“डांस करोगे?” उसने पूछा है।
“मैं ..? न न .. हां हां ..!”
“कम ऑन ..!” कहकर वह मुझे डांसिंग फ्लोर पर साथ ले थिरकने लगी है। एक अजीब सा उत्साह उसमें भरा है।
“तुम अब भी अकेले हो?”
“हां ..!”
“क्यों ..?”
सोच रहा हूँ क्या जवाब दूं। वैसे तो मुझे कभी का किसी से बंध कर गृहस्थ बसा लेना चाहिए था। पर मेरे अपने ही कुछ कारण थे जिनकी वजह से बाबा को निराश जाना पड़ा। अनु भी मुंह न खोल पाई और सोफी ..?
“बंधना नहीं चाहता!”
“क्यों ..?”
“लगता है बंध कर मैं विकसित नहीं हो पाऊंगा!”
“अधूरे तो रह जाओगे?”
अचानक जैसे मुझे अपने सुख स्वप्न में घुलती कालिख का आभास हुआ है और देखते देखते मेरे माथे पर काला टीका लग गया है – अधूरा .. कोसा पानी .. पलंग की सफेद बिन रौंदी चादर .. और .. लुच्चा-लफंगा जैसे सर्वनाम आ आ कर चिपकते जा रहे हैं।
“क्षमा कीजिए!” शिष्टता से मैं कट कर थका सा कोने में सोफे पर जा बैठा हूँ। अजीब सी थकान है और मन में टूटन हो रही है।
“हाय दलीप!” प्रदीप ने आ कर मुझे पुकारा है।
ले दे कर मैं खड़ा हुआ हूँ। लगा है एक ही जंगल में दो शेर अचानक मुकाबले में आ खड़े हुए हैं। नापने पर मैं ताड़ गया हूँ कि प्रदीप मुझसे तनिक ऊंचा है और मैं मोटापे में उससे ज्यादा बैठा हूँ।
“हाय!” कहकर मैं उसकी आंखों में घूरता रहा हूँ।
“कैंप के लिए हमने जल गांव में साइट ढूंढा हैं। जगह एकदम खुली, रोमांटिक और आवागमन के लिए सुलभ है, तथा एक दम सैंटर में है।”
“ठीक है! पर बंदोबस्त ..?”
“वही तो मैं अर्ज करने आया हूँ। आप को अधिकारियों को कॉन्टेक्ट करना पड़ेगा, पुलिस को पहरे के लिए तथा अन्य खाने पीने और मनोरंजन आदि का बंदोबस्त भी ..”
“हूँ!” मैं एक सोच में पड़ गया हूँ।
“मैं एक सप्ताह पहले पहुंचूंगा और आप अपनी ..?”
“ओके! मैं पहुंच जाऊंगा!” मैंने स्वीकारा है।
“हमने निमंत्रण तमाम देशों को भेज दिए हैं। अब देखते हैं कितने लोग आते हैं!” कहकर प्रदीप हंस गया है।
“इस कैंप का कोई नाम कोई गोत भी है?” मैंने पूछा है।
“अभी तक तो नहीं पर ..”
“चलो! सुझाओ कोई अच्छा सा नाम!” मैं अब तनिक रुचि ले रहा हूँ।
“सैलानी कैंप, जल गांव कैंप .. या ..” प्रदीप अपनी प्रखर बुद्धि को खरोंचता रहा है।
“कोई गजब का नाम होना चाहिए – जो कुछ कह जाए! कहीं दूर क्षितिज में छिपे हीरों की ओर उँगली उठा कर इंगित कर जाए कि ..”
“फिर तो आप ही सुझाएं कोई ऐसा नाम?”
“स्नेह यात्रा!” मैंने तपाक से कहा है।
“बहुत अच्छा, बहुत अच्छा रहेगा!”
“गेट बना कर लिखवा देंगे – स्नेह ही एक ऐसा बंधन है जो टूटता नहीं और एक सर्व गुण संपन्न संज्ञा लगता है! वरना ये संसार तो बियाबान बन गया है।” मैंने अपनी बात व्यक्त की है।
प्रदीप ने सुबह के चार बजते बजते ये खबर सब तक पहुंचा दी है। कुछ लोग फर्श पर पड़ गए हैं तो कुछ लोग दीवारों से बातें कर रहे हैं। कुछ आगोशों में निबद्ध हैं और अपने आप में पूर्ण हैं। जो कुछ दीन ईमान हार कर अधनंगे दुनिया पर खिलखिला कर हंस रहे हैं और एक असह्य दुर्गंध भरते जा रहे हैं। अब हाल में बहुत बेहाल हुआ जा रहा है। मैं सब सहता रहा हूँ, देखता रहा हूँ और इन युवाओं का एक एक करके विश्लेषण करता रहा हूँ। इन सब के मन किसी चाह या अपूर्ण लालसा से आहत हैं और बे सहारा बन भटक गए हैं।
मई जून के अंत और आरंभ में जल गांव का मौसम हंसने लगता है। सुखद पवन का प्रवाह एक दो हल्की-फुल्की बरखा की झड़ी, कोहकते मोर और पत्ते आमों की महक वातावरण में एक अजीब मस्ति घोल जाती है। हर मन में पानी बरसने मात्र की कल्पना कुछ आगामी भविष्य के रंग ढ़ंग बता जाती है।
मैं और प्रदीप साथ साथ पहुंचे हैं। हमारा अपना अपना बंदोबस्त है। मेरे लिए एक नया खेमा सामने आम के पेड़ के नीचे बनी बैठक जो परकोटे के साथ साथ बनेगी और दूर पीछे बने स्नान घर और शौचालय किसी स्वर्ग के अनभोर में कटे पल्लू का ठोक लगा है। एक जीप मेरे आवागमन के लिए है तथा एक आदमी मेरी देख रेख के लिए नियुक्त किया गया है। लगा है यहां भी आडम्बर मेरा पीछा करता चला आया है। साधू बन कर भी मैं समग्र सुखों से वंचित नहीं रह सकता। खुली हवा में भी बनावटी घुटन मेरा पीछा करती रहेगी और एक बड्प्पन जैसी संज्ञा मुझे कभी चैन से न जीने देगी। फिर वही अकेलापन! इसी आम के पेड़ के जैसा अकेला मैं घुट घुट कर रहने पर मजबूर हूँ।
मेजर कृपाल वर्मा