“वो जो इस मीटिंग के सुझावों से सहमत नहीं अब हाथ खड़ा करें!” मुक्तिबोध ने दोबारा घोषणा की है।
“हाथ खड़ा नहीं – मैं आवाज बुलंद करना चाहती हूँ!”
आवाज के तीखेपन से और दिशा से ही मैं जान गया हूँ कि बोलने वाला शीतल के अलावा और कोई नहीं है।
“ये लंबे चौड़े प्रॉमिस करने वाला आदमी चोर है, गुंडा है, छिनरा है! इसे मैं ज्यादा जानती हूँ!” शीतल हांफ रही है।
मैंने बे मन पलक उठा कर शीतल को देखा है। एक विषैली सुंदर कटारी गला चाक करने पर उतर आई है। मेरा सीना एक घाव खा कर छलनी होता लगा है। एक औरत है जो कल कुछ थी और आज कुछ है। वही बीता कल वापस लाने की चाह मन में फूटी है। शीतल को टुकड़ों में विभक्त कर देने का हौसला बढ़ता लगा है पर ..
“रुक जाओ!” मैंने उठ कर उन पुलिस के सिपाहियों को ललकारा है जो शीतल को बाहर घसीट ले जाना चाहते हैं।
पता नहीं क्यों मेरे आदेश पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई है। पता नहीं क्यों मुझे अपने कहे वाक्य पर से भरोसा उठता लगा है। क्या मैं कुछ कह नहीं पाया हूँ? क्या ये लोग सुन नहीं पाए हैं? क्यों शीतल को घसीटते हुए किसी अदृश्य स्थान पर छोड़ दिया है? क्या उसे कुछ कहने का अधिकार नहीं था? हॉल में मौत जैसा सन्नाटा भर गया है। मुझे अब किसी और उपद्रव की आशंका है जो शीतल के पक्ष को बुलंद कर देगा। अपमान का बदला लेने की शपथ लेगा। पर वैसा कुछ नहीं हुआ है। खामोशी मुझे बरदाश्त नहीं हो रही है।
“भाइयों! ये मेरा व्यक्तिगत मामला है जिसे मिसिज श्याम ने आप से कहने की कोशिश की!” मैंने बड़े ही संयत स्वर में कहा है।
मैं तनिक रुका हूँ ताकि यकीन कर लूं कि अबकी बार लोग मुझे सुन पा रहे हैं। श्याम अपनी कुर्सी पर से उठा है। उसके अंदर एक मौन भरा है। शीतल की असामयिक दखल और उसके किए अपमान से दग्ध भारी मन समेटे उसने मुझे आंखों में घूरा है। लगा है – आज इसी वक्त और इसी पल उसने हमारी दोस्ती की कसम तोड़ डाली है।
“इंसान सभी अच्छाइयों और बुराइयों से भरे हैं। मैं अच्छा हूँ या बुरा हूँ इसका निर्णय आप इस धरातल पर करें कि मैं आपके साथ किस तरह पेश आता हूँ। इसे जाति दुश्मनी या पर्सनल अफेयर को पब्लिक अफेयर बनाना बुनियादी तौर पर गलत है।”
“बिलकुल ठीक है। मजदूर संघ – जिंदा बाद!” उसी जय घोष की पुनरावृत्ति हुई है और मैं लाखों मौतें पार कर जी सा पड़ा हूँ।
“मिस्टर दलीप – जिंदा बाद!”
“मजदूर का भाई – जिंदा बाद!”
“हमारा चहेता दलीप – जिंदा बाद!”
“आप लोगों के सहयोग का शुक्रिया। अब पूरी मीटिंग के सुझाव जिन पर आप सहमत हुए हैं अगली मीटिंग में एक स्कीम और ठोस सत्य बन कर आपके सामने आएंगे! आज के लिए सभा का समापन करने की मैं अनुमति चाहूंगा, धन्यवाद!”
मुक्ति ने फिर एक बार मुझे उबार सा लिया है। लंबी सांस खींचे मैं कुर्सी से नहीं उठना चाहता। धीरे-धीरे हॉल के रितने की क्रिया में मैं अपने आप को जोड़ कर उत्तेजना को रिता रहा हूँ। कनपटियां सुर्ख लाल से अब नार्मल पर आती लगी हैं।
“वैल डन सर!” मुक्ति ने धीमे से मेरे कान में एक मुबारकबाद जैसा फूंका है।
“आज तो तुमने स्थिति संभाल ली वरना ..?” मैंने मुक्ति का आभार मानते हुए सच्चाई उगली है।
“त्यागी जी के पूर्ण सहयोग के बाद भी इतना प्रतिरोध है। अब आप हिसाब लगाएं कि ..?” मुक्ति ने स्थिति समझने की गरज से विश्लेषण करना चाहा है।
“शीतल के साथ ..?” मैंने शीतल के साथ हुई जादती की सफाई मांगी है।
“ऑल इज फेयर, सर! और कोई चारा ही नहीं था। पता नहीं आपसे शीतल .. आई मीन ..?” मुक्ति ने जैसे कोई रिसता घाव छू दिया है।
“हूँ!” कह कर मैं स्वयं से ही जूझने लगा हूँ। अपने अतीत को कोसने लगा हूँ और स्वयं लगाए कलंक की हजारों छापों से छपा मैं कोई हेय वस्तु लग रहा हूँ। “काश! किसी ने मुझे रोका होता, टोका होता और मार्ग निर्देशित किया होता तो ..” विगत की एक भावना मुझे बिलखता छोड़ गई है।
“जो भी हो सर, आज की आप की सफलता बेजोड़ है!” मुक्ति ने सारांश सामने रक्खा है।
“हां! है तो पर मुक्ति मुझे अब भी डर लग रहा है कि ..” अचानक श्याम का चुभता मौन, आंखों में भरी ठंडक और सीने पर चुपचाप होती चोट मुझे याद हो आई है।
श्याम का खून क्यों नहीं खौलता? श्याम ने कोई भी प्रतिक्रिया क्यों नहीं दिखाई? सारे अपमान और हिंसा को वो चुप्पी से क्यों चुका गया? क्या आज के जमाने में युद्ध की घोषणा का यही तरीका है? अगर है तो बहुत घातक है। अब श्याम क्या करेगा – मुझे तो भान तक नहीं है और करेगा भी या नहीं मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। अपने कमरे की दीवारों में चुने लाखों हथगोलों की परिकल्पना, कार के नीचे लगा कोई टाइम बॉम्ब, किसी झरोखे से टिन्न करती कोई गोली या चार छह इंच अंदर जाता कोई तेज छुरा – कुछ भी प्रतिकार स्वरूप हो सकता है। मौत मिलेगी – मौत। मैं जैसे अपने जुर्म की सजा खुद सुनाता रहा हूँ।
ऑफिस में बैठा-बैठा मैं फाइल के ढेर सारे पन्नों को कुरेदता रहा हूँ। सहसा निराशा के परावारों को आशा के कगारों में सीमित करता एक पत्र मात्र स्पर्श से ही मुझे कृतार्थ कर गया है। सोफी का पत्र है। मैं एकांत में पढ़ना चाहता हूँ। वही चोर भाव लौटा है – अमेरिका का प्रभाव। घर बिना किसी हीलोहुज्जत के मैंने घंटी बजा कर मान सिंह को संबोधित किया है – अंदर कोई नहीं आना चाहिए, समझे?
“जी साहब!” कह कर मान सिंह लौट गया है। एक एकांत जैसा कोई स्थान ऑफिस को मान मैंने कांपती उंगलियों से लिफाफा खोलने का प्रयत्न किया है। मैं डर रहा हूँ और लगा है लिफाफे पर छपा प्रश्न – टोनी कौन था अब भी बीच की अड़चन बना खड़ा है। सामने मेज पर पत्र को सपाट बिछा कर मैंने पढ़ना आरंभ किया है।
बहुत-बहुत अपने दलीप – प्यार!
जानते हो मैं क्यों लिख रही हूँ? इसलिए कि तुम पहले कभी नहीं लिखोगे!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड