रात दिन की दौड़ भाग करने के बाद मैं दिए गए काम कर पाया हूँ। अधिकारी वर्ग की मदद, पुलिस वालों की उत्सुकता और ग्रामीणों का सहयोग तथा उत्साह सराहनीय कहा जा सकता है। पत्रकारों की कतारें मुझे प्रश्नों के प्रेतों से बार बार हतोत्साहित कर गई हैं। हर कोई पूछता है कि ..
“आप ये सब समाज के अहित में तो नहीं कर रहे?”
“इसका प्रभाव नई पीढ़ी पर क्या होगा?”
“क्या ये जे पी का कोई नया प्रपंच है?”
“यों अर्ध नग्न और सुलफा गांजा सटक कर कोई जाति या देश हित हो सकता है?”
“क्या आपको किसी हंगामे की संभावना नहीं?”
मैं धैर्य पूर्वक गोलमाल जवाब देता रहा हूँ। क्योंकि पत्रकारों से पुराना परिचय सहायक रहा है और मैं जानता हूँ कि एक बात को पत्रकार कितने छोटे बड़े रूप या अपरूप दे सकता है!
आज तारीख सात दिन रविवार और महीना जून का है। यही स्नेह यात्रा का प्रथम दिवस है। लोग आने लगे हैं। कोई बस से, कोई ट्रेन से, तांगा रिक्शा तथा ढेर सारे पैदल। लगा है एक जमघट दसों दिशाओं से उमड़ पड़ा है। अनाम धरती के छोरों से अनगिनत धरम, जाति और रीति रिवाज अपना अपना पक्ष संभाले चले आ रहे हैं और अब ये अपनी अच्छाइयों तथा बुराइयां बता देंगे, उनका प्रदर्शन करेंगे कि उन्हें कहां तक मान्यता दी जा सकती है!
आने वाले कहीं भी और किसी भी धरती के टुकड़े पर अपना सामान फेंक देते हैं और वही उनका ठिकाना बन जाता है। पानी और स्नान के लिए बहती नदी है तथा सोने बैठने के लिए खुला आसमान तना है। आगंतुक इस राज को जानते हैं तभी तो कोई भी नाक मुंह चढ़ा कर बुदबुदाया नहीं है! किसी ने भी ब्लाडी स्टूपिड, वॉट दी हैल या नॉनसेंस जैसी असभ्य गाली नहीं दी है। ये सब तो सभ्य समाज के नुकते हैं और किसी भी घटिया या बढ़िया ठिकाने को बड़प्पन की मोहर लगा जाते हैं।
नाम के लिए दो चार बिजली के बल्ब हैं जो अंधेरे को सघन नहीं होने दे रहे हैं। कुछ बैठक हैं जो सामूहिक चर्चाओं के लिए ठिकाने हैं। यहां अज्ञात संख्या में लोग बैठ सकते हैं। इस अपार भीड़ के लिए हर साधन कितना अपर्याप्त लगता है – मैं पहली बार अनुभव कर रहा हूँ। वरना तो टनों नोट खर्च करने पर भी यहां आधुनिक सुख सुविधाएं जुटाना संभव न होगा।
बेतहाशा हंसी, हुल्लड़ मन, मस्ती और बेरोक टोक आजादी कुछ इस तरह वातावरण में घुली है कि हृदय पर पड़ा मनों दवाब कम हो गया है। लगा है वायु मंडल भी हल्का हो गया है और अब हर इंसान की उम्र दराज हो जाएगी। कोई चार छह के गुटों में बैठे ताश खेल रहे हैं, कोई गेंद खेल रहे हैं, कुछ कसरत कर रहे हैं तो कुछ योग-संन्यास! नदी के तट पर भांति भांति के क्रीड़ा-कलाप कर रहे हैं लोग। दूर सिमटी ग्रामीणों की भीड़ उत्सुकता पूर्वक इन्हें एक टकटकी बांध कर देख रही है।
मेरे खेमे से कोई तीन सौ गज पर ही स्नेह यात्रा का लिखा पट्टा बांधे दरवाजा जैसा बना खड़ा है – बेखबर और निर्लिप्त! आने वाले किसी भी दिशा या दरवाजे से बे रोक टोक आ सकते हैं, बाहर जा सकते हैं और अंदर अपनी संपत्ति और सामान को रख सकते हैं। प्रतिबंध, बंधन या अनुशासन के नाम पर पुलिस की डंडा फौज या किसी के लिबास पहनावे को शर्तों से बिलकुल अलग थलग सा ये कैंप किसी कोरी परिकल्पना का एक अंश लग रहा है।
मैं शाम का ढलाव देख रहा हूँ। पश्चिम की ओर चपटी पहाड़ियों की आड़ में सूरज अभी भी पीठ दिखा रहा है और एक ललोंही आभा पानी को सुनहरे रंग में रंग गई है। सुरसुराता पवन आमों से लदी डालियों को झकझोर रहा है तथा अधोमुख लटके चमगादड़ों ने पंख फड़फड़ाना आरंभ कर दिया है। लगता है कोई चूक हो गई हो और घिरता अंधेरा एक मूक संदेश भेज रहा हो। मैं इस वसंती शाम में रंगा सा खड़ा हूँ। लाल लाल, पीलिया-गेरुआ और अब भड़कीला हुआ आसमान का रंग कोई कालिख खा जाएगी – मैं जानता हूँ। दिन का साम्राज्य बदल जाएगा। तख्ता पलट जाएगा। तो क्या ये उलट पलट हमेशा चलती रहती है? मैं भी कितना बदल गया हूँ, उलट गया हूँ और पलट गया हूँ और ..
मुख्य द्वार जो एक कुहासे में परछाईं सी लग रहा है अचानक सजग हो उठा है। इस पर तरस खा कर जैसे कुछ सैलानी इसके अंदर से पार जा रहे हैं तो कुछ लौट जाना चाहते हैं!
“वंडरफुल साइट!” एक पुरुष की आवाज है।
“स्नेह यात्रा ..? मीन्स ..” दूसरी युवती ने पढ़ कर मतलब जानना चाहा है।
“स्नेह और प्रेम के ध्येय से की गई जर्नी!” दूसरी ने जवाब दिया है।
ये दूसरी आवाज सुन कर मैं सुगबुगा गया हूँ। मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि ये आवाज वही है। मैं भड़का हुआ हूँ। हजारों शंकाएं सी मुझे नोच रही हैं। दरवाजे तक लंबी लंबी डगों से और समय बचाने की उलझन में मैं बहुत तेज चला हूँ। घनी भूत होता अंधेरा मुझे बैरी लग रहा है क्यों कि मैं दूर जाते उस आदमी को पहचान नहीं पा रहा हूँ।
मैं दरवाजे पर ठिठका हूँ। तभी एक गैरिक अल्फी में लिपटी परछाईं अपना रकसैक उठा कर आगे लपकी है। मैंने झपट कर रोकने का प्रयत्न किया है पर रोक नहीं पाया हूँ। वह आगे बढ़ गई है।
मैंने दरवाजा पार किया है। लगा है स्नेह यात्रा शुरू हो गई है। बार बार किसी अज्ञात मंत्र का जाप किया है मैंने ताकि मेरा मनोरथ पूरा हो सके। दबे पांव चल कर मैंने आगे चलती परछांई को जा घेरा है। कुछ आगे निकल कर पीछे मुड़ा हूँ तो उसे देखा है।
“ओ गॉड!” एक गहरी निश्वास छोड़ कर मैं रुक गया हूँ।
परछाईं भी मेरे ठीक सामने आ कर रुक गई है। पल भर हम एक दूसरे को देखते रहे हैं। दोनों ही एक दूसरे के भाव नहीं पढ़ पा रहे हैं। मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं कर पा रहा हूँ। इस परछाईं को बाँहों में भर कर मन के विस्तारों में छुपा लेना चाहता हूँ। मैं अब विछोह का मुंह नहीं देखना चाहता।
“हैलो!” उसी ने कहा है।
अब मुझे सोलहों आने यकीन हुआ है कि ये सोफी ही है।
“हाय!” मैंने पूरी आत्मीयता के साथ कहा है!
मेजर कृपाल वर्मा