सोफी ने अलमारी के मुंह पर फिर से ताला जड़ दिया है। उसने विगत आगत सब को फिर से उसके भीतर बंद कर दिया है। अब उसका मन प्राण एक दोहरी प्रक्रिया से गुजर रहा है। जहां उसे हर्ष है कि राहुल उसी की बिरादरी का एक जासूस है, वहीं उसे अपने रोमांस के खट्टे हो जाने का क्षोभ भी है। न जाने क्यों वह राहुल के साथ अब तक के बने संबंधों को एक बुरी नजर से देखती है।
“क्या सोचेगा राहुल?” वह स्वयं से प्रश्न करती है। “क्या सोचेगा! वह भी तो जासूस ही है, हो सकता है वह भी कोरी एक्टिंग ही कर रहा हो? हो सकता है राहुल भी ..?” उसका मन मानता ही नहीं। “मां सा को तो उसके लिए बहू की दरकार है। इसका अर्थ हुआ कि वह अभी तक कोरा है।”
एक प्रसन्नता सोफी के पास आ कर बैठ जाती है।
सोफी रेत के एक छोटे टीले पर आ कर बैठ जाती है। बालू के बिखरे विस्तार उसके मन को भटकने से रोक लेते हैं। छूट गया पुरवइया उसकी लटों को उड़ा-उड़ा जाता है। सुनहरी रेत उसके मन में एक अजीब सा व्यामोह भरती है। उसके आस-पास यादों का जमघट जुड़ने लगता है।
मां सा के मुकाबले आ कर सोफी की मां डट जाती है। उन के बीच एक मुकाबला चल पड़ता है। सोफी की मां ही पहला वार करती है। “बिलकुल गंवार है ये औरत।” वह कहती है। “एक आदमी के लिए उम्र भर बैठे रहना कैसी हिमाकत है?” वह मुंह बिचका कर पूछती है। “अरे, जा-जा!” मां सा भी टूट पड़ती हैं। “ये मानस जनम है। एक मरद अपना हो जाए तो जी गए जनम जन्मांतर को। सच्चा प्रेम किसे कहते हैं तू क्या जाने?”
“मैं भी कहां जानती हूँ सच्चे प्रेम को?” सोफी स्वयं से प्रश्न करती है। “कठिन है एक पुरुष के लिए बैठना। रॉबर्ट से उसका मन भर गया है, जबकि रॉबर्ट को तो उसने भोगा तक नहीं है। और राहुल ..? क्या वह सती होने जैसी बात को सच भी मान लेगी? नहीं-नहीं! यह बातें उसके जेहन में घुसती तक नहीं हैं। हां! अच्छी जरूर लगती हैं।”
“क्या-क्या अच्छा लगता है तुम्हें?” सोफी आज अचानक अपने आप से पूछती है।
“एडवेंचर ..!” उत्तर तुरंत चला आता है। “न जाने क्यों जान जोखिम से खेलना और भिड़ जाना ही अच्छा लगता है मुझे। शायद सर रॉजर्स की तरह मैं भी ..?” आकर विचार भाग जाता है।
लेकिन सर रॉजर्स मैदान छोड़कर नहीं भागते।
“अमेरिका के लिए जीते हैं सर रॉजर्स!” सोफी स्पष्ट कहती है। “उनकी जिंदगी तो एक सपाट पन्ना है। जो चाहे पढ़ ले। लिखा मिलेगा – अमेरिका के हित के लिए। यह होगा तो यह नहीं होगा। उनका अपना हित तो कोई है ही नहीं।”
और राहुल? राहुल किसके लिए जीता है? “राहुल जाने!” उत्तर आता है। लेकिन नहीं! यह तो सोफी को भी जानना ही होगा। अगर राहुल ..?
“तुम्हारे लिए जीता है राहुल!” कोई सोफी के मन में कह गया है। “वह अब से नहीं शायद जन्म जन्मांतरों से तुम्हारे लिए ही जीता आया है और जीता रहेगा .. और ..”
“राजपूतानियों की तरह सोचने लगी हो?” एक दूसरी आवाज आती है। “ये संगत का असर है। ये इस हवा का दोष है। यहां की मिट्टी में ही बलिदान मिला है, सोफी। अब तुम भी ..?”
“लेकिन मैं यहां क्यों रहूंगी?” सोफी पलटवार करती है।
“मेरे लिए!” राहुल कहीं से आ कर कहता है। “अब कैसे होगा कि तुम मुझे छोड़ कर चली जाओ?” वह पूछ रहा है।
सोफी कोई उत्तर नहीं देती। वह मौन बैठी रहती है। उसे फिर से उसका बहकता मन बेतुकी कल्पनाओं में घसीटने लगता है। लगता है राहुल जो उसकी मुट्ठी में आ गया था अब निकल कर कहीं दूर भाग गया है। अब राहुल उसका नहीं रहा है।
“जासूस किसका होता है? किसी का भी नहीं।”
“लेकिन जासूस दूसरे जासूस का तो हो सकता है?”
“कभी नहीं!”
“तो फिर ..?”
सोफी को क्रोध आने लगता है। उसे अपने जासूस होने पर आज पहली बार रोष आया है।
“क्यों नहीं उसने एक सीधा जीवन चुना? मसलन कि रॉबर्ट के साथ ही अगर वह अपना जीवन जीने का निर्णय कर लेती तो?”
“रॉबर्ट में है क्या?”
“किसी मर्द में होता क्या है?”
“होता है! जैसे कि .. जैसे कि .. राणा सांगा में कुछ था और सर रॉजर्स में कुछ है। पुरुष में पुरुषार्थ तो होना ही चाहिए।” वह एक निर्णय लेती है।
“जालिम कितना पुरुषार्थी होगा?” एक और प्रश्न आ कर उसे दबोच लेता है।
फिर वह बतासो के बताए उस साम्राज्य में जा घुसती है जहां बेगम तरन्नुम रहती है, जहां जुल्म ढाए जाते हैं, जहां दौलत के अंबार लगे हैं और जहां ..
“कालिया भी तो गुम है?” उसका दिमाग पुन: प्रश्न करता है। “हो सकता है राहुल और कालिया मिल कर कहीं ..?” वह रुक जाती है।
“और हो सकता है?” दूसरी एक संभावना सामने आती है।
“तो क्या मिशन आरंभ होने वाला है? तो क्या उसे सीधे अब जालिम से जूझना ही होगा? तो क्या ..?”
आज सब कुछ घुल मिल गया है। रेत का रंग भी हवा के रंग के साथ मिल कर घुल सा गया है। आज आसमान भी और ही लग रहा है। जमीन भी पलट गई लगती है। दिशाएं न जाने कैसे भ्रम से भरी हैं। उसे सच झूठ में कोई फर्क ही नजर नहीं आता। कल जो राहुल एक गाइड भर था आज वही राहुल एक जासूस है। और स्काई लार्क के साथ प्रतिबंधित है। कैसा विचित्र खेल है?
और ये बतासो और कालिया भी जरूर ही सर रॉजर्स के ही आदमी हैं – सोफी मान लेती है। जरूर ही यहां कोई गेम शुरू होने वाला है – वह समझने का प्रयत्न करती है।
“राहुल से मिलने पर वह क्या करे? क्या पूछेगी उसे? क्या पूछेगी कि वह एक जासूस है और स्काई लार्क के साथ उसका ..?”
“क्यों पूछे वह?” सोफी तुनक कर कहती है।
“सर रॉजर्स ने क्यों नहीं बताया उसे?” एक और प्रश्न उसके सामने आता है।
“न बताएं!” वह कहती है। “तो अब मैं भी चुप रहती हूँ।” वह एक और निर्णय ले लेती है। “मैं भी किसी से कुछ नहीं पूछती।” वह हंसती है। “लैट इट बी ए गेम, ए जोक! मैं भी इंतजार करती हूँ। देखती हूँ कि राहुल क्या करता है। मैं अब इंतजार करती हूँ कि सर रॉजर्स क्या संदेश भेजते हैं? अभी तक तो उसका संपर्क हुआ ही नहीं है। शायद – वह जानते तो सब कुछ हैं। लेकिन ..”
फिर एक विभ्रम सोफी का दिमाग भरने लगता है। वह अपनी याद भूल गई लगती है।
“जासूस के साथ जासूसी करो!” वह स्वयं से कहती है। “अब और भी मजा आएगा!” वह फिर हंसती है। “लैट मी सॉर्ट आउट दिस राहुल फर्स्ट।” वह फिर से एक निर्णय लेती है। “आने दो उस लुच्चे को! लेती हूँ इसकी खबर!” वह एक ठान, ठान लेती है।
सोफी बहुत प्रसन्न है। न जाने क्यों राहुल पर उसे और भी स्नेह होने लगता है। अगर सर रॉजर्स ने उसे चुना है तो ..?
“तो क्या राहुल उसका भी चुनाव है? माने कि आखिरी चुनाव!”
सोफी फिर चुप है। लेकिन उसका मन तो प्रसन्न है। पर उसका दिमाग आज पहली बार बिदक रहा है। आज सोफी एक न रह कर दो में विभक्त है। एक सोफी तो राहुल की है तो दूसरी सोफी राहुल की नहीं है। एक सोफी जासूस है तो दूसरी सोफी जासूस नहीं सती नारी का स्वरूप साक्षात रानी पद्मिनी है। और राहुल है उसका राणा।
यहीं इसी सुनहरी रेत पर उसका स्वप्न जीवंत हो कर पसर जाता है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड