जेल के बाहर जोर जोर से नारे लगाए जा रहे हैं। लगता है लोगों के ठट के ठट पहुंचे हों। आज हम लोग जेल से छूट रहे हैं। मैं और शीतल जी बहुत खुश हैं। शीतल जी बार बार अपने चश्मे के शीशे साफ करके अपनी घबराहट और उत्सुकता दोनों को दबा रहे हैं। उनके पतले महीन चेहरे पर कुछ हीन भाव छपे हैं। एक भय भी उनकी आंखों में है। मैं जानता हूँ कि वो मुझसे ही डर रहे हैं, जल रहे हैं और शायद अपने इन हीन भावों के नीचे दबे जा रहे हैं। शायद उन्हें अपने पद, सम्मान और ख्याति को खो देने का डर है। लेकिन मैं निर्लिप्त सा यही सोच रहा हूँ – पार्टी का पद संभाल कर मैं पथभ्रष्ट होने वाला नहीं हूँ। मेरी पार्टी तो जनता है और दुश्मन हैं देश की समस्याएं। मैं किसी भी पार्टी से नहीं लड़ूंगा। किसी भी इंसान से मैं द्वेष भाव रखना नहीं चाहता। मैं तो सच्चाई और न्याय को ही अपने गुट में रक्खूंगा – नेताओं की भर्ती मुझे नहीं खोलनी। सच्चाई तो ये है कि मैं शीतल जी को एक कमजोर व्यक्ति के अलावा कुछ भी नहीं मानता। जितना वो शरीर से निर्बल हैं उतना ही उनके मन में खोट भरा है।
“मिस्टर दलीप! जेल में तकलीफ तो होती है इसलिए मैं माफी तो नहीं मांगूंगा पर हां इतना जरूर कहूंगा कि तुम बाकी स्टूडेंट्स की तरह नहीं हो!”
“धन्यवाद!” मैंने जेलर साहब से ज्यादा बातें करना उचित नहीं समझा है। अत: सूक्ष्म में मैंने एक सूखा सा धन्यवाद उन्हें दिया है।
“हो सके तो .. वापस मत आना।” उनका अंतिम वाक्य है।
“कोशिश करूंगा!” मैंने भी बेमन से आश्वासन दे दिया है।
बाहर निकल कर लोग मुझसे लिपट लिपट कर मिले हैं। मेरा गला फूल मालाओं से भर गया है। एक भव्य स्वागत हुआ है। रतन चंद और रीता नहीं आए हैं। मेरे अपने धनिक दोस्तों में से भी कोई नहीं पहुंचा है। श्याम के अलावा मेरा अपना कोई नहीं है। मुझे एक उदासी अंदर ही अंदर कचोट रही है। मुझे अब ये खुशी, ये शोर-शराबा और ये स्वागत सभी सूने सूने लग रहे हैं।
अब एक लहर सी उतर आई है, एक तूफान शांत हुआ है, भीड़ फैली है तो मुझे सांस आई है। अचानक एक ओर खड़े बाबा मेरी ओर मुसका रहे हैं।
बाबा की हंसी जैसे गले में पड़े सब हारों को मात दे गई है। सब हुई प्रशंसाएं झूठी पड़ गई हैं। हजारों हजार आशीर्वाद आकर मुझसे लिपट गए हैं। बाबा थके थके जान पड़े हैं पर उनकी हंसी उनकी थकान पी गई है। मैं जानता हूँ कि वो अपने आप से जूझते रहे हैं, युद्ध करते रहे हैं ओर परास्त होकर ही यहां आ पाए हैं। लेकिन उनकी ये हार भी जीत है और मेरी जीत भी हार है। हर बाप अपने बच्चों से ही हार जाना चाहता है और इस हार पर उसे हार्दिक खुशी होती है जिसे शायद आज बाबा अनुभव कर रहे हैं। मैं आगे नहीं बढ़ा हूँ। अब भी शायद मैं हार स्वीकार करने से पहले बाबा को ही आगे घसीट लाना चाहता हूँ। वो चल पड़े हैं। मेरी ओर बढ़ रहे हैं। लोगों ने रास्ता छोड़ दिया है। मैं शांत खड़ा हूँ। बिलकुल पास आने पर भी उनके पैर छूने के लिए नहीं झुका हूँ!
“मुझे क्षमा कर दो बेटे! अब मैं तुम्हारा रास्ता ..”
“बा-बा ..!” अब मैं कृतार्थ हुआ उनके पैर छूने के लिए झुक गया हूँ। लगा है – बाबा ने मुझे समझ लिया है और उनका आशीर्वाद मुझे मिल गया है। अब से बाबा फिर से मेरे निर्देशक बन जाएंगे और अब भी मुझे बाबा का ही सहारा चाहिए – ये बात आज मेरी समझ में आ गई है।
“मेरे बेटे ..!” कहकर बाबा ने मुझे अचानक कलेजे से लगा लिया है। मां की ममता ओर बाप का प्यार दोनों ही बाबा मुझ पर उलीचे जा रहे हैं। मुझे भी विश्वास था कि बाबा अपने दलीप से जुदा नहीं हो सकते, उसके सपने को टूटते नहीं देख सकते और न सच्चे आदर्शों से मुंह मोड़ सकते जो वो मुझे देते रहे हैं।
सभी ने मूक व्यंजना में हमारे इस मिलन की भूरी भूरी प्रशंसा की है। सभी की आंखों में मेरे लिए एक नया आदर भर आया है। एक इज्जत तैरने लगी है ओर इस सब का स्रोत हैं – बाबा! अपने बाबा की गहराइयों का मुझे भी सच्चा ज्ञान आज ही हुआ है। मुझसे क्षमा मांग कर आज एक बार फिर वो मेरे मन के राजा बन गए हैं – एक प्रकाश पुंज बन गए हैं, महान बन गए हैं ओर अब मुझमें हिम्मत नहीं कि मैं उनका निरादर कर दूं।
“चलो घर चलें!” बाबा ने इस तरह आग्रह किया है जैसे मैं कोई महान आदमी हूँ या कोई महान विजय प्राप्त करके लौटा हूँ।
“लेकिन ..?” मैं अभी भी अपनी शंका निवारण कर लेना चाहता हूँ।
“मैं तुम्हारे और तुम्हारे इरादों के बीच कभी नहीं आऊंगा और कभी आया भी तो एक बाप की हैसियत से नहीं बल्कि एक दोस्त की तरह एक मशविरा अवश्य दे दूंगा। अब तो खुश हो?”
मैं एक बार फिर बाबा का हो गया हूँ। लगा है अचानक क्रोध में मेरे बाबा ने दुकान से अच्छा सा खिलौना खरीद कर अपने जिद्दी बेटे दलीप को दे दिया है। मां खड़ी खड़ी हंस रही हैं। वो बाप बेटे के बीच में कभी नहीं बोलती थीं, लेकिन हम भी दोनों जितनी उनकी इज्जत करते थे उतनी ही कम थी। वो बाप बेटे की संधि पर खूब तालियां बजाती थीं। काश आज मां भी होतीं! अचानक मेरी आंखें भर आई हैं। बाबा ने मुझे आगोश में भर लिया है .. कलेजे से लगा लिया है ..
“मां की याद आई थी न?”
“हां!” सुबकियों से ही मैंने स्वीकार किया है।
पता नहीं क्यों मां की याद मुझे हमेशा ही आहत कर जाती है। लाख कोशिश करते हैं बाबा फिर भी उनकी कमी पूरी नहीं कर पाते!
घर जाने से पहले शीतल जी से बातें हुई हैं। मैंने पार्टी के ऑफिस में आकर उन से बातें करने का वायदा कर दिया है। बाबा को कोई आपत्ति नहीं है। बाबा के साथ कार में बैठ कर मैं घर चल पड़ा हूँ।
जेल से पार्टी के ऑफिस तक की पद यात्रा शायद मेरे लिए अधूरी रहेगी। लेकिन मैं पार्टी का मेम्बर न था और न हूँ। इन जुलूसों और पैदल यात्राओं में कोई तथ्य नहीं है। ये केवल समय नष्ट करना है – ये मेरा अपना मत है। समस्याओं से जूझने के लिए मुझे प्रयोगात्मक हल खोजने हैं न कि उनका जुलूस निकालना है। जो लोग चप्पल पहन कर, सूखे चेहरों को दरिद्रता में सान कर घुसपुस घुसपुस समाज में कानाफूसी सी करते रहते हैं वो समस्याओं को नहीं सुलझा सकते, उन्हें उलझा जरूर सकते हैं!
मेजर कृपाल वर्मा