धृतराष्ट्र

आपने पढ़ा – क्या धरा था -दिल्ली में ?

अब पढ़ें -समापन किश्त ;-

“दिल्ली दिल है , हिंदुस्तान का !” लच्छी बता रही थी. “तुम चीफ मिनिस्टर बनोंगे   …और मैं  ….उस के बाद – प्रायमिनिस्टर बनूंगी।  अभीष्ट, एक बात द्यान से सुनो ! सत्ता के पत्ते बांटना   …आसान काम नहीं है. मैंने जो हासिल किया है  …बेजोड़ है ! गेम होश्यारी से खेलना, बेटे ! बुढऊ के ‘करातों’ के पर काट साथ-साथ इन सब का पत्ता भी काटना होगा !” वह खेल को विस्तार से बता रही थी. “आपस में लड़ा कर  …बाँट कर  …और बहका कर – इन्हें ठिकाने लगाना होगा। पांच साल मिलेंगे , तुम्हें ! केवल ..पांच साल में  ….दिल्ली   …”

“समझ गया, माँ !” अभीष्ट हंसा था. “जानती हो   ….मैं  …किस कला का धनि हूँ ? देखती रहो ! पूरा प्रदेश घूम जाएगा। सारी युवा-शक्ति मेरी मुठ्ठी में होगी। और जो अगली चाल मैं चलूँगा  ….आप भी हैरान रह जांएंगी  ….!”

“क्या   ….? क्यों  …?  …..लेकिन अभीष्ट   …..”

“आप को पी एम्   जो बनाना है,माँ !”

“हाँ,हाँ ! वही तो मैं चाहती हूँ।  देखो ! आज का युग औरत को सत्ता में चाहता है। लन्दन  …अमेरिका  ….रूस  …सब चाहते हैं  कि  औरतें आगे आएं।  हमारी श्रीमती इंदिरा गाँधी तो  ……”

लच्छी ने अभीष्ट के गले बात उतार कर ही दम लिया था. अब वह जानती थी कि अभीष्ट सब कुछ पार उतार देगा। लेकिन वो भूल गई थी कि पुरुष था, अभीष्ट !

घटाटोप की तरह ‘करातों ‘ की कतारें   …प्रदेश की राजनीती पर हावी थीं  …. विरोधीयों  पर भारी थीं  ….और हर किसी को पता था कि   ….बिना संग्राम के इशारे के वहां पत्ता भी नहीं हिलता था. प्रदेश उन के परिवार की जागीर थी !

“मिल-बाँट कर चलते हैं, अभीष्ट !” संग्राम कह रहे थे. “अब की बार सुवर्णा को सी एम् बनाते हैं।  तुम  ….”

“नहीं ! सी एम् मैं ही रहूँगा। मैंने काम किया है  …नाम किया है   …नाम दिया है  ….! मेरी मेहनत है, ये    ….”

“तुम्हारी मेहनत  …? और जो मेरा नाम  …..मेरा   ….”

“खाली कारतूस हैं, आप !” हँस कर कहा था, अभीष्ट ने. “मज़ाक नहीं कर रहा हूँ. यूथ-पॉवर मेरी है  ….और  …दिल्ली  ….”

“दिल्ली  …?” चौके थे, संग्राम। “तुम दिल्ली से कब और कैसे जुड़े   ….?”

संग्राम के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया था, अभीष्ट ने.

गृह-कलह   ….गृह-युद्ध   ….और गृह-विवाद इतना बढ़ा कि वो चाह कर भी उसे रोक न पाए ! लच्छी ने एक लम्हे में सब तहस-नहस कर दिया !

“हमारी पार्टी अलग है   ….हमारी पार्टी  ….पिताजी की पार्टी है  ….! अभीष्ट कोई समाजवादी नहीं – सत्तावादी है   ….! उस ने लालच में आ कर  ….” सुवर्णा कह रही थी.

“रोते क्यों हो   …., संग्राम ?” गुरु जी की आवाज़ थी. “माया-मोह का आँखों पर पर्दा पड़ने के बाद   …यही अंत होता है !” वह बता रहे थे. “तुमने समाजवाद के स्थान पर ‘परिवारवाद’ खड़ा कर दिया, पुत्र !”

संग्राम की आँखें भर आई थीं. आंसूओं से अंधी हुई आँखें कुछ भी न देख पा रही थीं. पश्चाताप था  ….जिस ने उन की बांह पकड़ी थी  ! पतवार की तरह वह उन्हें राजनीती के भवसागर के पार ले जाना चाहता था. लेकिन वो थे कि अड़ियल टटटू  की तरह आगे आने से नांट गए थे.

“नहीं,नहीं ! मैं यहीं मरूंगा  ….!! मैं यहीं  ….इसी मंच पर  ….जनता के सामने प्राण-त्याग करूंगा  ….! मैंने गुरु जी को दिए वचन तोड़े  ….उस की भी सजा लूँगा  ….मैं  …..” संग्राम बिलख-बिलख कर रो रहा था.

पुत्र-मोह भंग होने के बाद आज फिर से धृतराष्ट्र दु:खी था  ….अधीर था   ….आहत था।  अंधी हुई आँखें कुछ भी न देख पा रही थीं !!

समाप्त।

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