मन का पूरा विषाद और कुढ़न भर कर मैं शीतल को जलील करने पर उतर आया हूँ। मन में उठा ज्वार भाटा शांत हो गया है और अब सुबुद्धि वापस लौट आई है। कोने में खड़ी प्रतिमाएं अब सामने वस्त्र ओढ़े लजा सी रही हैं। लाज, शरम, आचरण और न जाने क्या क्या अजीब शब्द हैं जो मौके पर नहीं हमेशा बे मौके याद आते हैं।

“क्या मैहरोत्रा मैनेजर नहीं बन सकते? वो तो तुम्हारे पुराने और पिताजी के सामने से ही ..”

“फीस तो ले चुकी होगी?” मैंने एक अजीब कड़वेपन से पूछ लिया है।

“झूठ क्यों बोलूं – हां!”

“तो काम नहीं होगा!”

“तो क्या निराश लौट जाऊं?”

“रोका किसने है!”

बेहद घिनौनी निगाहों से मुझे घूर रही है शीतल। बार बार वह मुझे परखती रही है। एक चट्टान से टकराकर शायद उसका मोल भाव जान लेना चाहती है। एक मिटा देने वाली चुप्पी उसके अंतः में जा भरी है। प्रतिकार, प्रतिशोध, बदला – बेइज्जती का बदला – कितने ही शब्द हैं जिन्हें मैं मन में दोहरा गया हूँ। शीतल अब मोहक नहीं लग रही है। वह एक पल पहले भी आग थी और अब भी अंगारा है पर कितना अंतर है?

“जाऊं ..?”

“जाओ!” मैंने संक्षिप्त में कहा है। लेकिन मैं डर गया हूँ। श्याम का गंभीर चेहरा मुझे याद हो आया है। उसका सहज स्वभाव, पवित्र भावावेश, निश्छल और मानवीय संबंधों पर होता कुठाराघात मैं अंधेरे में भी देख पा रहा हूँ। किस तरह वह शीतल के कुटिल आघात झेलेगा और किस तरह क्षत विक्षत होकर विष पीता रहेगा और होंठ भींच लेगा ..! मैं बहुत डर गया हूँ नारी के इस ज्वालामुखी रूप से। मैं दुश्मनी बढ़ाता जा रहा हूँ शायद।

“सुनो! गाड़ी नीचे खड़ी है। ले जाना!” मैंने जैसे नीचे उतरती शीतल को जोर का धक्का मारा है और वह जीने से लुढ़कती ढुलकती नीचे जा गिरी है।

पल भर बाद ड्राइवर ने अपनी तंद्रिल आंखों को सजग करके कार स्टार्ट की है। दरवाजा जोर से बंद हुआ है तो मेरे गाल पर जोर का थप्पड़ सा लगा है। हैडलाइट जलने के साथ साथ नीचे श्याम के कमरे की लाइट भी जली है। गाड़ी द्रुत गति से सड़क पर आगरा की ओर भाग गई है। कुपित शीतल जैसे जाते ही मेरी गिरफ़्तारी का फरमान भेजेगी और घुड़सवार आएंगे और मुझे बल्लमों की चोंचों से आहत करके सड़क पर घोड़ों के साथ बांध कर घसीटेंगे और पूछेंगे – अब बोल? रचाएगा प्यार का नाटक, नाचेगा उसके सुर ताल पर? और मैं रिसते घावों से खून में लथपथ चेहरे पर कठोर भाव बखेरे उनकी आंखों में लाल लाल लोचनों से घूरूंगा जिसका मतलब होगा – कदापि नहीं!

जब विचारधारा कटी है तो श्याम की अभी भी जलती लाइट अखरने लगी है। उसने भी शीतल का जाना देख लिया है, वह भी डर रहा होगा और मुझसे कुपित होगा। श्याम पता नहीं क्यों शीतल की असलियत जान कर भी सब भूल जाता है! रूप लावण्य का मोहिनी मंत्र उसे कुछ ऐसा लगा है कि सच्ची बात उसपर उलटा असर करती है। वह पलट गया है – मैं यह जानता हूँ।

मैंने अंदर जा कर सोने की कोशिश की है। मैं जानता हूँ कि श्याम अब सो नहीं पाएगा और एक अजीब गरीब शंका समुद्र में डूब मरने की कामना करेगा। बार बार शीतल को पा कर खो देगा, बार बार फिर किसी शीतल के कहे प्यार के बल पर शब्द को दोहराएगा और अगर कोई फोटो देखेगा तो उसे होंठों से चूमेगा और हर बार मुझी पर क्रोध करेगा। मुझमें श्याम को सब कुछ समझने की सामर्थ्य है पर मैं जानता हूँ कि इस चौराहे पर खड़ा आदमी आम तौर पर दिग्भ्रांत हो जाता है।

मैंने कई बार अपने कामों की सूची को दोहराया है। पर शीतल और श्याम मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। मैं शायद अकारण ही इन से जा बंधा हूँ। अगर धक्का देकर इन्हें निकाल दूं तो इसमें हम तीनों का शुभ है। एक बलिष्ठ भाव ने मुझे आश्वस्त किया है। मैंने श्याम को प्रसंग आने पर ताड़ना देने का निश्चय कर लिया है। उसे सब कुछ बता दूंगा – नंगे शब्दों में शीतल को उघाड़ कर नंगी कर दूंगा ताकि श्याम का अशुभ होने से बच जाए।

अचानक मुझे सोफी याद हो आई है। एक कोने में खड़ी प्रतिमा स्निग्ध चांदनी की साड़ी पहने और सुबह के आलम की स्फूर्ति दायक महक लेकर मुझे संकेत से सो जाने को कह रही है।

“बहुत थक गए हो सो जाओ!” बहुत बहुत मीठे शब्द मुखरित हुए हैं।

“तुम्हें क्या? मैं मरूं या जीऊं!” मैंने सोफी से शिकायत की है।

“है, मुझे शिकायत है! अब सो जाओ। विश्राम मन और बुद्धि के लिए आवश्यक खुराक है!”

“फिर वही उपदेश!”

“नहीं! विनम्र विनती ..!” जैसे सोफी की प्रतिमा मौन हो और मेरे रोष से पिघलने लगी हो।

मेरा पुरुष दंभ एक अंजली भर ठंडा पानी पी कर शांत हुआ है। मुझे – मैं – एक अर्थपूर्ण संज्ञा लगी है जिसका ज्ञान सिर्फ सोफी को है।

“ओह सोफी! सोफी .. सोफिया .. माई ..” मैं सो गया हूँ।

सुख स्वप्न की तरह तकिया को समेटे मैं पड़ा रहा हूँ। सोफी का ठंडा भूरा हाथ पता नहीं कब तक मेरा तपता मानस पटल सहलाता रहा है, गर्मी हरता रहा है और मैं गहन निद्रा में निमग्न शीतल को भूल ही गया हूँ – श्याम को भी भूल गया हूँ – जैसे मैं स्वार्थी हूँ!

जब भी मुक्तिबोध ऑफिस में अंदर आता है मेरी रूह खिल जाती है। वह समस्याओं की कतारें लेकर आता है। हाथ में उन कतारों को काटने के लिए खंजर होता है और उन कटे टुकड़ों को फिर जोड़ कर हम दोनों इतनी खींचातानी करते हैं कि समस्याएं खुद ब खुद एक हल में परिवर्तित हो जाती हैं।

और जब भी मुक्तिबोध जाने को होता है मैं ‘एक चाय और’ या ‘लेट्स हैव ए कोक’ आदि के आग्रह से उसे रोक लेता हूँ। आज अखबार में जो लिखा है उसपर चर्चा, उसकी समालोचना, समाज में फैली भूख और तेजी से आता परिवर्तन आदि रोचक विषयों पर बात करना मुझे मजेदार लगता है। मुक्तिबोध के पास हर समस्या का विकल्प है और उसका उन्मूलन भी। किस तरह क्या होगा – वह जानता है। मैं भी सब कुछ जानकर हंस पड़ता हूँ। फिर हम दोनों हंसते रहते हैं। ये तो होता ही है, ये तो हो कर रहेगा आदि इत्यादि तथ्य जब निचोड़ कर हम पी जाते हैं तो – नो ऑल जैसे लगने लगते हैं!

और जब मुक्तिबोध को मैं नहीं रोक पाता तो श्याम को बुलाने की लालसा होती है। और जब इस लालसा को रोक देता हूँ तो मुझे स्वयं को विवश करना पड़ता है। फिर मैं अकेला रह जाता हूँ। एक दम अकेला – कागजों पर छपे वाक्यों के अंत में लगा पूर्ण विराम जैसा मैं तेजी से अनु को पत्र लिखता हूँ। एक पत्र। दूसरा पत्र फिर लिखता हूँ। और अब किसे बुलाऊं? न जाने कहां होगी सोफी? अनु ने लिखा है – वह अभी वहां नहीं पहुंची है। फिर ..?

मन हुआ है – अब सोफी की तलाश में निकलूं। फटे हाल देवदास बन कर घूमूं। एक चाह के पीछे, एक उद्देश्य के पीछे चल पड़ूं। सामने पड़ी फाइलें मुझे ज्यादा देर तक नहीं भरमा पातीं। निर्जीव और बासी लगने लगती हैं और मैं और मेरा मानव हृदय टपकती ताजी ताजी भावुक बातें, गर्म गर्म सांसें, देह का स्पर्श, आगोश और प्यार सम्मान सभी के लिए तरसने लगता है! वास्तव में मैं नीरस हो गया हूँ। निष्प्राण होकर उन आद्र स्थितियों से कट गया हूँ और अब सूख जाऊंगा – शायद!

मन और बुद्धि के लिए अब खुराक चाहिए। मैं इस लाभ हानि के व्यापार के लिए या कि राजनीति के लिए शायद नहीं बना हूँ। जो मुझमें अपूर्व क्षमता है शायद बाबा से मुझे अनभोर में मिल गई है। पर जो मां से मिला है वो तो अभी भी अछूता है। अब इसे कहां खोजूं? हर शाम को एक सूट बूट पहन कर घूमने जाता हूँ। आशा करता रहता हूँ कि किसी उपन्यास की कहानी की तरह सोफी वहां आ मिले और मेरी बहन भी आ जाए। हम सब मिल जाएं और मेरी ये उत्पीड़न घट जाए। पर ऐसा नहीं होता है। जीवन और उपन्यास की कहानी के जिए पात्र भिन्न लगने लगते हैं। किताबों में पढ़ कर सही जीवन नहीं जिआ जा सकता!

मैं – अकेला सूखा पेड़ जैसा इस हरे भरे जंगल में खड़ा हूँ। नई नई कोपलों की तरह उगते फूटते अधेड़ से छोरी छोरियां मेरी खिल्ली सी उड़ा जाते हैं। कई बार मैंने उनके दिए रिमार्क भी सुने परखे हैं जो मेरे ही संदर्भ में कहे जा चुके हैं – सैडिस्ट है .. है तो नहीं पर हो जाएगा!

हां हां! मैं कभी सैडिस्ट था नहीं पर अब हो गया हूँ। पर ज्यादा दिन रहूँगा नहीं। सूरा पूरा जीवन मैं किसी और की कीमत पर नहीं जीना चाहता। मैं तो मानवता के एक युग में एक अपूर्व आनंद पाकर ही जीऊंगा!

मेजर कृपाल वर्मा

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