मैंने नजर भर कर शीतल को देखा है। मोहक लगी है। नीले रंग की साड़ी, गले में पड़ा सफेद मोतियों का हार, कानों में लाल मोतियों से जुड़े झुमके, हाथ में पड़ा एक अज्ञात किस्म का कड़ा कुछ इस तरह जान पड़े हैं जिस तरह पेड़ के तने पर छिटके फूल, पत्ते और फल!

“क्या देख रहे हो?” शीतल ने मुझे चोरी करते पकड़ लिया है।

“तुम्हें!”

“क्यों?”

और इस क्यों को मैं अनुत्तरित छोड़ देना चाहता हूँ। अगर मन की बात कह दूँ तो ..

“क्या मुझमें कोई खोट लग रहा है?” शीतल ने मेरी चुप्पी को बेधा है।

“खोट ..?” मैंने इस तरह दोहराया है जैसे शीतल से सफाई मांगी हो।

“खोट किसमें नहीं होता?” शीतल ने प्रश्न को किसी भारी भरकम बोझ के नीचे दाब दिया है।

मैं शीतल की आंखों में एक अजीब सी निर्भीकता पढ़ रहा हूँ। शीतल मेरे सामने एक सपाट सा सच है। एक खुला राज और एक सच्चाई। इसमें अच्छाई और बुराई दोनों हैं और दोनों को झेलने की अथक हिम्मत भी। उसके मन में भी असंख्य वेदनाएं अभी तक उसके इरादे ढा नहीं पाई हैं। लेकिन आज का इरादा अभी तक अज्ञात है।

“छोड़ो! दार्शनिक बनने से क्या लाभ। बताओ ..?”

“मैं तुमसे मिलने आई हूँ!”

“क्यों?”

“मिल नहीं सकती?”

“पर ..?”

“क्या बात है दलीप?” कहकर शीतल ने मेरा हाथ अपने हाथ में भर लिया है। कपास से मुलायम हाथों में एक गरमाहट भरी है जो एक चिंगारी सी मन प्राण में फूंक गई है।

“कोई मानसिक तनाव तुम्हें खा रहा है!” उसने मेरी टीसती उंगली पकड़ ली है।

मेरा चेहरा अजीब भावों से तन खिंच कर सलवटों से भर गया है। मैंने एक लंबा घूंट गिलास से पी लिया है। दारू की पैनी धार भी मुझे स्थिति से काट नहीं पाई है। मैं क्षत विक्षत हुआ जा रहा हूँ। अब मैं अपने ही हाथों परास्त होने को हूँ। जिसे मैं अनगिनत मौकों पर कर गुजरा था उसी को दोहराने में अब पसीने छूट रहे हैं। कारण समझने की चेष्टा करते हुए मैंने बार में पड़ी बोतलों की शक्ल में विभेद दर्शन का पाठ शुरू किया है।

“अभी से इतना सीरियस लोगे तो? फन इज ए पार्ट ऑफ लाइफ!”

शीतल ने इस तरह कहा है जिस तरह वह मुझे बाँहों में भर कर किसी वासना समुद्र में ले डूबेगी और कह देगी – यहां भी ढूंढो खुशी। ये भी साथ में लेते चलो – मुझे भी साथ ले लो, मैं भी और वो भी .. और ..! शीतल मेरा हाथ भिचे दे रही है और मेरी हाथ खींचने की हिम्मत हार गई है।

मैंने शीतल को फिर घूरा है। रति रम्भा का सा अजेय आकर्षण मुझे इस बार शीतल के समीप ला कर छोड़ देता है। मैं शीतल के ब्लाउज के अंदर कई बार झांक आया हूँ। नीली साड़ी को कई बार खींच कर गुड़ी मुड़ी कर के फर्श पर फेंक चुका हूँ। कई बार – कई बार और बार बार उसका चेहरा हाथों में सडासी के जबड़ों की तरह जकड़ कर चुंबनों से कर्ज जैसा चुका चुका हूँ .. पर ..।

मैंने शीतल के अंदर हिलोरें मारते भावों को कगार ढाते देखा है। जब भी वह तनिक तुड़ मुड़ जाती है लगता है कुछ बाहर टपक जाएगा। एक अनुमति मांगते शरीर की भूख और छटपटाती नदिया की प्यास, आलिंगन, कसाव और गहरा होता कसाव कुछ निचोड़ता सा मीठा मीठा दर्द ..! मन आया है शीतल के होंठों पर फैले गहरे रचाव को चाट जाउँ। लेकिन एक कायरता अभी भी मुझे स्टूल पर अपंग बना कर बिठाए है। एक निर्देश है जो मुझे कहीं दूर से मिल रहा है!

“होशियार ..! जागते रहो ..!” लगा है – रात आधी हो गई है।

“इतने कठोर कब बने? तुम तो ..” शीतल अब मुझसे पूछ रही है।

“शीतल ..”

“डार्लिंग! कुछ कहो ना ..? कम ऑन – दलीप ..!”

शीतल की बांहें मुझसे आ जूझी हैं। उसने प्रतीक्षा में असफल होकर अब इनीशियेटिव लिया है।

“मुझे तुम चाहिए .. तुम से और कुछ नहीं चाहिए!”

“ग-ल-त!” मैं कहना चाह कर भी नहीं कह पाया हूँ। शीतल का रूप भरमा तो रहा है पर कुटिलता कुछ और कह रही है। बानी का फुफकारता चेहरा सामने आ खड़ा हुआ है। और शीतल भी कल चीख चीख कर कहेगी – यू .. सो एंड सो ..!

“तुम्हें क्या चाहिए?”

“उम्मीद क्या रक्खूं?”

“जो भी बन पड़ेगा करूंगा!” मेरी सांस फूल गई है। दबी वासना अब रो देने को है। गला भर्राया हुआ है और एक रोष मुझपर सवार होता जा रहा है।

“गिलास एक बार और ..?”

मैंने फिर दोनों खाली गिलासों को भरा है। लगा है जो अब तक घटा था दोबारा वही घटेगा। मैं फिर से उसी मानसिक परिताप से जा जुड़ा हूँ। मन में फिर एक कमजोरी उठ खड़ी हुई है – द हैल विद यू! गो अहेड …!

भोग भोगने से मैं अब डर रहा हूँ पर इसका अंजाम मुझे भला नहीं लग रहा है। पर शीतल तो वार पर वार कर रही है। मुझे वह उठने का मौका नहीं दे रही है। अपने रूप लावण्य का गुलाम बना कर मुझे कहां खींच ले जाना चाहती है – मैं नहीं जानता!

“लो ..!” कहकर मैंने गिलास सरकाया है।

“इसमें और मुझमें क्या सामंजस्य है?” गिलास को संबोधित करके शीतल ने पूछा है।

“दोनों ही मादक हैं और दोनों ही जलाती हैं!” मैंने सही सही उत्तर दिया है।

“वैल डन!” कहकर शीतल खूब हंसी है। साथ मैंने भी दिया है पर बेमन।

“अब तक कितने जल गए हो?”

“बहुत .. बहुत!”

“और ..?”

“और क्या?”

“आग तो अभी लगी है!”

“हां ..!”

“फिर किसकी ..?”

“है कोई!”

“आन तो टूटती जुड़ती रहती है। खास कर मॉडर्न लाइफ के संदर्भ में तो आन और संबंध कोई ऐसी वस्तुएं नहीं जो टूट कर फिर न जुड़ें!”

“लेकिन मैं तोड़ना नहीं चाहता!”

“मुझे नहीं परखोगे?”

“नहीं!”

“चांस भी नहीं दोगे?”

“नहीं!”

“लेकिन क्यों?”

“मैं नहीं जानता!”

“च च च! किस कदर सूख गए हो – तरस आता है। तुम्हें तो कोरा कंगाल होना चाहिए था!”

“हां! यही अच्छा होता!”

“पिछली बातें ..?”

“अब याद नहीं हैं!” कहकर मैं गिलास में आंखें गढाए गढाए एक आकृति को उभरते देख रहा हूँ। अतीत सामने मस्ती में झूम सा रहा है और मैं उससे पृथ हुआ कटा खड़ा हूँ।

“मैं तो बहुत सारी उम्मीद लेकर आई थी!”

“कहो न!”

“अब कैसे कहूँ?”

“आज कल मैं बिना फीस लिए भी काम कर देता हूँ!” मैंने पहली बार शीतल पर चोट मारी है!

मेजर कृपाल वर्मा

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