मैंने चोर नजरों से उसके चेहरे को घूरा है। सोफी के सफेद दांत और लाल लाल होंठ इस तरह पसर गए हैं जैसे गंगा के किनारों के बीच बिखरे सफेद गोल गोल पत्थर। मैं छलांग लगाना भी चाहता हूँ और नहीं भी। अनुराधा ने फिर मुझे पकड़ लिया है। अब वो दोनों मिल कर हंसने लगी हैं। मैंने अपनी झेंप मिटाने की गरज से श्याम को पुकारा है।

“श्याम! सामान गाड़ी में रखवाओ। चलते हैं – घर पर बाबा इंतजार कर रहे होंगे!”

“कैसे हैं बाबा?” अनुराधा ने बड़े ही मधुर स्वर में सवाल किया है।

“बस चल कर देख लेना!” मैंने भी कुछ खुलने का प्रयत्न किया है।

अब तक एक बंधन जो मुझे घेरे था अब मैं उसे बहुत जल्दी कुल्हांच देना चाहता हूँ। एक आत्म सम्मान जो अब तक मुझे दीपक की आभा की तरह घेरे था अचानक पिट गया है। मुझ में जो भी आकर्षण थे – धन का, व्यक्तित्व का और जवानी का सभी क्षत-विक्षत होकर इस विकट परिस्थिति से जूझ पड़ना चाहते हैं। मैं एक सीधा सवाल सोफी से पूछ लेना चाहता हूँ – क्या खोट है मुझमें जो ..?

मन ही मन एक और शपथ ली है – जो भी कमियां होंगी उन्हें जंगली खर पतवार की तरह अपने आप में से खोद कर फेंक दूंगा। सोफी को पाना मेरी जीत होगी और गंवाना हमेशा के लिए मेरी हिम्मत तोड़ देगी। अपनी महत्ता दिखाने की गरज से मैं स्टेयरिंग पर कुछ बन कर बैठ गया हूँ। अब भी सोफी की प्रतिक्रिया पढ़ने की लालसा से मैं आंखें झिपझिपाकर मिरर में देख रहा हूँ। सोफी शांत बैठी है।

“ऐसा कैसे हो सकता है कि ..?” मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि सोफी कौन सी बला है। जरूर वो चोरी कर रही है। अपने आप को आड़ में रख कर मेरे ही अंतर को टटोले जा रही है। उसकी आंखें मुझे हर बार बता जाती हैं कि उनमें कुछ लगाव अवश्य धरा है लेकिन जो पर्दा सोफी ने डाला हुआ है वह अभेद्य है।

“अनु! पिछले दो सालों में हिन्दुस्तान कितनी बार याद आया?”

अब मैंने अनुराधा को ही कुरेदा है। चुप्पी मुझे खाए जा रही है और अनुराधा है कि सोफी के साथ मिल कर हंस लेती है। श्याम तो है पर वो दृश्य से उतर सा गया है और अब मुझे अकेले ही लड़ना पड़ रहा है।

“कैसी बात करते हो भइया! भला अपनों को भी कोई भूल पाता है?”

अनुराधा ने बड़े ही आत्मीय ढंग से कहा है। इसमें झूठ और सच की जो मात्राएं हैं वो उसकी रसीली जबान भी छुपा नहीं पाई है। अनुराधा बहुत सुखी है और कोई भी लड़की सुख में जाकर मायका भूल जाती है।

“तो फिर काम बहुत रहता होगा? सुना है – अमेरिका में लोग रात दिन नहीं सोते!”

मैंने व्यंगात्मक ढंग से अनुराधा का सहारा लेकर सोफी पर सीधा वार किया है। सोफी और अनुराधा हंस पड़ी हैं। अनुराधा ने सोफी से कहा है – मैं कहती न थी – बड़े ही शरीर हैं ये महाशय! अभी क्या है – देखती जाओ!

मैं अनुराधा का आभार अनभोर में मान गया हूँ। वो सोफी को मेरे बारे में बहुत कुछ बताती रही है। पर जो स्वयं अनुराधा भी नहीं जानती वो कौन बताएगा? कौन बताएगा कि मैं अब एक प्रबुद्ध प्रौढ़ बन गया हूँ और अपना तथा देश का भला बुरा सोचने लगा हूँ। मन आया है कि अपनी प्रशंसा के गीत खुद ही गाना आरंभ कर दूँ। लेकिन इसे अनुचित समझ कर मैंने श्याम को घूरा है। सकपका कर श्याम कार की दीवार से चिपक गया है क्योंकि मेरा मूक अभिप्राय समझ लेना उसके बस की बात नहीं है। सोफी ने एक हल्की नजर से फिर मुझे देखा है। मैं भी इस नजर पर निसार होकर रह गया हूँ।

पालम से घर तक की यात्रा में मैं बेसुध सा ही गाड़ी चलाता रहा हूँ। रास्ते का ट्रैफिक, मोड़ तोड़ और किसी जाने माने अभिवादन में उठा मेरा हाथ या किसी धकेल वाले का विकृत चेहरा देख कर भी मुझे कोई अपने तेरे का ज्ञान नहीं रहा है। अलसुबह की बयार में जो धुआं भर जाता है सारे वातावरण को दूषित कर देता है और दिल्ली शहर कुछ समय के लिए अपना चमत्कार खो बैठता है। मैं इस धुंद और कुहासे पर हमेशा खीजने लगता हूं और इसका इलाज खोजते खोजते भूल ही जाता हूं कि इसमें अनगिनत सुखी दुखी मनों की दुआएं आकर मिल जाती हैं।

“क्या यह सब अमेरिका में नहीं चलता है?” मैंने एक अनाम प्रश्न को यूं ही पीछे फेंक दिया है।

मेरा आशय और तमन्ना है कि सोफी इस प्रश्न का जवाब दे। लेकिन पल भर की चुप्पी से पता चला है कि अनुराधा भी पिछले इन दो सालों में बहुत समझदार हो गई है। वह सोफी की ओर देखती रही है ताकि उसके देश पर लगी तोहमत वही पोंछे।

“क्यों नहीं! वहां भी तो आदमी ही रहते हैं।” सोफी ने अंत में उत्तर दिया है।

“तो औरतें कहां रहती हैं?” मैंने तपाक से पूछा है ताकि हमारी बातों का सिलसिला बिखर न जाए।

“आदमियों के दिल में!” कहते हुए सोफी ने इनाम के बतौर मुड़ कर मेरी ओर एक मुसकुराहट फेंकी है।

हम सब खिलखिला कर हंस पड़े हैं। श्याम भी अपनी झेंप मिटाता रहा है। सोफी का गंभीर और अथाह मन जैसे मेरी पकड़ में आ गया हो – मैं खुश होकर अगला प्रश्न पूछ बैठता हूँ।

“आप किसके दिल में रहती हैं?”

“अभी तो स्वच्छंद हूं – क्योंकि मैं अभी औरत नहीं हूँ!” सोफी ने बात साफ कर दी है।

मेरा मन कैसा कैसा होने लगा है। एक दो लीला तरंगित बदन मेरी आंखों के सामने उभर आए हैं। मैं अब अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ। सोफी तो अभी तक स्वच्छंद है, अछूती है और उसके रूप का सौष्ठव एक अमर ज्योति जैसा है जिसे मैं अपने अंदर भर सकूंगा – मुझे एक कामना हो आती है!

“तुम तो अमेरिका के बारे में कुछ पूछ रहे थे?” अनुराधा ने बात में टांग मारी है।

फिर एक बार हम सब हंस पड़े हैं। मेरे और सोफी के मुखारविंदों पर अजीबो-गरीब स्थितियां छप गई हैं। अब मुझे पता लग गया है कि सोफी भी मुझसे बात करने को आतुर है पर संकोच भाव उसमें भी विद्यमान है। मैं खुश हूँ क्योंकि गपड़-चपर करती लड़कियों से मुझे चिढ़ होने लगती है।

“कैसा मौसम होता है – अमेरिका में?” मैं फिर से हिम्मत करके बोल पड़ा हूँ।

पल भर के लिए वही चुप्पी व्याप्त रही है और फिर सोफी ने ही उत्तर दिया है।

“बहुत अच्छा!” सूक्ष्म में उसने कह कर उसने जान छुड़ा ली है। लगा है वो अमेरिका के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं चलाना चाहती। आंखें मटका मटका कर वो उन में हिन्दुस्तान के नक्शे छापती जा रही है। उसके उत्तर से मुझे लगा है कि वो कुछ बताने में ज्यादा रुचि नहीं रखती और स्वयं जो देखने आई है उसके लिए समय भी नष्ट नहीं करेगी।

“मौसम तो यहां भी बुरा नहीं होता है!” मैंने सोफी को छेड़ा है।

“मैंने कब कहा? आई लाइक इट!” सोफी ने खुश होकर कहा है।

मेरा बंधा बंधा मन आज मेरी आत्मा के कसाव से मुक्त होता चला जा रहा है। सोफी के साथ मैं अब घुल मिल जाना चाहता हूँ। हमारा अजनबीपन छटता जा रहा है और दो चार बातों के आदान प्रदान से हम एक दूसरे को समझते चले जा रहे हैं।

“कहीं तुम मजाक तो नहीं कर रही हो?” मैंने थोड़ा कुरेदा है सोफी को।

“नहीं नहीं! ऑनेस्टली इंडिया इज ए ग्रेट अट्रेक्शन!”

“थैंक यू मिस सोफी!” मैंने कुछ बन कर कहा है।

लगा है मैं जीत गया हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा

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