महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !
भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी .
उपन्यास अंश :-
“आभारी हूँ, अमित !” मैंने गदगद हो कर फिर कहा था .
“क्यों ….?” उस ने अब की बार कड़क कर पूछा था . “मेरा धर्म है,भाई जी …! मैं आप को …..उन चिनगारियों को ….छूने तक न दूंगा …..!” वह वायदा कर रहा था . “सब को लाईन में लगाऊंगा …इन नौकरशाहों को …जो दिल्ली का दिया खाते हैं ….?”
“कैसे ….?”
“पद…प्रतिष्ठा….सम्मान …ओहदे …ये सभी इन को ही तो जाते हैं ….? नौकरी के दौरान भी कमाते हैं ….और फिर नौकरी के बाद – पार्टियों से खैरातें लेते हैं …? ये देखो ….इन को देखो …! जस्टिस मार्कंडेय काटजू सेवानिब्रत …होते ही प्रेस कौंसल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन …? अब ये ही नरेन्द्र मोदी पर हमलावर का काम करेंगे ….? ये तो मानते ही नहीं कि गोधरा काण्ड …में नरेन्द्र मोदी का हाथ नहीं था …? और कहते भी हैं कि …अगली लोक सभा हे चुनाव में …लोग सोच-समझ कर वोट डालें ….ताकि …देश का प्रधान मंत्री ……
“कहीं नरेन्द्र मोदी न बन जाए …..?” मैं बोल पड़ा था .
“हा हा हा !! ” अमित हंस रहा था . “जग-जाहिर हो गया है,भाई जी कि ….देश का ..भावी प्रधान मंत्री – …नरेन्द्र मोदी ही होगा ….!” अमित शाह मुझे महत्व पूर्ण सूचनाएं दे रहा था . “जानते हैं ..न ..? जस्टिस खरे को ….! वही ‘भारत रत्न’ …और कहते हैं कि ……’पदम् भूषन से सम्मानित चोर ….? तीन बार चक्कर लगा चुका है …? इसी ने तो कहा था न ….’गुजरात सरकार अपना राज-धर्म निभाने में असफल रही’ और इसी के कहने पर अदालती कारवाही की निगरानी हुई थी …?” अमित ने मुझे ठहर कर घूरा था . “अब …छटपटा ….रहा है ….बच्चू …..?”
“और हाँ ! अमित इस …अरिजीत पसायत का क्या हुआ ….?” मैं अब प्रसन्न था . “इस ने भी तो मोदी सरकार को ‘आधुनिक नीरो’ की संज्ञा दी थी …और केस को महाराष्ट्र में चलाने के आदेश दिए थे ….?”
“चल रहा है !” अमित बता रहा था . “अभी तक दम है !! फिर से ‘कस्तुम्स एंड सर्विसेज ‘ का अध्यक्ष लगने वाला है !” अमित बताता ही जा रहा था . “लेकिन …..” वो चुप हो गया था .
“ये लोग ……” मैं डर-सा गया था .
“नौकर हैं ! लालची हैं ….!! डरने की ज़रुरत नहीं,भाई जी …?” अमित का एलान था .
लेकिन मुझे डरने की ज़रुरत थी – मैं ये जानता था ….!!
इस ‘डर’ से मेरा पुराना अपरिचय था ? मेरा मन जब निर्मोही अखाड़े से आज़ाद हुआ था …तो मेरे पैर रुके कहाँ थे ….चल पड़े थे ….!!
“डरना….. मत,नरेन्द्र !” गुरु जी के वचन थे . “जिन्दगी तुम्हें बुला रही है !” उन्होंने कहा था . “जहाँ तक ले जाए ….चलते ही जाना , पुत्र !” कह कर उन्होंने मुझे विदा किया था .
लेकिन अब मेरी मंजिल कहाँ थी ….मेरा गंतव्य कौनसा था …मैं क्यों चलता चला जाना चाहता था ….? मैं नहीं जानता था ! हाँ ! मुझे लगता ज़रूर था कि …उन ..धुली -मंजी …धवल …बर्फानी चोटियों से …जा कर मुझे हाथ मिलाना था ! वहां कहीं बैठे …तपस्या करते …शिव का पता पूछना था …! और फिर उन की गोद में बैठ कर …..
और फिर लगा था कि …शिव …हाथ में त्रिशूल लिए …मेरे पथ-प्रदर्शन में आ जुटे थे …! मुझे ऊपर ….और ऊपर लिए जा रहे थे !!
सच में मेरा पहाड़ों से ये प्रथम-परिचय था ! हिमालय …भव्य और विशाल हिमालय ….मुझे अपना परम मित्र लगा था ! लगा था – मैं हिमालय का ही हो कर रह जाऊंगा …? मैं कभी भी वाद नगर न लौटूंगा ! यहाँ के जर्रे-जर्रे में समाया सौन्दर्य ..मुझे सम्मोहित कर गया था ! मुझे हर पहाड़ पर बैठे शिव ….और हर नदी -निकलती गंगा ही दिखाई देते थे ! और न जाने कब …में ..इन पहाड़ों की चोटियाँ …गिनते-गिनते बे-होश होने लगा था …..
अकेला …एक पत्थर पर बैठा मैं …निगाहें पसार कर …अपने देश को आज ..हिमालय की ऊंचाई से देख रहा था …! वाद नगर से कलकत्ता ….और फिर …काशी …केदारनाथ …निर्मोही अखाड़ा …और अब ….? अब भी बहुत शेष बचा था ….? कितना विशाल था – भारत …..??? कितना भव्य था – भारत ….और कितना अगम्य था – मेरा भारत ….? तभी …हाँ,हाँ तभी …वो विदेशी आक्रमण कारी आते थे …और हमें लूट-लूट कर मालामाल हो जाते थे …? यहाँ आ-आ कर तो वो बादशाह और बेगम बन जाते थे ….! यहाँ आ कर वो बने लार्ड और वायसराय …और हम बने – गुलाम ….?
आश्चर्य ही तो था ….कि इतनी विपुल संम्पत्ति के हम मालिक ….इतने धर्मज्ञ ….साहसी …और …और वैज्ञानिक …हम गुलाम बन गए थे ….????
“चलें,बाबा …..!!” कह कर मैं उठा था और चल पड़ा था .
पहली बार मुझे एहसास हुआ था कि …मेरे पैर काँप-काँप उठे थे ! शारीर अकड़ने लगा था …और पहाड़ी ठण्ड ने मुझे आ कर घेर लिया था ! लेकिन मैं अभी तक तो किसी मुकाम पर पहुंचा न था …? मुझे तो अब ये भी पता नहीं था कि मैं था कहाँ …? और तो और त्रिशूल धारी शिव भी मुझे …अब कहीं नज़र न आ रहे थे . लेकिन मैं चलने लगा था ….चलता ही रहा था ….अविराम …आहिस्ता …आहिस्ता ….एक बे-ध्यानी में …अर्धनिमीलित आँखों से …अंधकार को चीरता मैं …चल रहा था …और न जाने किस पड़ाव पर जा रहा था ….?
फिर कब क्या हुआ , मुझे नहीं पता …..
हाँ ! मुझे लगता ही रहा था कि मैं …शिव की गोद में आ बैठा हूँ …और वो मुझे आया देख कर दादा जी की तरह निहाल हो गए हैं ! कह रहे हैं – रहोगे न मेरे पास ,नरेन्द्र ….? बहुत अकेला हूँ,रे ! कोई नहीं आता मुझ से मिलने …? तभी तो मैं तपस्या में लींन रहता हूँ …? पर अब तुम आ गए हो तो ……
“मैं ..न जाऊंगा ,कहीं ….” रूठते हुए मैं कह रहा था . “मैं वहां अब न जाऊंगा,बाबा जी !” मैं मचला था . “घटिया है ….सकल संसार …?” मैंने जैसे उन्हें सूचित किया था . “बुरे लोग हैं ! एक दूसरे की जांन के दुश्मन हैं !” मैंने आश्चर्य जताया था .
“संसार है ,रे ….!” हँसे थे ,शिव . “रचा ही इसलिए है …?” उन्होंने मुझे शांत किया था . “बुरे के बिना …अच्छे का क्या महत्व रह जाता है , नरेन्द्र …?” शिव हँसे थे . “जीत के बाद ….हार ….और … हार के बाद जीत ….का आनंद ही तो जिन्दगी है ,पगले !” उन्होंने मुझे दुलार के साथ संभाला था . “बच्चे हो ….? सब समझ लोगे …..”
“म म …….मैं ….तो बाबा जी …मैं …न ….” मैं मचल गया था . मैं …आज ही …अभी …अपने मन की मुराद मांग लेना चाहता था !
तभी कोई अनाम दरवाज़ा खुला था ! सूरज की तेज रोशनी भाग कर …भीतर घुस आई थी . मैंने आँखें खोलीं थीं तो ….पलांश के लिए मैं अँधा हो गया था ! फिर एक आवाज़ मैंने सुनीं थी . बाबा जी न थे . किसी ..मेरे जैसे ..पुरुष की ही आवाज़ थी .
“कैसे हो …..?” वह पूछ रहा था . “लो ! चाय पी लो ….!!” उस ने एक लम्बा पीतल का गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया था .
मैं हतप्रभ था ! अचंभित था !! मैं फिर से बेहोश हो जाना चाहता था …?
“बे-होश …पड़े मिले थे ….!” वह बता रहा था . मेरा हम-उम्र लड़का ही तो था …? पर था बहुत तेजस्वी ! उस का गुलाबी चेहरा दमक रहा था . “अब्बा उठा लाए थे !” उस ने मुझे सूचना दी थी . “कहते थे – भले घर का …कोई होनहार लड़का है ! लडके भागा होगा , घर से ….?” वह हंसा था .
झेंप गया था -मैं ! न जाने कैसे हर कोई अनुमान लगा लेता था कि …मैं अपने घर से रूठ कर आया था . …..और अभी तक अपने ठिकाने पर न पहुंचा था …?
“क्या नाम है,तुम्हारा …..?” मैंने अब जुबान खोली थी .
“रकीब !” उस ने विंहस कर उत्तर दिया था . “चाय पी लो ? सेहत सुधर जाएगी ….! शरीर एक दम पीला पड गया था ! अगर अब्बा उठा कर न लाते तो …..?”
“शिव का था !” मैंने मन में कहा था . “मैं लौटता ही नहीं …..?” मैं कह देना चाहता था .
लो,जी ! अब तो मेरी रकीब के साथ दोस्ती भी हो गई थी !!
उस के घर में अब्बा थे, अम्मीं थीं ..और थी एक छोटी बहिन – निक्की ! छोटा-सा ये एक चार घरों का टोला था . सब -के-सब भेड -बकरियां पालते थे . उन के रेवड थे . और उस पहाड़ की ऊंचाई पर …उन का एक अलग ही संसार था …? ठण्ड बहुत थी . मुझे रकीब के कपडे पहन कर ही सुकून मिला था …और अब मैं भी दूसरा ही रकीब बन गया था ….?
कैसा सुघड़ ….और खुला-खिला-सा आसमान था …..स्वच्छ हवा थी ….कच्च -हरी घास का पसरा गलीचा था …और उस में जगह-जगह जड़े मोतियों-से लाल-गुलाबी फूल थे ! बहुत दूर ….हाँ, अभी भी बहुत दूर थीं …वो बर्फानी चोटियाँ ….पर बहुत नजदीक था – आसमान !!
“मैं भी चलूँगा,यार ….?” मैंने रकीब का पल्ला न छोड़ा था . “चराऊंगा भेड -बकरियां …. मैं भी ….?” मैंने संगठित मन से कहा था .
“अब्बा तो कहते हैं – दो-चार दिन में लौट जाएगा ….?” उल्हाना था, रकीब का .
“न …! मैं न लौटूंगा …अब ….उम्रभर …!” मैंने रकीब से कहा था . “इस स्वर्ग को छोड़ कर ….उस नरक में मैं क्यों जाऊं ….?” जैसे मेरा ये पैगाम था . “यार,रहीब ! तुम जैसे लोग …वहां नहीं हैं …?” मैंने उसे बताया था .
“झूठ! झूठ ….!!” निक्की बीच में बोली थी . “झूठ बोलते हो …..?” उस ने मुझे डपट दिया था . “वहां तो सलीमा है ….? वहां तो …..”
“सच …! सलीमा तो देखते होगे,भाई ….?” रकीब ने पूछा था .
कमाल ही था …? संसार की सारी करतूतों की खबर दुनियां-जहाँन को थी …..!!
बड़े-बड़े रेवड़ थे , उन लोगों के ! ऊंचे-ऊंचे कुत्ते थे -रीछ नुमा – जो भेड -बकरियों की रखवाली करते थे . साथ में खच्चर भी थे – जो माल ले कर चलते थे और बीमार भेड़ या छोटे बच्चों को ढोने के काम आते थे . बरफ के पिघलने के बाद …नरम-नरम घास जो उगती थी …उसे इन की भेड़ -बकरियां बड़े ही शौक से खातीं थीं ! ज्यो -ज्यों बर्फ ऊपर जाती थी …ये भी ऊपर जाते रहते थे ! और जब बरफ जमती थी …तो ये नीचे आते जाते थे ! एक बड़ी ही सलीकेदार जिन्दगी थी ! लेकिन बच्चों की पढाई-लिखाई का कोई ठौर-ठिकाना न था …?
“क्या ज़रुरत है,नरेन्द्र भाई …?”रकीब ने बताया था . “जो हमें चाहिए ….वो हमें आता है ….?” वह हंसा था . “कौनसे कागज पलटने हैं ….?” उस का प्रश्न था . “और फिर हम पर कमीं क्या है …?” उस ने प्रसन्न हो कर बताया था .
सच में ही ये लोग मालामाल थे . भेड़ -बकरियों में अच्छी कमाई थी . चारागाह तो थे ही इन के अपने ….? इस के बाद तो सरकार का भी यहाँ कोई दखल न था …?
“वहां …..?” मैंने इशारे से ही रकीब को उन बर्फानी चोटियों को दिखाया था . “शिव रहते हैं !” मैंने कहा था .
“कोई नहीं रहता ,वहां ….,नरेन्द्र !” रकीब हंस कर बोला था . “मुशीबत है, ये बरफ ….?” उस ने बताया था . “प्यार से बुलाती है ….! लेकिन एक बार इस के चंगुल में आए नहीं ….कि ….”
“पर,रकीब …? मैं तो देखना चाहूंगा ….” मेरा मन फिर से अशांत होने लगा था .
“ले चलूँगा …!” उस ने वायदा किया था . “लेकिन मौसम को खुलने दो ….?” वह बता रहा था . “अभी तो फंस जाएंगे,नरेन्द्र !” रकीब की सलाह थी .
एक सूचना और भी दे दूं , आप को …?
न जाने क्या हुआ था कि मेरा शरीर ….एकबारगी खुलने लगा था ! भेड़ -बकरियों का खुला दूध ….और …वो जई के आटे की रोटियां …मेरे अंग लगने लगीं थीं ! पहाड़ का स्वच्छ वातावरण था …और था वो चश्मे का पानी -जो मुझे मिला वरदान जैसा लगता था ! मेरे शरीर में अकूत सामर्थ लौटने लगी थी . मैं दिन -रोज …समर्थ ….और बलवान होता ही चला गया था ….
“अब्बा खुश हैं ….तुम्हारी सेहत देख कर ….” रकीब ने ही बताया था .
“और भैया …? मैं तो तुम्हारे ही साथ चलूंगी ….! मुझे सलीमा दिखा देना ….???” निक्की कहती रही थी .
पर मैं मौन ही बना रहा था …..!!!
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!