख लिया है। शायद वो भी अब तक शीतल के बारे में सब कुछ जान गई है। अचानक मुझे क्रिस्टीन को पछाड़ती सोफी की नजरें याद हो आई हैं!

“सो जाइए! आप बहुत कमजोर हो गए हैं!” मुक्ति ने सहृदयता जताई है।

“यों नहीं मुक्ति! आज तो मैं महान बन गया हूँ। तुम्हें और सोफी को पा कर अब और क्या बचा है! सब खोया पा गया हूँ। ये दुर्बल शरीर तो ..”

“सर मिसेज .. आई मीन जिस सोफी ने रात दिन लगा कर ही ..”

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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