“आई एम सॉरी जेंटलमैन! आई हैव टू लीव!” कह कर मैं बिना किसी पाई अनुमति की परवाह किए सीढ़ियां अतर रहा हूँ। आते ही कार स्टार्ट की है। सीधा फैक्टरी पहुंचने का इरादा है।
“चल कर क्या करोगे?” मैंने अपने आप से सवाल पूछा है।
“कुछ तो करूंगा ही!” शीशे पर चढ़ी धुंध की तह को जैसे मैं उठाने से कतरा गया हूँ और एक अनिश्चित बात ही मान कर आगे बढ़ता चला हूँ। लेकिन मेरा साहस और मेरी चेतना जागती लगी है।
“नवीन से मिला!” अचेतन मन ने सुझाया है।
मैंने जाने माने मोड़ काटे हैं। हरी लाल चौराहे पर रोशनी रोकती बत्तियों के आघात झेले हैं। धीरे-धीरे मैं आते ट्रैफिक पर खीजा हूँ और दो-चार पैदल सड़क पार करते मुसाफिरों को गरिया दिया है क्योंकि कार ऊपर चढ़ते-चढ़ते चूक गई है। और मैं सडन ब्रेक मार कर ही रोक पाया हूँ।
“मां ..!” मैंने घर की चौखट पार कर जोर से आवाज दी है।
इस मां शब्द को मैं पुकारने के लिए हर पल कितना तरसा हूँ! हर बार यही कमजोर और यही कमी मुझे कितनी खली है और हर बार नवीन की मां को अपनी मां मानने के पक्ष में मैं कितना जूझा हूँ ये आज मेरी आवाज साबित कर गई है। मां की आवाज को मैंने मनों जोर लगा कर धकेला है और अब इंतजार में हूँ कि कोई बेटा कह कर मुझे अंदर बुला ले!
“आओ-आओ दलीप! नवीन कब से तुम्हारे इंतजार में है!” नवीन की मां ने मेरा स्वागत किया है।
नवीन के घर का माहौल मैं अच्छी तरह जानता हूँ। पिताजी कब लौटेंगे, कहां होंगे, क्या कर रहे होंगे – कुछ पता नहीं होगा! सिर्फ टेलीफोन का नम्बर पैड पर लिखा होगा। ये नम्बर भी कई बार बदल गया होगा। पुराना कह कर नया लिख दिया गया होगा और नवीन की मां ठंडा खाना फ्रिज में भरे सुबह के चार बजने तक इंतजार करेंगी। नवीन भी बाहर खाने भाग जाएगा। अकेली मां रह जाएंगी! इत्ते बड़े घर में अकेली ये औरत कैसे जी लेती है – मैं आज भी अंदाज नहीं लगा सकता।
मैंने मां की आंखों में कुछ खोजा है। आज फिर उसने मुझे बेटा नहीं कहा। आज मुझे वो फिर नवीन की मां ही लगी है। किसी दुत्कारे याचक सा मैं नवीन के कमरे में चला गया हूँ।
“वैलकम प्रिंस!” नवीन ने एक औपचारिक ढंग से मेरा स्वागत किया है।
“और सुनाओ कैसा चल रहा है?” मैंने भी हल्के पन से पूछा है।
“काट-छांट, धोखाधड़ी, मार-पछाड़ और दाव-घाव – सभी इस्तेमाल हो रहा है।” नवीन ने सहज ढंग से अपना पूरा कौशल बखान किया है।
“पालिटिक्स में विश्वासघात भी चलता है क्या?” मैंने पूछा है।
“चलता है। अंजान बनने की कोशिश मत कर दलीप!” नवीन ने मुझे तनिक झिड़का है।
मैं जानता हूँ कि नवीन मेरे त्यागी के साथ मिलने जुलने पर खुश नहीं है। क्योंकि त्यागी मेरी आड़ से नवीन को ढा देने की ताक में है और नवीन ये नहीं चाहता!
प्रेस का आदमी आ धमका है। नवीन ने मेरे साथ फोटो खिंचवाई है। प्रेस के आदमी ने मुझसे कुछ सवाल पूछे हैं।
“आपका समाजवाद में कितना विश्वास है?”
“पूर्ण विश्वास है।”
“आप इसे और कैसे सफल बना सकते हैं?”
“मेहनत से। सब मिल कर मेहनत करें। हर आदमी औरत और बच्चा कमाएं – तभी देश ऊपर उठेगा!”
“सुना है आप मजदूरों के चहेते हैं?”
“शायद आप ने ठीक सुना हो!”
“स्टाफ के बारे में आप के विचार क्या हैं?”
“मैं चाहता हूँ कि सफेदपोश सोसाइटी पसीने की गंध-मंद में लिपटे मजदूरों को गले लगा ले और उनके दुख दर्द बांट ले!”
“क्यों?”
“मजदूर समाज का एक बड़ा अंग है। अगर ये अंग अपंग बन गया तो विकास सर्वांग सुख कहां रहा?”
“आप सर्वांगीण सफलता में विश्वास रखते हैं?”
“जी हां!”
“धन्यवाद मिस्टर दलीप!” कह कर वो आदमी चला गया है।
“वाह-वाह! भाई मान गए बेटा! लगता है रिहर्सल करके आए हो।” नवीन ने मेरा मजाक उड़ाया है।
“नवीन ..!” मैंने बहुत ही गंभीरता से नवीन को संबोधित किया है।
“बोल!”
“मैं जो कहता हूँ उसमें मन और सच्ची आत्मा से विश्वास भी करता हूँ!”
“इसे आईडियोलोजिस्ट कहते हैं – जो आज संभव नहीं!”
“न हो! पर मैं ..”
“बेटा तुम्हारी ये आईडियोलॉजी ही तुम्हें ले डूबेगी!”
“अंत तो सबका होता है, नवीन! मैं भी जानता हूँ कि मुझे मिटना है। फिर .. क्यों ..”
“मिटना ही है तो जिओ – एक सदाचार में बंधी लाचार जिंदगी! नहीं, बंधनों में बंधी घुटी कैद! नहीं – एक स्वच्छंद परिंदों जैसी जिंदगी जिओ, जहां न कोई धर्म, न कर्म, न मान ओर न मर्यादा! और तुम तो जी भी चुके हो ..?”
“अब जी नहीं करता!” मैंने सच्चाई उगली है।
“तो क्या परलोक सुधारने चले हो? सुधारो बंधु! अपन तो इहलोक जीएंगे – बस जीएंगे – चियर्स!” कह कर नवीन ने लबालब भरे गिलास को आधा कर दिया है।
मुझे लगा है – नवीन भी अपने आप से लड़ रहा है। किसी सच्चाई को परास्त करने में लगा है। कुछ ठोस सिद्धांतों से बच निकलना चाहता है। वह अंदर से कमजोर है पर अपने कच्चे घाव ढांपे दुख छिपाने का प्रयत्न कर रहा है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड