मेवाड़ में प्रवेश पाते ही सोफी को लगा था जैसे हवा ही बदल गई थी। उस प्रदेश का अनोखा प्रसार उसे आनंदित कर गया था। उसे लगा था जैसे वह इस देश प्रदेश को जानती थी। वह इन सब पेड़ पौधों और पशु पक्षियों से परिचित थी। कुछ भी अजान बेजान न था यहां।
और चित्तौड़ गढ़ में प्रवेश पाते ही उसे आभास हुआ था कि रानी पद्मिनी की आत्मा उसमें उसके देखते-देखते ही प्रवेश कर गई थी। उसके महसूसने से पहले ही वह रानी पद्मिनी बन चुकी थी। और वो राहुल सिंह भी रावल रतन सिंह ही तो था।
“किले को अगर गौर से देखो सोफी तो समझ आएगा कि क्यों अलाउद्दीन खिलजी की फौजें इसे फतह न कर पाई थीं। इस अजेय दुर्ग की रचना बड़ी दूरदर्शिता के साथ की गई होगी। उस समय के हाथी घोड़े, तोप तमंचे और सिपहसालारों को ध्यान में रख कर यह व्यूह रचना हुई होगी।”
“झगड़ा क्यों हुआ था?” सोफी बीच में बोल पड़ी थी। “झगड़े की जड़ क्या थी?”
“झगड़े की जड़ थी रानी पद्मिनी।” राहुल सिंह ने संक्षेप में बताया था। “राघव ने खिलजी को रानी के रूप के बारे में सब बता दिया था। यह सुन कर वह चला आया।” राहुल सिंह तनिक मुसकुराया था। “खिलजी भाई बन कर आया था रानी का। कहा – केवल मिलना है रानी से। एक भाई की तरह। लेकिन ..!”
“क्या ये कोई चाल थी?” सोफी पूछती है।
“हां! यह उसकी एक चाल थी।” राहुल स्वीकारता है। “अलाउद्दीन खिलजी ने पहले ही अपने चाचा को चालाकी से जहर दे कर मार दिया था। वह बहुत शातिर था। रावल रतन सिंह जानता तो सब था पर किसी तरह इस शैतान से जान छुड़ाना चाहता था। तय हुआ था कि वह रानी का दीदार सिर्फ शीशे में करेगा।” राहुल हंसा था।
“ऐसा क्या था टाइगर कि रानी ..?” सोफी पूछती है।
“आज जैसा माहौल तब न था, सोफी। पर्दा होता था। प्राइवेसी थी। तब रानियां पहरों के भीतर ही रहती थीं।”
“मेरी तरह स्वच्छंद डोलने की आजादी शायद उन्हें तब न थी?” सोफी खूब हंसी थी। “विडम्बना तो देखो टाइगर कि पुरुषों ने नारी को कितना छला? लाइक शी वॉज ए पीस ऑफ आर्ट?” वह राहुल की आंखों में देखती है। “लाइक शी वॉज प्रोटैक्टेड बाई द स्टेट?”
“यही सब था तब।” राहुल स्वीकारता है। “नारी को पुरुष तब अपनी इज्जत मानता था। और स्त्री भी अपने पुरुष को तब अपना आराध्य मानती थी।
“पर मैं नहीं मानती इन बातों को! रानी पद्मावती अगर सच्ची थी तो ..”
“खिलजी ही कहां सच्चा था? वह महल में आया था अपनी टीम के साथ और सब कुछ योजना बद्ध करके। साथ में रावल को धोखे से ले गया था और कैद कर लिया था उसे। फिर संदेश आया था कि पद्मिनी आए और ले जाए रतन सिंह को। सोचो ..?”
“बहुत भोले थे तुम्हारे ये राजपूत लोग!” सोफी जोरों से हंसी थी।
“मेरी ही तरह!” राहुल ने हंसने में उसका साथ दिया था। “ठीक कहती हो तुम! हमारे पराभव का कारण ही है हमारा अच्छा सच्चा होना सोफी। इतिहास उठा कर देखता हूँ तो हैरान रह जाता हूँ कि इतने शक्तिशाली होने के बावजूद भी हम राजपूत ..?”
“बल से ज्यादा छल काम करता है, टाइगर!” सोफी कहती है। “जैसे कि गोरा और बादल ने बड़े तरीके के साथ रतन सिंह को उड़ा लिया और अगर उसी तरकीब के साथ राजपूत खिलजी पर आक्रमण कर देते बजाए इसके कि सब आ कर किले में कैद हो गए।”
“यू मीन अटैक इज द बैस्ट डिफैंस?” राहुल प्रश्न करता है।
“यस! मुसीबत पर हमला बोल देना सबसे सही विकल्प है।” सोफी गंभीर है। “चिताओं में जल कर मरना मुझे ठीक नहीं जंचता। जौहर तो था, कमाल तो था। रानी पद्मावती और रानी नागवती का यह निर्णय शायद यही सोच कर तो था कि उनके रखवाले उनकी रक्षा कर ही न पाएंगे। तभी तो उन्होंने जौहर की ठानी थी?”
“किले की घेराबंदी से रतन घबरा गया था। राशन रसद और ..” राहुल कुछ कहना चाहता था।
“यही तो गलत सोच समझ था। खिलजी होशियार था। उसे तो पद्मिनी चाहिए थी।” सोफी तर्क करती है। “लेकिन मिला क्या? पद्मावती? नहीं-नहीं भस्म हुआ उसका जिस्म। ओह गोश! सो सैड, राहुल!” टीस आती है सोफी। “अपराध ही किया खिलजी ने?” वह पूछती है।
अचानक सोफी का दिमाग पलट कर जालिम की ओर मुड़ता है। अगर जालिम किसी तरह इस किले में आ कर कैद हो जाए तो वह उसे मरने नहीं देगी। उसे प्यार से बुलाएगी, पास बिठाएगी, पुचकारेगी, प्रेम का प्रलोभन देगी जो उसे बुरा न लगेगा। फिर उसे बहका कर आहिस्ता से अपने साथ उड़ा ले जाएगी हवा की तरह। और फिर ..?
न जाने कैसे तभी साेफी के सामने राॅबर्ट आ खड़ा हुआ था – सशरीर। वह अब उसके और जालिम के बीच खड़ा था। वह जालिम काे बता रहा था कि साेफी उसकी थी और वह साेफी काे पा कर ही रहेगा। लेकिन कमाल तब हुआ जब जालिम ने राॅबर्ट काे फेंक चलाया और उसने साेफी काे अपनी बाहाें में समेटना चाहा। साेफी दाैड़ पड़ी थी। जालिम भी उसके पीछे-पीछे दाैड़ पड़ा था। और तब .. और तब ..
“क्या हुआ साेफी?” लड़खड़ा कर गिरती साेफी काे राहुल ने बांहाें में थाम लिया था।
“हां ..?” साेफी ने संभलते हुए राहुल काे देखा था, और वह उसे लंबे पलाें तक आंखाें में ही देखती रही थी।
अब जालिम से भी बड़ा एक मायाजाल साेफी के सामने था। वहां, उस चित्ताैड़गढ़ के दुर्ग में रानी पद्मिनी की बिलखती आत्मा जैसी साेफी जिंदा हाे गई थी। उसे लग रहा था जैसे उसे अपना सारा का सारा विगत याद हाे आया था।
“हीरामन ताेता लेकर आई थी न रानी?” साेफी ने राहुल से पूछा था। “हीरामन ताेता ही ताे था जाे उसे उसके रूप साैंदर्य के किस्से सुनाता था?”
“और नागमति काे चिढ़ाता था!” राहुल ने बात आगे बढ़ाई थी। “और फिर राघव जाे रानी पर मर मिटा था उसे गधे पर बिठा कर शाहर से निकाला गया था और उसका मुंह काला कर दिया गया था।”
“यह राघव काैन था?” साेफी ने पूछा था।
“पद्मिनी का प्रेमी था।” राहुल ने उत्तर दिया था।
“और .. और तुम काैन हाे टाइगर?” साेफी ने अचानक एक अटपटा प्रश्न पूछ लिया था।
“तुम्हारा हीरामन!” राहुल ने उसी तरह बेबाक और बेधड़क आवाज में उत्तर दिया था।
दंग रह गई थी साेफी। जाे वह साेच रही थी वही उत्तर आया था। उसे लगा भी ताे था कि टाइगर ठीक हीरामन ताेते की तरह उसके हुस्न काे सराहता रहता था और अब यही बात एक स्वीकार बन कर साेफी के सामने खड़ी थी।
प्रेम के भूत से साेफी का पहली बार ही पाला पड़ा था। राॅबर्ट ताे मात्र एक धाेखा था, एक परछाईं थी! प्रेम ताे अब आ कर उजागर हुआ था।
“हीरामन भी ताे मर गया हाेगा टाइगर?” साेफी ने बात बदली थी।
“नहीं! न हीरामन मरा न रानी! वक्त मरा साेफी! इतिहास के पन्नाें ने धूल चाटी। वह दाेनाें ताे अब भी यहीं – इन खण्हराें में जीवित हैं। दाेनाें बाेलते हैं, डाेलते हैं, बतियाते हैं और ..!”
“समझाते हैं कि ये प्रेम पागलपन है और रूप साैंदर्य धाेखा है। इस तरह के हादसाें में जानें जाती हैं।” साेफी गंभीर थी।
“वक्त अब बदल गया है साेफी।” राहुल सिंह ने आहिस्ता से कहा था। “अब ताे आश्चर्य ही हाेता है कि किस तरह से उत्सर्ग का नाम बदल कर लाेगाें ने स्वार्थ रख दिया है। घाेर स्वार्थ। इन इच्छऒं के घराेंदाें में इस तरह की वासनाऒं का नंगा नाच पहले कभी नहीं देखा था। तब लज्जा आती थी आदमी काे। लेकिन आज ताे आदमी निरा बेशर्म बन गया है। भाेंड़े प्रदर्शन करने से आज काेई भी बाज नहीं आ रहा है!”
“लेकिन क्याें, टाईगर क्याें?”
“शायद सब्र खाे बैठा है इंसान! माया के हाथाें वह बुरी तरह परास्त हुआ है और आज के हमारे ज्ञान विज्ञान की दिशा भी ताे अलग ही है! और .. और आध्यात्म के अलाेप हाे जाने की खबर भी ताे बुरी ही है, साेफी।” टीस कर कहा था राहुल ने। “मैं और तुम वक्त के एक भंवर में आ फंसे हैं।” वह मुड़ कर साेफी की आंखाें में कुछ खाेजने लगता है।
“राहुल के आध्यात्म काे खाेजूं या अपने जालिम काे?” साेफी साेचने लगती है।
गुमराह हुई साेफी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचती।
मन के भीतर एक मनन चल पड़ता है। एक द्वंद्व दिख जाता है जालिम, राहुल और राॅबर्ट के बीच। एक संग्राम हाेने लगता है। खिलजी और रतन सिंह रावल काे लेकर एक उदाहरण की तरह रानी रूपमति और रानी पद्मिनी उसी के जिस्म से आ कर चिपक जाती हैं।
अब क्या करे साेफी? ये एक विचित्र ही मुसीबत थी।
लेकिन आज फिर से वह राहुल काे ही अपनी मदद के लिए आवाज देती है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड