शायद श्याम यह नहीं जानता कि मैं मुक्तिबोध के बारे में सब कुछ जानता हूँ।
“मैंने सुना है कि वो मजदूरों को ..?”
“हां वह मजदूरों का चहेता है और वो इसलिए कि वो खुद कंगाली काट चुका है।”
“लेकिन उसका रेकॉर्ड बताता है कि वो एक ..?”
“हां! यह तो सच है कि वो मेरिट में हर बार प्रथम आता रहा है। लेकिन अनुभव कहां से लाएगा?”
“वैसे लगता तो व्यवहार कुशल है!”
“तुम्हें लगता होगा – मुझे नहीं। काम निकलने पर तुम्हें भी लाल लाल तेवरों का सामना करना होगा। एक के बाद दूसरी मांग और मांगो के बीच से टपकती विपत्तियां – बस मिल भूल कर मुकदमे लड़ने होंगे।”
“ये सब कुछ झेलने के लिए हमें वैसे भी तैयार रहना होगा!”
“वो तो है पर जान बूझ कर सांप को गले में डालें .. ये ..”
“खैर! ये तो इंटरव्यू बोर्ड के ऊपर है। तुम बोर्ड को सूचना दे दो कि सोमवार को सभी प्रत्याशियों का इंटरव्यू होगा।”
“ओके सर।” श्याम ने मुझे आज कटौंही निगाहों से नापा है।
मैं अतिरिक्त भावों के मध्य प्रतिक्रिया हीन चेहरे को संभाले और अपनी निजी मांगो को निरंतर नियमित करने के उपाय में श्याम से एक पर्दे के पीछे से बात करता रहा हूँ। श्याम को शीतल बदल रही है मैं जानता हूँ। कितना कृतघ्न चेहरा है शीतल का मैं सोच कर ही सहम जाता हूँ।
एक हल्की सी सभा में सभी प्रत्याशियों ने एक पांच मिनट का भाषण दिया है। मेरे प्रस्ताव के अनुसार भाषण के बाद यहीं सब कर्मचारियों की राय और मत छांट कर एक सूची बन जाएगी जिसमें इन प्रत्याशियों के एक से सात तक अंक मिले हों और सात पाने वाला सबसे नीचा होगा!
मेहरोत्रा बोलने से पहले खांस कर गला साफ कर ही रहे थे कि कर्मचारियों के मध्य से एक हंसी का ठहाका उठ कर वातावरण में अजीब सा उपहास भर गया था।
“मैं आप लोगों से एक ही विनती करूंगा कि आप लोग अपना मैनेजर सोच समझ कर चुनें। ये बच्चों का काम नहीं, इसमें अनुभवी आदमी चाहिए! मैं आप के हितों के लिए लड़ा हूँ और मैं चाहूँगा ..” अंतिम वाक्य जब पूरा हुआ तो समय चुक गया था।
बेशर्म झूठ बोलता है! ये तो अपने लिए ही लड़ता है बस। एक जोर की भर्त्सना में लिपटी आवाज कानों में अवगुंजित होकर मेहरोत्रा के झूठ ओर सच में अंतर बताती रही थी।
“मैं आप लोगों के बीच रहा हूँ। विनती करता हूँ – आप सब अपने अपने हित पहचानते हैं। मैं क्या कहूँ – आप लोग जानते हैं!” ये सब कहा है मिस्टर गुप्ता ने। आवाज में बिलकुल दम नहीं था और एक बौखलाहट और निराशा भरी थी।
मैं सब लोगों के मध्य से उठता नैराश्य देख कर खिन्न होता जा रहा हूँ। लगा है सारे के सारे प्रत्याशी भिखमंगे हैं, स्वार्थी हैं और अपने मतलब के लिए कहीं तक भी गिर सकते हैं। बे मन मैं सब कुछ सुन कर अपनी आत्मग्लानि पी जाना चाहता हूँ। जिस मुकाबले या उच्च आदर्शों के प्रदर्शन की मुझे उम्मीद थी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ!
अचानक मेरे नैराश्य को किसी ने भेद दिया है और मैं चौकन्ना हो गया हूँ।
“साथियों!” मुक्तिबोध ने गरजती आवाज में जमा भीड़ को संबोधित किया है। लगा है उसका ये पहला वक्तव्य नहीं हो सकता – वो पहले कई बार लोगों के सामने बोल चुका है।
“मैं न विनती करूंगा और न भीख मांगूंगा कि आप मुझे अपना मैनेजर चुन लें। मैं सिर्फ इतना कहूँगा – अपने हितों के लिए, मिल मालिकों के हितों के लिए और संस्था के हितों के लिए लड़ना सीखो। ये लड़ाई विध्वंसकारी नहीं सृजनात्मक होनी चाहिए। हमें एक दूसरे से अच्छा काम कर दिखाने की होड़ होनी चाहिए और तभी हम उन्नति करेंगे।
फैक्टरी हमारी संस्था है, रोजी रोटी है और देश की संपत्ति है। हमें इसे आगे बढ़ाना है – पीछे नहीं खींचना! आपसी मनमुटाव या निजी स्वार्थ के लिए हमें इस बुनियाद को स्वाहा नहीं करना है।
वफादारी, ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता जो आज लुप्त प्रायः लगने लगी है हमें अपने और अपने देश के हित के लिए इसे पुन: अपने अंदर जगाना होगा। अगर नहीं तो मैं, आप और ये संस्था तथा देश गरीबी के अथाह सागर में निमग्न हो जाएंगे।
काम के घंटे बांधना, घड़ी लगा कर काम करना, काम के घंटों में चाय पीते वक्त, वक्त गंवा देना और मालिक को घाटे के घूंसे से मार देना – अपने आप से घात करना है। हमारे यहां ये काम के घंटे बांध कर काम नहीं चलेगा। हम जरूरत पड़ने पर चौबीसों घंटे काम करने के लिए कटिबद्ध होंगे! अब हम गुलाम नहीं जो कड़ी शर्तों और सीमाओं में बंधे पड़े रहें। अब हम स्वतंत्र हैं, हमें इस पर गर्व होना चाहिए ओर हमें उन्नत बनना है इसके लिए कर्मशील।”
तालियां बज उठी थीं। साथ में घंटी की टन्न की आवाज ने सूचना दी थी कि समय चुक गया है। मैं खीज कर रह गया, अगर मेरा वश चलता तो मैं मुक्तिबोध के भावों को बहने से कभी न रोकता! उसका यह भाव प्रवाह मुझे गंगा गोदावरी जैसा प्रवाह लगा – शीतल, मोहक और सर्व सुखकारी! मुक्तिबोध भी प्रगतिशील और महत्वाकांक्षी है – मैं जान गया हूँ। उसमें लोगों को अग्रसर करने की आग भरी है। उसमें संचित शक्ति को सृजनात्मक रूप में परिवर्तित करने की क्षमता है।
अन्य प्रत्याशी झेंप से मुंह छुपा रहे हैं। कुछ ने तो आलोचनात्मक ढंग से व्यंग कसा है – ये कोई पॉलिटिकल चुनाव थोड़े ही है। भाई मैनेजर बनना है एम एल ए तो नहीं।
“मुक्तिबोध भाई क्या स्पीच दागी तुमने! तुम तो पालिटिक्स जॉइन कर लो!” चाय की चुस्कियां लेते लेते मिस्टर गुप्ता ने अपनी झेंप उतारते हुए कहा था।
मुक्तिबोध के विचारों की गरिमा सब जान कर भी चाय चुपचाप पीते रहे। किसी ने भी मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा न की। यही खोट हमें खा रहा है। हम अपनी कमजोरियों के साथ ज्यादा खुश रहते हैं और दूसरों के गुण भुला कर एक गिलास ठंडा पानी पी लेते हैं। मानव मन की इससे बड़ी कमजोरी और क्या होगी?
यही सब सोच कर मैं एक घायल मनुष्य की तरह छटपटाने लगा हूँ। श्याम की सिफारिश भी मुझे याद आती रही है।
मेजर कृपाल वर्मा