“देट्स राइट!” मुक्ति राजी हो गया है।
बहुत सोच विचार के बाद मुक्ति का संताप हरने हेतु मैंने उसे आगे की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है। जिम्मेदारी की चादर स्वयं ओढ़ नया तरीका संभाल और अपनी योजना पेट में पचाए मैं मुक्ति को फिर से अमेरिका की सैर करा रहा हूँ।
“यू मस्ट विजिट अमेरिका!” मैंने शुरुवात की है। “इतना उन्नत देश, इतने अच्छे लोग, सभ्य समाज और ..! सच वापस आने को दिल ही नहीं कहता!”
“उनका – मेरा मतलब है दिल वालों का क्या हाल है?” मुक्ति ने बड़े ही आत्मीय ढंग से पूछा है।
दरअसल मैं चाहता भी हूँ कि कभी कभार सोफी के बारे में बोलूं। उसके गुणों का गुणगान करूं और ..!
“आने नहीं दे रहे थे!” मैंने मुक्ति को निहार कर कहा है।
“अरे सर, क्यों चले आए? काश! मैं होता तो ..”
“चार महीनों के बाद जूते खा कर आते!” मैंने कटाक्ष मारा है।
“उनसे भी कितनी राहत होती और ये जो सूखे जूते दिन रात बरस रहे हैं?”
“हूँ ..! तो अब थक गए हो ..?”
“नहीं सर!”
“तो फिर वही ..? चल बता कौन है?” मैंने मुक्ति का चोर पकड़ लिया है।
“दिखा दूंगा सर, दिखा दूंगा!” कह कर मुक्ति मुझसे लिपट गया है।
एक दम सच्चे स्वरूप में मुक्ति के दर्शन कर मैं भी अपने अंतर्निहित जीए पल याद कर बैठा हूँ। लड़की का मिलना, प्यार होना, शादी तक पहुंचना कोई नई बातें नहीं हैं पर जब भी जिसके साथ भी घटता है उसे एक दम ताजा लगता है – एक दम नया लगता है और लगता है कि वह पहला आदमी है जो इस अनुभव से गुजर रहा है।
“शादी कब कर रहे हो?” मैंने पूछा है।
“पहले कहीं उसे बिठाने के लिए जगह तो बना लूं!”
“पागल हो! एक दम पागल!”
“क्यों?”
“अबे ये चीजें तो दिल दिमाग में बिठाने की होती हैं!” मैंने मजाक किया है।
“उतना तो हो चुका है सर! पर ..”
“तू अर पर करता रहेगा और माल ..?”
“ये माल वो नहीं है सर देखना .. बाई गॉड एक दम सौम्य, सुशील और घरेलू ..”
“यानी – फास्ट .. डाइनामिक?” व्यंग किया है मैंने।
“मुझे फास्ट लड़कियां अच्छी नहीं लगतीं!”
“पर सर्विस में तो?”
“बीबी के बल पर चढ़ना मैं ..”
“वैल! इट्स यौर आउटलुक!” कह कर मैंने बात को ज्यादा तूल नहीं दिया है।
वास्तव में मैं आज भी कोई ठोस सत्य नहीं ढूंढ पाया हूँ कि पत्नी पाने के लिए आदमी कैसी छांट करे। ये तो अलग-अलग पसंद होती है।
हो सकता है उक्त कथित कोई यौवना मेरे जैसे के मन के जटिलता अपने सहज माधुर्य से झनझनाने में असफल ही रहे और एक सोफी जैसी स्वतंत्र चेता कुछ ऐसा मुझमें भर दे जो अमर आकर्षण बन मुझे हमेशा खींचता रहे। एकाएक सोफी मन पर छाने लगी है। मैं मुक्ति की और अपनी दो भिन्न चाहतों में अंतर ढूंढ रहा हूँ!
“सुबह का प्रोग्राम होगा – डांगरी पहन कर दोनों निकलेंगे। तुम शेड में जाना और मैं लेबल रूम में। तीन चार घंटे काम करने के बाद ऑफिस में लौटेंगे।”
“मुद्दा ..?”
“ज्यादा से ज्यादा वर्कर्स के साथ बातचीत, हास परिहास और एक ऐसा सामंजस्य स्थापित करना कि वो तुम पर नेताओं से ज्यादा विश्वास करने लगें!”
“फिर ..?”
“उनके मन की लेना और उन्हें उनकी मंजिल के दर्शन बात की बात में ही करा देना। समझे?”
“समझ गया सर! लेकिन फायदा?”
“मुझ पर छोड़ दो!” कह कर मैंने आंख मारी है।
जब अरुणाचल के छोर पीले होने लगे हैं, हवा में ताजगी घुल गई है और भोर होने की सूचना जग को मिल चुकी है तो मैं बाहर घूमने निकल गया हूँ। पूरी रात उधेड़ बुन में बीती है और अच्छी तरह से नींद नहीं ले सका हूँ। मान सिंह मुझे सशंक आंखों से घूरता रहा है। मैं उसकी बीसियों गलतियां पकड़ कर भी उससे नाराज नहीं हुआ हूँ। सवेरे के सूरज की तरह अब मैं भी सजग और चौकन्ना हूँ। उदय और अस्त में ज्यादा अंतर भी कहां होता है पर असामयिक कष्ट झेलना न मुझे गवारा होगा और न सवेरे के सूरज को।
“काम करने में स्वर्गीय आनंद आता है। अमेरिका की संपन्नता का राज सिवा इसके कुछ नहीं कि वहां हर आदमी काम करता है – काम के घंटे गप्प सड़ाकों के घंटों से ज्यादा हैं। अगर वैसा यहां भी हो जाए तो ..”
मैं और मुक्ति डांगरी पहने मिल के कर्मचारियों के मध्य से गुजर रहे हैं। मेरे चेहरे पर शांत और नियंत्रित भाव हैं। सहज मुसकान से मैं सबके अभिवादन स्वीकार करता कोई कल्याणकारी प्रसाद जैसा बांटता जा रहा हूँ। सहज हास परिहास इस बात का गवाह बनाया हुआ है कि जो विगत में घटा है वह कुछ भी नहीं है और प्रतिद्वंद्वी गुट की मुझे तनिक भी परवाह नहीं है। मुक्ति भी एक तरह से साथ देता रहा है।
हजारों सशंक आंखें शीशों से, खिड़कियों से, झरोखों से और मशीनों के आजू बाजू हो कर देख रही हैं। कुछ खुश हैं, कुछ सहम गए हैं तो कुछ तटस्थ भावों से भरे हैं। मैं हर किसी के चेहरे पर छपी प्रतिक्रिया पढ़ता रहा हूँ। लगा है – श्याम और शीतल किसी हद तक सफल हुए हैं। अब मुझे बहुत सावधानी से कदम उठाने होंगे – ये कोई अंतर से उगा निर्देश है जो मेरे मानस पटल पर चोट कर गया है। अंदर ही अंदर मैं एक दहशत को पीता रहा हूँ और ऊपर से सहज लगने वाले पलों के कुठाराघात झेलता रहा हूँ। मैं असफल न होने की बार-बार कसम खाता रहा हूँ।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड