साक्षात्कार के लिए बोर्ड की संरचना मैंने लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्तियों को बुलाकर की है। बोर्ड का कमरा एक मोहक कचहरी सा लग रहा है। इस कमरे में सब कुछ नया है – फर्नीचर, पंखे, कारपेट और यहां तक की दीवारें भी। मैनेजर चुनने का ये तरीका नया है। पर इस नए पन में पुरानापन अभी भी घुलने को तैयार नहीं है।

मिस्टर मेहरोत्रा ने अंदर आने की इजाजत मांगी है। वो अंदर आ कर नियुक्त कुर्सी पर आसन्न हुए कुछ घबराए से बोर्ड के मेंबरों को कातर निगाहों से देख परख कर एक अज्ञात मुकाबले की प्रतीक्षा में हैं!

“आप मजदूरों के वेलफेयर के लिए क्या कुछ करना चाहते हैं?”

पहला सवाल गृह तथा उद्योग मंत्री ने किया है। सवाल एक साक्षात भविष्य सा कमरे की छत से उलटा लटक गया है और अब मिस्टर मेहरोत्रा इसके सर और पैर पाने में असमर्थ लग रहे हैं। एक चुप्पी के मध्य सभी बोर्ड के मेंबर मेहरोत्रा के मुख मंडल पर बिखरे पराजित भाव पढ़ पा रहे हैं।

“जी .. मैं .. सबसे पहले अस्पताल बनवाऊंगा। इसकी जरूरत है। इसलिए कि लोग आजकल बहुत बीमार होते हैं।” हिचकोले ले ले कर मेहरोत्रा बिन सोचे समझे कहे कथन की पुष्टि कर रहे हैं।

बात ठीक भी है पर मेहरोत्रा साहब को इससे पहले कभी नहीं सूझी। वरना वो कहते – समाज में बढ़ता सामाजिक तनाव आज हमें नई नई बीमारियां भेंट कर रहा है – ट्यूमर, कैंसर, हार्ट अटैक, नवर्स ब्रेकडाउन और टी बी जैसे घातक रोग पनप रहे हैं। लंगडी संतति का जन्म हो रहा है और हम चाह कर भी निष्क्रिय बैठे अपने सर्वनाश को देख रहे हैं। पर वैसा कुछ हुआ नहीं और मेहरोत्रा फिर किसी डरे चूहे की तरह अपने बिल में सिकुड़ कर जा बैठे हैं।

“अगर आप को दो करोड़ रुपया सौंप दिया जाए तो आप क्या करेंगे?”

सवाल खन्ना ने किया है जो वित्त मंत्रालय में उच्च पद पर आसीन हैं और मेरी स्पेशल रिक्वेस्ट पर ही यहां पधारे हैं।

मेहरोत्रा के भाव जो पहले पल उगे थे पलट गए हैं। ये काया पलट हम सब ने देखा है और परखा है। मेहरोत्रा कुछ झेंप कर ही बोल पाए हैं!

“जी .. मैं ये दो करोड़ मिल की भलाई और उन्नति में खर्च करूंगा!”

“लेकिन कैसे?” एक और सवाल आया है।

“जी .. जी .. पहले तो नई मशीनें ..”

“पर मशीनें तो नई हैं?”

“जी – फिर तो ज्यादा स्टाफ ..”

“लेकिन क्यों?”

“जी उत्पादन बढ़ेगा तो आमदनी भी ..”

“आप जा सकते हैं मिस्टर मेहरोत्रा!” मैंने बोर्ड की अनुमति से उन्हें अवगत करा दिया है। पिटे से मेहरोत्रा उठ कर चल दिए हैं। जाते जाते विनम्र अभिवादन करना नहीं भूले हैं।

यही सवाल हर प्रत्याशी के सामने रक्खे गए हैं। इसके कोई किताब में लिखे उत्तर नहीं हैं और न ही हमें रटे पिटे उत्तर चाहिए! बोर्ड को हर प्रत्याशी से एक तार्किक विश्लेषण पर नपी तुली योजना की उम्मीद है जिसमें मैनेजर को दूरदर्शिता और समस्याओं की प्राथमिकता का प्रदर्शन करना महत्व रखता है। लेकिन अब तक के प्रश्न उत्तर से यही प्रमाण मिला है कि कुर्सी पर बैठ कर हम बाहर फैले परिवेश से कट जाते हैं और महीने में खर्चे घंटों का हिसाब दमड़ों में चुका कर सिमट कर बैठना पसंद करते हैं।

“मजदूरों के वेलफेयर के बारे में आपकी क्या राय है?”

यही प्रश्न जब मुक्तिबोध के सामने आया तो उसने एक कृतज्ञ मुसकान बोर्ड के हर मेंबर को बांटी। एक अजीब सी तैयारी जिसमें कुर्सी पर संभल कर बैठने, हाथों को आपस में कस कर और पैरों को सही पैंतरे के लिए बदल कर शामिल करने के बाद ही उसने कहा है!

“मजदूरों के वेलफेयर से मैं समझता हूँ – उनकी दिन प्रति दिन तथा आगामी समस्याओं में हाथ बंटाना। ये समस्याएं हैं – पैसे की समस्या, राशन तथा दूध की समस्या, रहने और मनोरंजन आदि कि समस्या, शिक्षा और स्वास्थ्य तथा उनकी रहने सहने की समस्या।

ये मूल समस्याएं अगर सुभीते से संभाल दी जाएं तो हम मजदूर का मन खरीद सकते हैं! इसका मस्तिष्क जो इन समस्याओं से उलझ कर निष्क्रिय हो जाता है अब अबाध गति से काम कर सकता है।

इसके लाभ जानने के बाद मैं इनकी समस्याओं का उन्मूलन इस तरह करूंगा – सबसे पहले लूंगा ऐजूकेशन। किताबों से इतिहास या भूगोल की रटाई पिटाई से मेरा मतलब नहीं है। मैं तो चाहूँगा – उनका बौद्धिक स्तर ऊंचा हो, उनके विचार विस्तृत हों, चारित्रिक संज्ञाएं फिर से दोहरा कर और बार बार जोर देकर उन्हें याद दिलाई जाएं! इसके अलावा घाटे या मुनाफे के लाभ हानि उनसे और देश से कहां तक जुड़े हैं – यह भी बताया जाए!

ये करने के लिए मैं चाहूँगा – ये लोग अखबार पढ़ें, पत्र पत्रिकाएं पढ़ें, आपस में वाद विवाद करें, उन्हीं में से पढ़े लिखे लोग उन्हें स्वयं सेवक के तौर पर रूढ़िवाद से ऊपर खींचें। इसमें रेडियो ओर टेलीविजन तथा सिनेमा कुछ निहायत आवश्यक उपक्रम हैं जो हमारी मदद कर सकते हैं। देशाटन, लोकल विनिमय जो पास पड़ौस की मिल और संस्थाओं के साथ मिल कर निश्चित किए जा सकते हैं और ..”

“ठीक है मिस्टर मुक्तिबोध! अब आप ये बताइए कि अगर हम आप को दो करोड़ की पूंजी सौंप दें तो आप क्या करेंगे?”

मुक्तिबोध को बहते भावों पर रोक लगा कर उसका रुख मोड़ कर बहाव देखने की जिज्ञासा उन सब में भर गई है!

“ये एक ऐसा सवाल है जो आज हर पैसे वाले के दिमाग में घुन की तरह लगा हुआ है। मैं पैसे वाला नहीं हूँ अतः दौलत के मोह से असंपृक्त होना भी संभव नहीं है। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि माया का ये सम्मोहन हम सब के लिए घातक है। हर घनिक आज इन्वैस्ट करने में हिचकता है। मेरे पास जो प्लान है वो ठीक दो करोड़ का है पर आप एक करोड़ और दे दें तभी काम चलेगा वरना जोखिम बढ़ जाएगा!”

मेजर कृपाल वर्मा

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