मेरे स्वागत में ऐवरेस्ट, लिप्सा और अन्य कई सहेलियां खड़ी मिली हैं। एक से एक मोहक मुसकान मेरे ऊपर वार उतार कर वेटरों को भेंट कर दी गई है और एक से एक नरम गरम हाथ मेरे हाथों में फंस फंस कर कुछ कम्यूनिकेट करता रहा है।
“दलीप दी ग्रेट! आइए!” कह कर ऐवरेस्ट ने मुझे पोर्टिको से ऊपर तक ले जाने का जिम्मा लिया है।
उसका अनुसरण करता मैं इन सब रूपसियों को चोरी छुपे देख रहा हूँ। जो ऑफिस में था अब बदल गया था। जो हू हल्ला और हूक मारती मस्ती वहां सभ्यता के पैर उखाड़ रही थी अब किसी शांत नदी – जो पहाड़ों को पार कर मैदान में आ बिछी हो, ठहरी ठहरी सी लग रही थी, उसका छिछोरापन छट गया था और उसका स्थान एक बहुत ही अलग थलग से वातावरण ने ले लिया था।
रूप सज्जा और लिबास कुछ ऐसा मिश्रण था जिसमें हर संप्रदाय, धर्म और जात गोत का रिश्ता नाता जुड़ा नजर आता है। कुर्ते के साथ बैल बॉटम, अंगरखी के ऊपर छपा हैल्प और सलवार, फ्रॉक, स्कर्ट तथा अन्य कितने ऐसे मिश्रण हैं जो किसी जुशांधे या काढ़े की पुड़िया से उठती स्वस्थ गंध का आभास करा जाते हैं!
“ये है – प्रदीप इंटरनेशनल!” एक ऊंचे कद काठ वाले व्यक्ति ने हाथ मिला है। उसके चेहरे के गिर्द कोई दीपक की लौ जैसी आभा मैं देख पाया हूँ।
“पीटर …! हाऊ डू यू डू!” एक जोर का हैंड शेक।
“अफजल!” ये अरब देश के प्रतिनिधि हैं।
“इमजा!” इंडोनेशिया से हैं।
“पोचो!” अफ्रीका से।
“जॉर्ज!” ब्रिटेन।
“रॉकी!” अमेरिका।
“इवान!” रूस।
कितने ही परिचय हैं जिन्हें मैं संभवतः याद नहीं रख पाऊंगा लेकिन ये मुलाकात भुलाना भी संभव नहीं होगा। एक साथ इतने देश वासियों से मिलना पहली बार घटित हो रहा है। मैं इसकी कल्पना हजारों बार कर चुका हूँ। मन में पता नहीं कितनी बार रूस, अमेरिका और चीन जापान को भारत के खाके के सांचे में चिपकाता रहा हूँ ताकि पूर्ण विश्व एक इकाई बन कर रह जाए! पर आज जो साक्षात्कार हो रहा है – एक सुनहरी मौका है जो अपने आप मुझे प्यासे कुंए से मिलने दे रहा है।
प्रदीप ने बिना किसी संबोधन और शिष्टाचार के कहना शुरू किया है – सर्वांगीण समाज की संरचना, बहु वंशी जाति का जन्म, सभी वर्गों से जुड़ा तादात्म्य और विस्तृत दृष्टिकोण ही आज के इस अद्भुत संकट – जिसे विश्व झेल रहा है, को टाल सकता है और टूटते मानव संबंधों को जोड़ सकता है।
इसमें शिक्षा एक अद्भुत उत्प्रेरक सिद्ध होगी और हमें विश्व को अज्ञानता के घातक प्रदूषण से ऊपर खींचना होगा!
पोचो ने उठकर बीच में अपना मत दागा है। किसी को पोचो के असामयिक दखल पर आपत्ति नहीं है।
“गरीबी में गर्क देशों को जब तक संपन्न न बनाया जाए वो श्री संपन्न देशों के चमचे ही बने रहेंगे!” हमजा ने कहा है।
“संसार की संपत्ति का विनियोग और विभाजन फिर से करना होगा। कच्चा माल मुफ्त खरीद कर मुनाफा में लोगों का स्वत्व भी काट कर खा जाना बेईमानी है, घात है!” अफजल ने बड़े ही भावावेश में जोर जोर से कहा है।
सभी हंस पड़े हैं। किस सहज भाव से ये लोग विकट स्थितियां पार कर गए है – मैं देखता रहा हूँ। अचानक कोई मुझे भी कुछ बोलने को बाध्य कर रहा है। लगा है ये लोग प्रगति की नाव में बैठे कहीं तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और मैं हूँ कि अज्ञानता के अंधे सागर में गोते खा रहा हूँ। क्यों न मैं लपक कर चप्पू पकड़ लूँ। क्यों न मैं एक तिनका बन कर किसी डूबते का सहारा बन जाऊँ और क्यों मैं धर्म, जात और मान अपमान के घरौंदों में बैठ कर घुटूं?
“हम में सब से बड़ी सृजनात्मक शक्ति की कमी है जो हर पल हमारी मनोकामनाएं विफल बना जाती है। हमें कहीं पर किसी ऐसी जमीन पर जाकर बसना होगा जहां एक बहु वंशी गांव, एक बहु धार्मिक संस्था और स्वार्थ विहीन समाज का एक सर्वहारा वर्ग बने और जो एक झंडे को उठा कर चले और अन्य सभी लोगों को नीचे आने के लिए पुकारे और हम सब उसके प्रचार में लग जाएं!”
मैंने उठ कर इस अवसर का फायदा उठाया है और बे रोक टोक कहना आरंभ किया है! मैं बैठ गया हूँ तो खूब तालियां बजी हैं। पता नहीं चापलूसी में या सही अर्थों में ये करतल ध्वनि हुई है पर मुझे एक इंच हुई खुशी दरका कर धर गई है!
“ही हैज हिट दि नेल!” किसी ने चीख कर पुकारा है।
“देयर इज द पॉइंट!” ऐवरेस्ट ने भी आवाज दी है।
इसके बाद तो एक हो हल्ला, मिलना जुलना, चुम्मे चपाटे और गलबहियां जैसी हरकतें होती रही हैं। वेटर ड्रिंक लाते रहे हैं। नाचते गाते लोग अपनी अपनी ब्रांड पीते रहे हैं। मुझे किसी ने न तो पीने को कहा है और न ही मेरी ब्रांड पूछी है। वेटर से मैंने खुद ही वाइट हॉर्स लाने को कहा है।
एक भीना भीना संगीत प्रस्फुटित हो रहा है। हॉल की दीवारों से फूटता उजास किसी गुप्त शक्ति के चिंतन में खींच ले जाता है मुझे। देखते देखते हॉल में सिगरेट के धूंए के साथ साथ सुल्फा और गांजे के जैसी गंधें घुल गई हैं। ज्यों ज्यों रात ढल रही है मस्ती बढ़ रही है और मैं अकेला छूट गया हूँ। किस से जा चिपकूं – एक प्रश्न है जिसका उत्तर मैं नहीं दे पा रहा हूँ। लगा है अभी तक मैं इस समाज का नहीं हो पाया हूँ। अभी भी मेरे गिर्द अभेद्य अहाते खिंचे हैं और मैं एक सत्य को समेट रहा हूँ कि दलीप दि ग्रेट फिर कहीं किसी सैडिस्ट में न बदल जाए!
“बैठे ही रहेंगे?” लिप्सा ने आकर मुझे झकझोड़ा है।
“मैं ..? हां हां! हूँ हूँ!” एक मरी सी बेजान हंसी पता नहीं क्यों मैं उबासियां लेता लेता हंस गया हूँ।
“आओ!” कह कर लिप्सा मुझे खींच ले गई है।
“दोस्ती लगाओ!” कह कर उसने मुझे एक लंबी, निरी हड्डियों से बनी लड़की के समक्ष छोड़ दिया है जिसने मुझे देख कर हंस दिया है और पूछा है – हैल्लो दलीप? मेरा हाथ उसने कस कर पकड़ लिया है!
लगा है लिप्सा मुझे एक शेर के सामने फेंक कर चली गई है।
मेजर कृपाल वर्मा