भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी !

उपन्यास अंश :- 

और वो लोग ….? वो लोग जिन्होंने जानें कुर्बान की …देश के लिए आजीवन लडे  …किसी ने भी कानी कौड़ी नहीं कमाई …जीवन न्योछावर किये …. नि:स्वार्थ लडे  …और ….? और इस देश को आज़ादी दी  …..अनमोल आज़ादी …!!

बिदका हुआ मेरा मन …मेरी पकड़ से भाग कर फिर कलकत्ता चला आता है ! न जाने मैं कलकत्ता का कब और कैसे हुआ ….मैं नहीं जानता ? पर चलते हैं उन पुरानी डगरों पर …और करते हैं सैर …जहाँ कभी मैं एक तलाश में डोला था !

“कौन …हो ….?” मैं अचानक ही एक कांपते स्वर को सुनता हूँ . “हो …तो …बालक ..! पर ….?” एक बूढा ….बहुत बूढा व्यक्ति मुझे पूछ रहा था . उस का सर गंजा था . उस ने पुरानी छाप की अंगरखी पहनी थी . धोती घुटनों तक सिमिट कर नंगी टांगों के कम्पन को छुपा नहीं पा रही थी . वह खडा था …पर मुझे लगा था कि वह गिरने-गिरने को था ! शायद बहुत ….बहुत बूढा था ….?

उस का पूछा प्रश्न अब भी मेरे सामने खड़ा था . ‘मैं कौन था …? मैं था – कौन ….?’ ये मैं बार-बार सुन रहा था . हाँ ! मैं कौन था – पहली बार मुझे ये प्रश्न बहुत ही गूढ़ …और गहरा लगा था ! उस आदमी ने मुझ में कुछ जगा-सा दिया था ! कुछ याद-सी मुझे होने लगी थी . एक भ्रम हुआ था …कि ..मैं जो था …वह था नहीं …? मैं कोई और ही था . लेकिन ….

“लो ! पानी पी लो ….!” उस बूढ़े व्यक्ति ने लोटे में ला कर शीतल जल मुझे प्रदान किया था . लगा था – उस ने मुझे आज मरने-मरने से बचा लिया था ! “थके -मांदे लगते हो ….?” उस व्यक्ति ने मुझे अपांग देखते हुए कहा था . “रूँठ कर भागे हो  , घर से ….?” वह तनिक हंसे  थे . “हाँ ! बेटा ! ये उम्र ही हरामखोर होती है ! मैं भी तो तुम्हारी तरह की इस उम्र में …घर से भागा था . और फिर मैं लौट ही न पाया !” उन की आँखें सजल थीं . “सब छूट गया था . जाता भी तो कहाँ जाता ….?” वह सुबकियां लेने लगे थे .

“रोते …क्यों हैं , ….आप …?” मैं भी कठिनाई से बोल पाया था . मैंने उन बुजुर्ग को सहारा देना चाहा था . “बैठ जाईये !” मैंने उन्हें बरांडे में पड़ी एक झिलंगी चारपाई पर बिठा दिया था . अब वो भी शांत होने की चेष्टा कर रहे थे . 

और मैं अब बड़े ही ध्यान पूर्वक उस बरांडे की दीवार पर टंगे एक बेहद पुराने बोर्ड को पढ़ रहा था . लिखा था .”ऑफिस – अनुशीलन समिति , स्थापित – २४ मार्च १९०२ ~ संस्थापक – सतीश चन्द्र बासु ! पता था – ४८ , विधान सारणी , कलकत्ता !

मैं एक बारगी रोमांचित हो उठा था ! लगा था – मैंने अपनी मंजिल पा ली थी ! लगा था – जिस तीर्थ को खोजने मैं निकला था ….वह मुझे मिल गया था . और मुझे लगा था कि वहां वो सब मौजूद थे जिन की तलाश में मैं डोल रहा था ! उन सब की रूहें वहीँ रह रही थीं …उसी खंडहर में निवास करती थीं …..और वहां आने वाले अपने साथी …सहोदरों को …पहचान लेती थीं !

तो क्या मैं भी ….उन्हीं में से कोई …एक था ….?

“ये ….मेरा मतलब कि यही …अनुशीलन समिति का ऑफिस था …?” मैंने अब होश में आये उन बुजुर्ग् बार से पूछा था . 

“हाँ,हाँ ! यही तो है अनुशीलन समिति का ऑफिस ….!” वह चहक कर बोले थे . “पर ….क्यों …? तुम्हें क्या काम है ….?” वह तनिक तडके थे . “अब यहाँ कौन आता है ….? अब इसे कौन पूछता है ….? अब इस की क्या ज़रुरत रह गई है ….जो ….?” 

“आप कौन हैं ….?” मैंने हिम्मत जुटा कर उन बुजुर्ग बार से पूछ ही लिया था . 

अब वह भी मेरी ही तरह मेरे किये प्रश्न पर चौंके थे . शायद वो भी अब तक अपना नाम-गाँव सब भूल चुके थे ? शायद वो भी वक्त की मार के साथ-साथ सब कुछ खो चुके थे …? वह मुझे ही फटी -फटी आँखों से देखते रहे थे !

“हमें ‘पाल पुरोहित ‘ के नाम से सब जानते हैं !” उन्होंने बताया था . सब जानते हैं ….कि हम …अरविंदो घोस के …पायक थे ! पर तुम क्यों पूछ रहे हो ….?” वो भड़के थे . 

“इस लिए ….ताकि मैं …आप को प्रणाम कर लूं ….!” और मैंने पुरोहित जी के पैर छू लिए थे . न जाने क्यों उन के प्रति मेरे मन में …असीम श्रद्धा का श्रोत फूट पड़ा था ….? 

“जीते रहो , मेरे लाल ….!!” पुरोहित जी अब मुझे आशीर्वाद दे-दे कर निहाल कर रहे थे . “जीते रहो , बेटे ! होनहार हो ….किसी पवित्र  कोख से जन्मे ….सपूत हो ….! हो ….तो …कोई …” वह रुक गए थे . 

“भटका हुआ ….एक बालक हूँ ….!” मैंने स्वीकारा था . “आप की ही तरह घर से भागा हूँ ! कहाँ जाऊं ….क्या करूं …मैं नहीं जानता !” मैंने सच-सच कहा था .

“मेरे साथ …रहो …, कुछ दिन …!” एक अनूठे हर्षातिरेक में डूबे पुरोहित जी मुझ से कह रहे थे . “मेरा भी मन बहल जाएगा …!!” अब उन्होंने मुझे दुलार किया था . ” क्या नाम है , तुम्हारा ….?” ये उन का सहज प्रश्न था !   

“नरेन्द्र !” मैंने भी सहज उत्तर दिया था . “नरेन्द्र ……मोदी ! गुजरात से आया हूँ .” मैंने अपना पूर्ण परिचय दिया था .

“बहुत खूब !” वो फिर से प्रफुल्लित हुए थे . “मैं उत्तर प्रदेश का हूँ !” उन्होंने बताया था . “कुर्बानी के उन दिनों में भाग कर आया था …..जब …लोग जानें देने के लिए उतावले ….और मतवाले हो उठे थे !” अब उन्होंने मेरी आँखों में झाँका था . “बहुत सारे आज़ादी के दीवाने तब …कलकत्ता भाग-भाग कर आये थे ! ज़माना ही वो ….था …!!” वो सहसा रुक गए थे . “मेरे साथ रहोगे न , नरेन्द्र ….?” उन्होंने मुड कर मुझे पूछा था .

“एक शर्त पर ….!” मैं शरारती स्वर में बोला था . 

“कौनसी शर्त , भाई ….?

“अगर आप मुझे …वो कहानियां सुनाएंगे …..वो कहानियां …जो ….?”

“अरे, रे ….! विचित्र हो , बेटे ….! आज-कल कौन सुनता है ….उन कहानियों को , नरेन्द्र ….? सब भूल गए ! किस ने कुर्बानी दी   ….कौन उजड़ा …और किस का क्या हुआ ….? क्या सरोकार रह गया है , लोगों को ….? किसी को बताओ भी तो …लोग मुंह बिचका कर चले जाते हैं ! अब तो फिल्मों की कहानियां चल पडी हैं !” वह रुके थे . “फिलम तो देखते होगे ….?” वह हंस पड़े थे . “अजीब शौक हैं ….आज के नौजानों के ….?” वह कहीं से टीस आये थे . “सड़कों पर ….लौंडियों की तरह  ….ला ला – गाते फिरते हैं ….! बे-शर्म …….!!”

लगा – पुरोहित जी ने पूरे के पूरे युवा वर्ग को लताड़ा था ! जो चलन चल पड़ा था ….वह उन के विचार से गलत था ! जिस समाज को उभर कर ऊपर आने की उन्हें उम्मीद थी …वह उन्हें कहीं भी दृष्टि गोचर न हो रहा था ! निरी निराशा ही थी – उन की आँखों में !!

“नहीं ! मैं सिनेमा नहीं देखता ….!” मैंने बताया था , उन्हें . 

“मैंने भी कभी सिनेमा नहीं देखा !” पुरोहित जी कह रहे थे . “ये सब ….झूठी ….और मन गढ़ंत कहानियां होती हैं , नरेन्द्र !” वो मुझे समझा रहे थे . “लेकिन जो कहानियां मैं तुम्हें सुनाऊंगा ….बताऊंगा ….वो कहानियां तो ज़मीन पर घटी हैं ….उन कहानियों की कथा तो ….शहीदों के खून से लिखी गई हैं ….वो कहानियां तो रहस्य और रोमांच की ….अकथनीय मिसालें हैं !” वो तनिक भावुक हो आये थे . “पर ….वक्त की करवट …कि आज इन अनमोल कहानियों का कोई खरीद दार नहीं है ….?” एक अनाम -सा दुःख था उन की आवाज़ में . “अकेला बैठा रहता हूँ मैं , नरेन्द्र ! लोग मुझे देखते हैं …हँसते हैं ….और चले जाते हैं …!!”

‘चिंता का विषय है !’ मैंने अपने मन में कहा था . हमीं अगर ….अपने इतिहास को सम्मानित …न करेंगे ….तो …?

“कित्ता पागल हूँ , मैं ….?” पुरोहित जी उठे थे . “जल तो पिला दिया ….पर खिलाया तो कुछ नहीं ….?” वह गड़बड़ा रहे थे . “भूखा होगा , मेरा बेटा ….?” वह स्वयं से पूछ रहे थे . “न जाने कौन से मेरे पुण्य उदय हुए हैं ….जो ये चला आया है ….?”

मुझे भी भूख लगी थी ….यह मैंने भी अब आ कर महसूस किया था !

विचित्र ही संयोग था ! एक निराश …और बूढा था …और दूसरा था …बालक …? पर दोनों के मन एक थे ….और शायद …आत्माएं परिचित थीं …और हाँ , हमारे अधूरे कुछ संस्कार भी थे …जिन्हें अब पूरा होना था ….!! 

इतना स्वादिष्ट खाना मैंने अब तक की अपनी उम्र में न खाया था ! जिस प्यार से और दुलार से उन्होंने मुझे खाना परोसा था ….मुझे याद नहीं कि …अभी तक मैंने वैसा कभी महसूसा था ! 

“गुजर कैसे होती है ….?” मैंने पूछा था . 

“पेंशन मिलती है !” उन्होंने बताया था . “स्वतंत्रता सैनानियों को बंगाल सरकार पेंशन देती है ! चूंकि मैं अरोविंद घोष का चहेता था …..और लोग मुझे पाल पुरोहित के नाम से जानते थे ….अतः मुझे यह सहारा मिल गया !”

“और …..?” 

“और मुझे चाहिए भी क्या , नरेन्द्र ….?” वो बिफर कर हँसे थे . “चलते ….चलते तुम मिल गए हो …..!” उन्होंने आनंद लेते हुए कहा था . “अब सारी की सारी  अपनी कहानियां तुम्हें सुना कर …चला जाऊंगा ….!” वह कहते रहे थे . “सच,बेटे ! अब जीने को मन नहीं करता ….! वो दिन ही लौट -लौट कर आते हैं ….सताते हैं ….! सच्चा युग था वो , नरेन्द्र ! सपूत पैदा होते थे तब ….भारत में ! पर आज तो ……?”

उन्हें झूठा कहने के लिए मेरे पास कोई दलील भी न थी !

“थके हो ! सो लो ….!!” उन का सुझाव था . “रहोगे तो ….सब बातें होंगीं …..!” उन का मानना था . 

और मैं अचेत सो गया था ! इतनी गहरी नीद मुझे पहली ही बार आई थी ! लगा था – मैं आज अपनी ही भूली-बिसरी आत्मा से आ मिला था …!!

………………..

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !! 

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