“जेंटलमैन! मैंने फैसला कर लिया है कि पूरा स्टाफ डांगरी पहन कर चार पांच की शिफ्ट में काम करेगा। स्टाफ के साथ पचास पर सेंट मजदूर होंगे। ऑफिस का काम चार पांच घंटे से ज्यादा का नहीं होगा है।” मैंने अपना फैसला एक सजा जैसे रूप में प्रस्तुत किया है।

मैंने कोई स्टाफ की प्रतिक्रिया वरिष्ठ अधिकारियों और बुजुर्ग लोगों के कुलबुलाने से देखी है। उनके चेहरों पर छपे भाव जाहिर कर रहे हैं – इसने बीते साल में नहीं देखा। हमने अंग्रेजों को देखा था! हमने भी बहुत जमाने देखे हैं लेकिन ..? वही गुलामों जैसा मौन और चुप्पी में भाव पीते रहे हैं। पुरानी पीढ़ी का ये सबसे बड़ा खोट मुझे सताने लगता है। मन की बात सामने नहीं पीछे करते हैं। मुकाबला सामने पड़ कर नहीं बगल से करते हैं। एक नया युवक खड़ा हो गया है। धरती के वक्ष से फूटा नया अंकुर सा ये अधेड़ छोकरा ज्यादा उम्र का नहीं है।

“इससे मजदूरों के मन में स्टाफ की इज्जत घट जाएगी!” उसने मत पेश किया है।

“लेकिन मैं कहता हूँ कि इससे स्टाफ की इज्जत बढ़ जाएगी। बाई द वे मैं स्वयं डांगरी पहन कर काम करते नहीं लजाता और न किसी ने अभी तक मेरी बेइज्जती की है!”

“मशीनों के साथ शारीरिक परिश्रम करने के बाद थकान होगी और बौद्धिक काम नहीं हो पाएगा।” दूसरे युवक ने दूसरा मत बताया है।

अचानक मुझे गोपाल का लेवल रूम में कहा वाक्य याद हो आता है – दरअसल कोई काम तो है ही नहीं। ससुरी मशीन खुद ही घिसती रहती है।

“कभी तुमने अंदर जा कर देखा है?” मैंने उसे पूछा है।

“नहीं सर!” वह अपने ही पैंतरे पर मात खा कर खड़ा रहा है।

“बरखुरदार! पहले काम करके देखो तब प्रॉब्लम पेश करना!” मैंने संयम से उसे अवगत किया है।

चेहरे पर आरक्त और अरुण आभा पोते वह लजा कर बैठ गया है। सीनियर स्टाफ के गंजे लोगों के सरों पर पसीने की बूंदें उग आई हैं पर कोई उठ कर विरोध नहीं कर पा रहा है। पता नहीं क्यों मैं विरोध चाहता भी हूँ और नहीं भी। दरअसल बिना विरोध अवरोध के सच्चे रास्ते नहीं खोजे जा सकते। लेकिन विरोध मात्र विरोध के उद्देश्य से न लड़कर अगर सही तार्किक धरातल पर निर्णय को तोलने पर मजबूर कर दे तो तर्क शास्त्र का सही मजा चखा जा सकता है।

“मैं देहली से लौटने के बाद ये सब हुआ मांगता हूँ।” मैंने आखिरी निर्णय सुना दिया है।

स्टाफ चुपचाप उठ गया है। दो चार चालाक छोकरे ही नई-नई बातें करते जा रहे हैं। वो बूढ़ों की खिल्ली उड़ा रहे हैं और खुद नए बदलाव के लिए सहमत हुए लगे हैं। युवा पीढ़ी काम करना चाहती है पर ये दिग्भ्रांत लोग भटक जाते हैं। मुझे वही प्रशांत सागर तट पर स्थित स्वतंत्रता की देवी याद हो आती है। एक निर्देश देती, दिशा देती और अमर संदेश सुनाती वो मूर्ति पता नहीं क्यों मेरे मन में बस गई है। पूरे अमेरिका राष्ट्र की उन्नति का सार एक जीवंत सा प्रतीक बना कर खड़ा कर दिया गया है – तो क्या मैं दिशा दे रहा हूँ? तो क्या ये गलती नहीं है, खुंदक नहीं है ओर न मन की कोई स्ट्रांग शोश्यलाइजिंग?

देहली जाने से पहले आम रिवाज के तौर पर मैंने मुक्ति से पूछा है – और कुछ?

“सर ..!” मुक्ति रुक गया है।

“कहो-कहो!” मैंने उसे उकसाया है।

“स्टाफ में बहुत ही स्ट्रांग रिएक्शन हो रहा है। आई मीन .. लगता है आपने गलत जगह हाथ डाल दिया है।” मुक्ति ने बड़े ही शालीन ढंग में अपने सहमे-सहमे भाव व्यक्त किए हैं।

“क्या हो सकता है?” मैंने मुक्ति की दूरदर्शिता का जैसे परिचय पाना चाहा है।

“बहुत कुछ हो सकता है सर! इनफैक्ट स्टाफ इज दी नर्वस सिस्टम ऑफ द फैक्टरी! अगर यही पैरालाइज हो गया तो?”

“लेकिन काम करने से तो इसे सशक्त बनना चाहिए?”

“चाहिए सर! पर उस हालत में जब ये स्वयं काम करने की इच्छा रखते हों। यहां तो काम उनपर लादा गया है।”

“तुम ठीक कहते हो मुक्ति लेकिन कोई भी छड़ी मुड़ने से पहले टूटने की धमकी देती है। ये जंग खाया गुट है। मिथ्याभिमान और सुपीरियर होने का मुल्लम्मा इन पर चढ़ गया है। जब तक इस परवर्स सिस्टम को स्वस्थ न कर लिया जाए तब तक कोई भी काम सीधा होने से रहा!” मैंने अपनी दलील पेश की है।

“कारीगरों का वोट भी इन्हीं के पीछे है।” मुक्ति ने एक और ठोस सत्य मुझे बताया है।

“तभी तो मैं इन्हें कारीगरों के साथ देखना चाहता हूँ। मुझे वोट नहीं लेने, मुक्ति! मुझे इनसे काम लेना है – काम!” मैंने एक महज जिद्दी और अड़ियल इंसान की भूमिका निबाही है।

मुक्ति चुपचाप मेरे तर्कों के आघातों से आहत हुआ खड़ा रहा है और अपनी झेंप उतारता रहा है। मैं जानता हूँ – मुक्ति मेरी सच्चाई, मिल की भलाई और सच्ची बात का धनी है। और वो कोई उपद्रव नहीं चाहता। शांति की इच्छा किसे नहीं पर कब मिले इसका इत्मीनान नहीं। मेरे इस संघर्ष का कोई अंत नहीं है।

“खैर! बात कर लेंगे। अगर कोई बात हो तो मुझे फोन कर देना!” कह कर मैंने मुक्ति की पीठ थपथपाई है।

हम दोनों तनिक हंसे हैं। मेरा हलका मजाक मुक्ति को ज्यादा खुश नहीं कर पाया है। मैं कोई महान अगुआ जैसा अपनी भूमिका निभा कर चल पड़ा हूँ। मुक्ति ने मूक नजरों से मुझे हाथ उठा कर दुआएं जैसी दी हैं।

हर बार मेरे लिए देहली बदल सी जाती है। सिकुड़ भी जाती है और लगता है बहुत सारे रास्ते एक साथ खुल-खुल कर किसी भूली जानकारी में भटकते रहते हैं। एक शक्ति हर बार आ कर मुझ में सिमिट सी जाती है। एक आश्वासन हर बार देहली की गरिमा को दहला देता है। पुराने ठिकाने सब पुराने पड़ गए हैं और कभी जी भी नहीं होता कि वहां जाऊं। अब मैं आम तौर पर नेताओं, बड़े-बड़े व्यापारियों ओर समाज के खाते कमाते लोगों से मिलता हूँ। ये सब मुझे एक दीपक के गिर्द घिरी आभा का काम करने लगते हैं।

ओके इंटरकॉन्टीनेंटल में भट्ठे वाला, त्यागी और जकारिया मेरे इंतजार में सूखते मिले हैं। मुझे देखते ही जैसे जी गए हों – बनावटी उल्लास से उछल पड़े हैं।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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