भोर का तारा

युग पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

नेहरू का युग था. समाजवाद का सपना आकर देश के जन-मानस की आँखों में ठहर गया था. विनोवा जी का भू-दान यज्ञ आरम्भ हो चुका था.समाज में एक सौहार्द पनप रहा था. सभी नई-नवेली आज़ादी के गुन-गान में लगे थे. एक नई -नई उमंग थी जो देश में लबालव भरी थी. संपन्न होने के सपने हर देशबासी देखने लगा था.

जो भी चुना गया था – सर्व-सम्मती से चुना गया था. विकास का रास्ता अपनाने का उद्देश्य ही गरीबी और अशिक्षा से लड़ना था. देश के पास था तो कुछ नहीं। एक लुटा -पिटा भारत ही मिला था. समस्याओं के सिवा और था भी क्या – हमारे पास ? ‘भूखा मरेगा -भारत’ अखबार में लिखा था. ख़ास खबर थी. स्वयंसेवक इस खबर को पढ़ – खबरदार हो गए थे. अगर भारत भूख मरने लगा – तव हमारी भूमिका क्या होगी – हम सोचे जा रहे थे.

“झूंठ लिखा है  ….!” प्रतिवाद सामने था. एक प्रतिक्रिया थी.

“सच है।  कारण हैं. पूरी खेती वर्षात पर निर्भर है. जन-संख्या है  …कि  …बढ़ती ही चली जा रही है. टिड्डी-दल की तरह असंख्य होते हम सब खा जाएंगे   …चाट जाएंगे  ….उजाड़ देंगे  ….देश को  ….!! देख लेना , नरेंद्र !”

“देख लूँगा  ….!” न जाने क्यों मैं बड़े ही आत्मविश्वास के साथ बोला था. “कोई भूखा  नहीं मरेगा  …!” मैंने आश्वासन दिया था. “अब ये देश मरेगा नहीं   …बढ़ेगा  …!!” मैंने एक फतवा दे दिया था. “मैं कहता हूँ   ……!”

“तू है कौन, ब्बे  …….?” प्रतिरोध में प्रश्न पैदा हुआ था.

मैं चुप था. मैं बताना न चाहता था कि मैं कौन था ! सच कहूँ तो तब मुझे पता भी कुछ नहीं था. था तो कुछ – पर मात्रा एक बिंदु जैसा ही था….परिभाषित नहीं था……प्रभावित नहीं था….फिर क्या बताता ?

लेकिन , हाँ ! मैंने खेती की समस्या को एक लम्हे में भांप लिया था. लिखे लेखों में जो तथ्य थे – सही थे  …सटीक थे  …एक चेतावनी थे – हमारे लिए ! बढ़ती जन-संख्या के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना  ….उन हालातों में असम्भव ही था !

हमारी आमदनी  ….और हमारे खर्चे  ….किसी भी अनुपात में नहीं आते थे. देश कर्जा ले रहा था. नेहरू जी रोज जा कर कुछ ला रहे थे. जहाँ-तहाँ छोटे-मोटे उद्योग लगने लगे थे. लोगों में पैसा कमाने की ललक दिखाई देने लगी थी.

अब हम अखबार पढने लगे थे  …!!

“नेता तो बन गए   …पर कुछ कमाओगे भी  ….?” बाबू जी प्रश्न कर रहे थे. “देखो, बेटे  …! जिंदगी बातों से पूरी नहीं होती। तुम बड़े हो रहे हो। और  …..!”

“जाम नगर वाले ‘सैनिक स्कूल’ में   ….दाखिला करा दो न , बाबू जी  …?” मैंने बड़े ही विनम्र भाव से आग्रह किया था.

आग पर पानी पड़ गया था. बाबू जी बुझ गए थे……!!

एक बारगी मुझे भी अच्छा नहीं लगा था. मैंने उन्हें दु :ख पहुंचाया था. मैंने एक अमंगल की तरह अपनी मांग उन के सामने रख दी थी. वह किसी गहरे सोच में डूब गए थे.

“मैं  ..मैं  …सैनिक बनना चाहता हूँ , बाबू जी !” मैंने कठिनाई से कहा था. “मैं   …..लड़ना चाहता हूँ   …!”

“लड़ाई तो पैसे की ही है, नरेन्द्र  !”बाबू जी बोले थे. “तुम अब   …जानते हो कि  ….पैसे  ….” वो चुप थे.

फुर्र-से मेरे सैनिक बनने का सपना उड़ गया था.

कहीं दूर  ….बहुत दूर  …खड़ी मेरी निराशा मुझ पर हंस रही थी. मेरे लड़ने के अरमान ठंडी आग बन कर मुझ में अनाम-से सहम भर गए थे. कुछ था – जो मुझे भीतर से तोड़ने लगा था.

“कहाँ से लाऊं  ….पैसे   ….?” मैं अपने आप से ही पूछने लगा था. “कैसे आएं पैसे  …ताकि मैं  ….?” उत्तर कोई नहीं था. बस,एक चुप्पी थी.

कौनसे सहारे टटोलता , मैं  …तब   …? बच्चा ही तो था ! अबोध था. अकेला था. दिशाहीन था. पर था  …जिन्दा ! …कहो कि – साँस लेता एक सपना ! मेरी आँखें बुझी नहीं थीं  ….जल उठी थीं। ..! मेरी चाह मरी नहीं थी – धधक उठी थी  ! मैं हारना तो जानता ही नहीं था  …!!

“हम सैनिक नहीं हैं , क्या ?” मेरे साथियों ने प्रश्न किए थे. “हमारे जैसा तो कोई हो ही नहीं सकता  …! सैनिक पगार के बदले लड़ता है ! सुविधाओं के बल पर खड़ा संतरी  …और स्वेच्छा से खड़ा एक  स्वयंसेवक अलग-अलग संज्ञाएँ हैं ! हमारा उद्देश्य मात्र सुविधाएं पाना नहीं है  …सुविधाएं उपलब्ध कराना है ! एक माँ की तरह हम गीले में सो कर ..लोगों को सूखे में सोने के सुख बांटते हैं , नरेन्द्र !”

उन की बात कहीं सच थी. सोलहों आने सच थी. लेकिन मैं भूखे पेट लड़ने के पक्ष में भी नहीं था. लाचारी, गरीबी, बे-रोज़गारी, अशिक्षा और ऊपर से देश की बढ़ती जन-संख्या  ….मुझे बुरी तरह से डराने लगे थे. मेरे सपनों में खोट आ गया था.

“डॉक्टर हेगडेवार कहते हैं  ….” कहते होंगे , मैं सुन नहीं रहा था.

“हमारा उद्देश्य है कि  ……” होगा  ..! पर मेरा ध्यान अब कहीं और था.

अशिक्षित रह कर क्या कर पाऊंगा   …? मेरा सोच इस एक बिंदु पर आ कर ठहर गया था. भारत के विकास के साथ-साथ मेरा भी तो विकास होना है -मैंने स्वयं से कहा था. दो पैसे हाथ में नहीं होंगे  …तो सफर तय कैसे होगा    …?

उन दिनों पैसा -पैसा था. पैसे का महत्त्व था. पैसा बड़ी कठिनाई से बनता था. पैसा खूब-खूब खरीदता था. पैसा जेब में होने पर तो गर्मी चढ़ आती थी. पैसे का तो जबाब ही नहीं था ! फिर जिन के पास ढेरों पैसे थे  …जिन के पास रोज़गार थे  …जो संपन्न थे  …और समर्थ थे – उन्हीं का युग था  …!!

इस आज़ादी का क्या अर्थ है  ….?

लागू होती पंच -वर्षीय योजनाएं – क्या मात्र छलावा हैं  …? आम आदमी की आमदनी बढ़ी कहाँ है  …? उन के बच्चे तो स्कूल का मुंह तक नहीं देख सकते …! फीस भरने तक की सामर्थ नहीं है , उन की  ….?

अपने असमर्थ बाबू जी पर मुझे बहुत रोष आया था  …! छ: बच्चों के बाप थे  …पर  …….

और उसी तरह का था – मेरा भारत  …मेरा सपना  …मेरा घोंसला  …जिसे मैं चाह बैठा था  …!!

सैनिक  ….या कि स्वयंसेवक  …..क्या फर्क पड़ता है, नरेन्द्र ! जंग को ज़ारी रखो  ….

मैंने अपने आप को आदेश दे डाले थे  …!!

क्रमशः –

 

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