“और दूसरा कदम?”

“दूसरे कदम में गृहस्थ होना चाहिए लेकिन सधा हुआ, सोचा हुआ और उस गृहस्थ की उन मांगों को संवरण करने की संपूर्ण शक्ति होनी चाहिए!”

“लेकिन आज तो फ्री सोसाइटी .. फ्री सेक्स और ..”

“मैं जानता हूँ कि ये नई लहर धीरे-धीरे जोर पकड़ रही है पर इसका मूल कारण है – बाहरी चमक का प्रभाव। पाश्चात्य सभ्यता का असर और अपनी इच्छा शक्तियों की गुलामी!”

लगा है आचार्य को हर प्रश्न का उत्तर आता है पर अपने धन संकट का उत्तर नहीं आता। मैं किसी घाती प्रश्न की तरह आचार्य को कहीं लाकर परास्त करना चाहता हूँ।

“वैशाली की शादी क्यों नहीं कर देते?” मैंने अपने संवाद को कह कर पूछ लिया है।

“कोई लड़का मिल जाए तो ..”

“कमी क्या है?”

“कमी नहीं – पर मांगें ज्यादा हैं।”

“तो दे दो? अकेली लड़की है। आप ..”

“हो तभी न!” आचार्य ने नंगी लाचारी को मेरे सामने रख दिया है।

मैं नहीं चाहता कि मैं आचार्य को और कुरेदूं। आचार्य शायद पुरातन काल का मनुष्य है जो आज गलती से जन्म लेकर पछता रहा है। वह अपने आप को धन कमाने की होड़ में नहीं जोत पाया है। अपने मन को मार देना और दाएं बाएं से माल हड़पने में विफल रहा है।

“लोगों के मुंह फटे हैं, दलीप! लड़का दो अक्षर पढ़ जाए तो मोटर साइकिल चाहिए। घर का पूरा सामान चाहिए। कपड़े चाहिए। नकद रकम भी चाहिए। और ऊपर से महंगाई! रुपया कुछ खरीदता नहीं। अब बताओ ..?”

“धन कमाओ!” मैंने जैसे कोई आधुनिक वेद मंत्र आचार्य को सिखाना चाहा है।

“निकृष्ट बन जाऊं?” कातर आंखों से अपने बसाए त्याग के उच्च अरमान से गिरने का मन हो – आचार्य ने पूछा है।

“धन – एक आवश्यकता है, आप मानते तो हैं। और उसे सही ढंग से पूरा कर लेना बुरा नहीं। ये भी आप को मान लेना चाहिए।”

“नौकरी कर रहा हूँ – और क्या करूं?” सहज अनाड़ी सा आचार्य मेरे सामने परास्त हुआ खड़ा है।

“बताऊंगा!” कह कर मैं यमुना के उस पार देखने लगा हूँ।

बहती जलधारा मुझे सिकुड़ गई लगी है। रात को इसका डरावना विस्तार शायद योजनों में फैल गया था और अब ..? अचानक मैं पीछे तलाश में ढूंढती पुलिस के भय से आतंकित होता लगा हूँ। सोच रहा हूँ ये सूरज जल्दी-जल्दी छुप जाए और गहरी अंधेरी रात आ जाए ताकि कोई कुछ न तलाश पाए!

आचार्य संध्या वंदन पर बैठ गए हैं। मैं पास के झुंड से एक सरकंडा तोड़ कर मोटी बिछी बालू पर कुछ आकृतियां बनाने लगा हूँ। हवा का एक छोटा झोंका आ कर खुदी आकृतियों में बालू भर जाता है। बालू की सतह पर खींचा खुरदुरापन मिट कर सपाट सा चिकना धरातल बन गया है। लगा है मेरी खोदी स्मृतियां मिट गई हैं। प्रकृति में शायद यों ही कुछ बनता बिगड़ता रहता है। मैंने फिर बुत की तरह गुमसुम बैठे आचार्य को देखा है।

आचार्य विश्व कल्याण की सोच रहे होंगे, सर्व सुख का स्वप्न मानस पटल पर संजो रहे होंगे – मैं जानता हूँ। लेकिन अपने आप को धन कमाने के लिए आज राजी कर पाएंगे या नहीं – ये मैं नहीं जानता।

और अगर वैशाली की शादी न हुई तो? क्या वैशाली खुद कोई कदम उठा पाएगी? क्या उसमें वो सामर्थ्य है जो आज कल की लड़कियों में होती जा रही है? क्या कोई ऐसा लड़का मिलेगा जो बेधड़क दहेज की दहलीज को छलांग वैशाली को अपना ले? एक-एक करके ये प्रश्न मुझे बकोटने लगते हैं। वही धन कमाने की इच्छा प्रबल होने लगती है।

“चलो दलीप!” आचार्य ने मुझे चौंका दिया है।

अब झुटपुटा हो आया है और आकाश में कतारें बना कर घर जाते पंछियों की चुकुड़-चूं की आवाजें मैं सुन पा रहा हूँ। आचार्य मेरे मन में कोई आदर का स्थान नहीं बना पाए हैं। यों परिस्थितियों को अपने लक्ष्य को न पाने देना मेरे खून में नहीं है। किसी चमत्कार या भाग्य के भरोसे बैठना मुझे कोरी अकर्मण्यता लगती है। मैं चुपचाप उनके साथ ही लौटा हूँ।

मन में रह-रह कर एक पश्चाताप भर रहा है – काश मैं ही कोई भाग्यशाली लड़का होता – मैं ही सोफी से बंधा दलीप न होता, कॉलेज में पढ़़ता अधेड़ उम्र वाला दलीप होता तो ..?

बागी मन अपने विद्रोही अश्वों के रथ में सवार फिर कहीं और दौड़ जाना चाहता है – सोफी के लिपटे बंधन काट मुक्त हो जाना चाहता है और किसी का भी गुलाम बन कर नहीं रहना चाहता! लेकिन मैंने सोफी के प्यार का वास्ता दे कर कड़ी अड़ास लगा दी है।

“मैं चाहता हूँ कि तुम यहां मेरे संग रहो। बड़ी रौनक रहती है और फिर शहरियों के लिए तो ..”

“कौन सा मेला?”

“यहां पूर्णिमा पर मेला लगता है। माघ पूर्णिमा का पर्व होता है। लोग यमुना स्नान करते हैं, दर्शन करते हैं और खूब गाते बजाते हैं।”

“तब तो देख कर ही जाऊंगा!” मैंने इस तरह कहा है जैसे कुछ अंधेरे में ठोस सत्य हासिल कर गया हूँ।

आचार्य ने मेरी ओर देखा है। मैं तनिक रुका हूँ ताकि होते किसी वार को बचा लूँ पर आचार्य चुप रहे हैं।

“कितने दिन का होता है ये मेला?”

“चार दिन का!”

“दुकानें वगैरा आती हैं?”

“हां-हां, बड़ा भीड़ भड़क्का होता है।”

“तब तो ठीक है।” मैंने जैसे एक सफलता पर डोरे डाले हैं।

मैंने दूसरे ही दिन वैशाली और आचार्य से मेला खुद संयोजित करने की जिम्मेदारी मांगी है। वैशाली को प्राकृतिक दवाइयों की दुकान लगाने को राजी कर लिया है। आचार्य को चढ़ावा आने पर मुझे संचालन की इजाजत देना का मन बना लिया है तथा हर दुकानदार से मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा करने की बात भी मैंने सोच ली है और अब अनगिनत आमदनी के स्रोत मेरे दिमाग में चूने लगे हैं – जो आचार्य या वैशाली कभी सोच ही नहीं सकते! भले ही ये छोटे-छोटे काम हैं पर हर छोटा काम ही तो बड़ा काम बनाने का विश्वास देता है। मेरी आंखों के सामने एक धन की गंगा बहने लगती है – शहनाई बजने लगती हैं और मैं एक बार फिर सफल हो गया लगा हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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