“आप ने जूते या चप्पल क्यों नहीं पहने?” मैंने रूपसी लिप्सा से पूछा है।
लिप्सा अचानक मेरी उठी जिज्ञासा पर तनिक मुसकुराई है। उसके लाल होते गाल मुझे एक अनाम सा निमंत्रण दे गए हैं। लिप्सा गोरी, सुंदर, छांट कद की अच्छी पढ़ी लिखी युवती है। उसने पल भर कहीं शून्य से अपनी तर्क शक्ति को बुलाया है और बड़े ही दार्शनिक भाव से उसने बात शुरू की है।
“जूते पहनने की जरूरत मानव को जब हुई होगी तो वो काफी से ज्यादा व्यसन और अइयाशी में धंस चुका होगा। और तब से ये व्यसन एक हैबिट बन गई होगी!”
“तुम्हारा मतलब .. चप्पल पहनना अइयाशी है?”
“हां! ठीक उसी तरह जिस तरह सिगरेट पीना, पान खाना या कि कपड़े पहनना!”
मैं लिप्सा के लिबास को देखता रहा हूँ। जो वो कह रही है वो गूढ़ और नंगा सत्य लग रहा है। लिप्सा पल भर पहले की हंगामी छोकरी नहीं रही है – एक भोली भाली रूपसी किसी विदुषी के आवरण ओढ़े हुए ज्ञानोपदेश दे रही है। मैंने और भी दिलचस्पी दिखाई है और पूछा है – ये अइयाशियां ..?
“मानव तो नंगा ही पैदा हुआ था। जूते चप्पल पहनना तो उसने कहीं लास्ट स्टेज पर शुरू किया होगा!”
“जो भी रहा हो तुम से मतलब ..?”
“मैं रिसर्च कर रही हूँ कि जूते या चप्पल पहनना या कि न पहनना कहां तक लाभकारी या हानिकारक है?”
“लाभ ..? हानी ..?” मैं चकरा गया हूँ।
“हां हां! अगर आप नंगे पैर घूमें तो महसूसने पर पता चलता है कि धरती के सीधे स्पर्श से हमें कितने लाभ पहुंचते हैं और जब वो सीधा कॉनटैक्ट जूते या चप्पल समाप्त कर देते हैं तो कैसे मानव उन लाभों से वंचित रह जाता है!”
“पर हमारे पूर्वज तो ..?”
“खड़ाऊं पहनते थे। वैरी इंटरैस्टिंग केस है ये खड़ाऊं का!”
लिप्सा ने मुझे खड़ाऊं के नगण्य लाभ गिनाते हुए सिद्ध किया है कि मैं जितना ज्यादा बहस करूंगा उतना ही अज्ञानी साबित होता चला जाऊंगा। मैं हर लिप्सा के कहे वाक्य का भार रहता रहा हूँ, उसकी चपल और तार्किक बुद्धि के आघातों से मेरी आंखें चुंधिया गई हैं और अब मैं ऊब कर उससे पीछा छुड़ाना चाहता हूँ।
“हैलो हीरो!” मैं अब शाहजादा हीरो से मुखातिब हुआ हूँ।
“हैलो सर!” उसने बड़े ही सौम्य ढंग से अभिवादन किया है।
हीरो सिर्फ ठंडा पानी पीता रहा है। मुझे फिर से कौतूहल हो रहा है। लिप्सा से पिट कर भी मैं अपनी जिज्ञासा को नहीं रोक पा रहा हूँ। वैसे हीरो के सामीप्य में एक मानस गंध का तीखा प्रहार मेरी ग्रहण शक्ति पर हो गया एक तुषार पात ही है। इन असहज और उपेक्षित पलों के ठहराव में मैंने भी एक सत्याग्रह सा कर डाला है और अब मैं खड़ा खड़ा हंस रहा हूँ। जैसे हीरो के शरीर से रिसती गंध मुझ तक नहीं पहुंच पा रही है और हीरो से पूछा है।
“अरे भाई! तुम तो केवल पानी ही पीते जा रहे हो?”
“जी हां! मैंने सभी मादक वस्तुओं का सेवन बंद कर रक्खा है!”
“लेकिन क्यों?”
“मैं एक सिद्धि की तलाश में हूँ!”
“मतलब ..?”
“देखिए! मैंने एक साल से स्नान नहीं किया। कम से कम एक दिन में छह सेर पानी पी जाता हूँ। कोई भी मादक वस्तु न खा कर सात्विक भोजन पर निर्वाह करता हूँ।”
“क्यों?” मैंने नई उत्सुकता से पूछा है।
“मानव शरीर से उठती गंध कितनी अलाभकारी या लाभकारी होती है – मुझे ये देखना है।”
“उससे क्या होगा?”
“देखिए! जंगल में जानवर हैं – वे कभी नहीं नहाते – मेरा मतलब आदमी की तरह साबुन तेल या नाना प्रकार के सुगंधित तेलों का सहारा लेकर। इनमें जो गंध उठती है वह कुछ न कुछ अनभोर में कम्यूनिकेट करती रहती है।”
“वो क्या?”
“कोई खतरा, कोई उल्लसित स्थिति या फिर हवा का रुख ..”
“और फिर ..?”
“यही तो इन्हें जीने में मदद करती है, भेद बताती है, और आकर्षित करती है। अभी जो आपको बू आ रही है – असहज लग रही है ठीक उसी तरह जिस तरह सिरका की गंध, तमाकू की गंध या शराबी के मुंह से आती गंध उबकायीं पैदा कर देती है। पर जब आदमी इसे सह जाता है तब ..? यू हैव टू डिवलप ए टेस्ट फॉर एवरीथिंग!” हीरो हंसा है।
हां! एक टेस्ट तो डिवलप करना ही पड़ता है। वरना तो जीना ही दूभर हो जाएगा। कितनी ही घृणास्पद स्थितियां उग आएं कोई असह्य सेंट जरूर साथ लाती हैं वरना मन ही बैठ गया लगता है। जीवन देने वाला इस जीवन को किसी मौत के कुल्हाडे से काटता रहता है – पल छिन इक्का दुक्का चोट से आहत कर छोड़ देता है ताकि जीने की चाह कट न जाए!
इसके बाद मुझे ऐवरेस्ट से बात करने की इच्छा हुई है। मुझे ये समाज और इनके वाह्य आवरण से भिन्न लगा है। लगा है – इन्होंने हमारे बनावटी आवरणों को स्वीकार नहीं किया है और अब किसी मूल कारणों की खोज में हैं। तो क्या जिसे ये नकार रहे हैं – वो झूठा है? तो क्या ये बंधन, प्रतिबंध, अनुशासन और लॉ एंड ऑडर भुला देंगे? क्या ये वास्तव में मानव को कायर बनाते हैं, और उसकी स्वतंत्र विचारशील बुद्धि पर रोक लगा जाते हैं?
मुझे लगा है मैं जेल में हूँ। चारों ओर पहरुए मुझे अनुशासन, अपकीर्ति, अपयश हेय और अनैतिक वार्ता आदि के अनाम अस्त्र शस्त्रों से घेरे खड़े हैं। मैं जो जी रहा हूँ इसमें एक भी पल मेरा नहीं है। ये उधार दिया जीवन है और मैं इसे ठेके पर जी रहा हूँ। वरना क्यों पहनूं मैं जूते क्यों पहनूं कपड़े और क्यों डिवलप करूं कोई टेस्ट?
और कितने ही ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर मैं नहीं जानता?
मेजर कृपाल वर्मा