रोड पर पहरा देते मजदूरों से त्यागी जी ने अंदर जाने की अनुमति ले ली है। मजदूरों को हमेशा की तरह त्यागी जी का लिबास देख भरोसा हो गया है। त्यागी जी अपनी पहली सफलता पर प्रसन्न हैं। सरपीली और अति विषैली निगाहों से उन्होंने मुझे बैठने से पहले घूरा है। मेरे और त्यागी जी के मध्य एक शीत युद्ध की नींव अनभोर में पड़ चुकी है। मैं त्यागी जी के वाह्य परिवेश से प्रभावित नहीं हो पाया हूँ। मुझे इनका व्यक्तित्व ठीक उसी प्रकार निकम्मा लगा है जिस प्रकार मेरा सोफी को लगा था। ये भी काम करने वालों में न होकर काम में टांग अड़ाने वालों में से हैं।
मिल के कमरे में मुख्य अधिकारियों का जमघट जुड़ गया है। त्यागी और बाबा इन सबकी खुशामद में लगे हैं।
“अब देखिए इन यूनियन वालों की मांग! एक – महंगाई भत्ता के साथ साथ पंद्रह प्रति शत का बोनस चाहिए और वो भी जब मांगें तभी! दो – तनखाएं बढ़नी चाहिए क्योंकि महंगाई बढ़ रही है और वो भी हर छह माह के बाद बढ़ी महंगाई के साथ ही बढ़नी चाहिए! तीन – बच्चों को मुफ्त शिक्षा, रहने को घर, मनोरंजन के साधन जैसे कि मिल का अपना सिनेमा घर और खेल कूद का प्रबंध तथा खिलाड़ियों को स्पेशल खुराक के साथ साथ कुछ नगदी भी मिलनी चाहिए। चार – हर कर्मचारी को मिल की ओर से काम करने की वर्दी मिलनी चाहिए!
इसके अलावा और भी छोटी मोटी मांगें हैं जैसे पेंशन, हारी बीमारी के बाद इलाज और मरणोपरांत परिवार के लिए कुछ सहायता। मिल में दुर्घटना में मरे मजदूरों की जान की कीमत, इत्यादि इत्यादि!”
अब सोचिए – मिल तो पहले ही घाटे में है ये फालतू बोझ किसके कंधे पर रख दें?
पल भर शांति बनी रही है। बाबा मौन हैं। कुछ सोचे जा रहे हैं। त्यागी जी जैसे किसी शून्य से कोई निर्णय पकड़ कर लौटे हैं। सभी त्यागी जी को ही घूरे जा रहे हैं। मेरे मन में आक्रोश भरता आ रहा है।
“मांगें तो इन लोगों की जायज हैं सेठ जी! मजदूरों और गरीबों की हालत किस से छिपी है!”
“लेकिन योगेश जी मिल इतना भुगतान कर नहीं पाएगी! तुम तो जानते हो कि ..”
बाबा कहते कहते रुक गए हैं। कोई गोपनीय तथ्य है जिसे वो सबके सामने उगलना नहीं चाहते। उनकी आंखें त्यागी पर जा गढ़ी है। लेकिन त्यागी की जबान पर ताला पड़ गया है।
बाहर शोर गुल और हू-हल्ला मच गया है। मजदूरों ने गाने बजाने से लेकर मंच और शामियाने तक का प्रबंध किया है और अब वो गा गा कर सरमायादारों की धज्जियां बखेर रहे हैं – माया खाए कौवा काटे – मोटे लालों से डरियो!
हम बोनस लेकर छोड़ेंगे तू देखता रहियो –
हम हिस्सा लेकर छोड़ेंगे तू देखता रहियो –
ओ हम हक लेकर ही मानेंगे तू देखता रहियो!
देखते देखते यूनियन के कार्यकर्ता अंदर भरते चले आ रहे हैं। एक सनसनी सी हवा पर तैर रही है। किसी उपद्रव की संभावना से सभी थर्रा से गए हैं। त्यागी जी अपने आप को कार्यकर्ताओं के सामने एक बिचौलिया के रूप में पेश करने में लगे हैं!
“भाइयों! शांति पूर्वक बैठ जाओ। फैसला अभी और इसी वक्त हो जाएगा!” त्यागी जी ने घोषणा की है।
बाबा की बाछें खिल गई हैं। एक आशा की किरण बुझते इरादों को दोबारा चेतना प्रदान कर गई है। मैं शांत बैठा पूरी स्थिति का मूक सर्वेक्षण करता रहा हूँ। मेरे अंदर से कोई बोल पड़ना चाहता है और मैं त्यागी का स्थान पा कर उसे बाहर धकेल देना चाहता हूँ। मेरा मन कह रहा है ये त्यागी चोर है। सारा खोट इसी का है वरना तो ये मजदूर ..!
“आप लोगों की शर्तों का अवलोकन मैं कर चुका हूँ। आप लोगों से मुझे हमेशा से हमदर्दी है। आप लोग ये चाहते हैं अत: मैंने मिल के अधिकारियों को भी रजी कर लिया है! अब आप लोगों को कुछ न कुछ तो मिलना ही चाहिए!”
“हमारी पूरी शर्तें माननी होंगी!” एक हृष्ट-पुष्ट से आदमी ने जोरों से कहा है। मैं इस आदमी को अच्छी तरह से देख नहीं पाया हूँ।
“ठीक है। आप मेरे साथ आइए!” कहकर त्यागी उस आदमी को अलग कमरे में ले गया है।
जब वो दोनों लौटे हैं तो दोनों के ही चेहरे खिले हैं। इस आदमी ने – जिसे मैं अब साफ साफ देख पा रहा हूँ अन्य साथियों के कान में कोई मंत्र फूंक दिया है। सभी का रौद्र रूप शांत हो गया है। बाबा भी एक बार फिर गहन संकट से उबर आए हैं।
उसी आदमी ने बाहर जमघट को डपट कर कहा है – सभी लोग अपने अपने घर चले जाएं। कल से सभी ड्यूटी जोइन कर लें। हमारा काम बन गया है।
भीड़ उसका मुंह ताकते हुए कुछ और भी सूचना चाहती है पर उस आदमी ने कुछ और कहने से साफ इनकार कर दिया है। लोग कोई साफ मन्तव्य नहीं जान पाए हैं।
“हमें क्या मिलेगा – हम जानना चाहते हैं!” एक अधेड़ युवक ने मांग की है।
उस आदमी ने लपक कर उस युवक की गर्दन पकड़ कर उसमें दो जड़ दिए हैं और फिर गुर्रा कर कहा है – सभी साले नेता की दुम बनते हैं! हम जान पर खेल रहे हैं और ये?
“बताओ बताओ! हमें क्या मिलेगा?” और भी चार पांच आदमी बोल पड़े हैं।
उस व्यक्ति का चेहरा रोष पी कर पीला पड़ने लगा है। मैं खिड़की से उसके चेहरे पर बिखरे समूचे भाव पढ़ नहीं पा रहा हूँ। अंदर हम सबके लिए कॉफी और खाने के व्यंजन आ गए हैं। अंदर से कमरा ठंडा है और बाहर की गरमी का आभास नंगी नजर लगा नहीं पा रही है। मजदूरों के अधनंगे बदन पसीने की गंध में सने हैं। एक हल्की सी रेत की परत अनजाने में उन पर सवार हो गई है। कुछ हैं जो चार चार पांच पांच के गिरोह में जमीन पर जा बैठे हैं। कुछ और हैं जो आम वालों की दुकान के पट्टे पर लदे हैं। तो कुछ मिल की बाउंडरी पर जमे बैठे हैं। बीसवीं सदी में मुझे आदमियों का झुंड बनगायों का पड़ाव सा लगा है। न कोई उठने बैठने का तरीका है और न बात करने का सलीका! न कोई पहनने ओढ़ने का शौक है और न कोई और फूंफां है। बस चुपचाप बैठे बैठे बीड़ी का धुआं निगलने में एक मौन ज्वालामुखी की तरह सुषुप्त अवस्था में चेतना विहीन दैत्य लगे हैं। त्यागी इनका दलाल है जो अनभोर में हर बार आकर इन्हें धोका दे जाता है!
“तो क्या अभी भी सभ्यता दिल्ली के बाहर नहीं निकली है?” मैं अपने आप से प्रश्न पूछ बैठा हूँ। उत्तर दूं या रहने दूँ – सोचते सोचते बाहर हाहाकार मच गई है।
“बताओ बताओ! हमें क्या मिलेगा? हमें हमारा हक मिलेगा या नहीं?”
पूरी भीड़ गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रही है। लगा है सोते दैत्य अर्ध चेतना प्राप्त कर चुके हैं। बीड़ी का धुआं गर्मी के साथ मिल कर हवा में जहर घोल गया है। बाबा का चेहरा फिर लटकने लगा है।
त्यागी जी अभी भी किसी चमत्कार के घटित होने के इंतजार में हैं!
मेजर कृपाल वर्मा