महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

भोर का तारा -नरेन्द्र मोदी .

उपन्यास अंश :-

“आ रहे हो , नरेन्द्र …?” अचानक मैं अपने विगत की बातें सुनने लगा था . क्रिस्टी थी . भिक्षा माँगने जा रही थी . उस ने मुझे मनाया था कि ..मैं भी उस के साथ जाऊं …और देखूं कि भिक्षा कैसे माँगते हैं ….और लोग भिक्षा कैसे देते हैं ? “चलो ! पड़े-पड़े क्या करोगे ….?” क्रिस्टी का उल्हाना था .

मैंने क्रिस्टी को नज़रें पसार कर देखा था .साक्षात दिव्यांगना लग रही थी ! उस का पीत परिधान उसे और भी आकर्षक बना रहा था ! उस की कन्धों तक झूलती सफ़ेद लटें – हंस -विहंस रही थीं ! क्रिस्टी एक अजीव-सा उन्माद भरती लग रही थी . मैंने सोचा था की कन्नी काट दूं …और उस के साथ भिक्षा माँगने न जाऊं . कारण – भिक्षा मांगना मुझे बुरा लगता है !

“काशी के लोग हैं !” क्रिस्टी बता रही थी . “भारत की पुन्य-प्रताप वाली नगरी है …? चल कर देख तो लो कि ….?” क्रिस्टी ने एक महत्वपूर्ण विचार मेरे सामने रख दिया था .

अचानक ही मैं नींद त्याग कर उठ बैठा था !

कशी -हम हिन्दूओं का तीर्थ ही तो थी – मुझे याद आ गया था ! कशी हमारी संस्कृति और साहित्य का केंद्र रही है – इतना तो मैं जानता था ! और कशी आज के सन्दर्भ में क्या है – ये मैं क्रिस्टी के साथ जा कर देख सकता था ?

“चलो !” मैं उठा कर खड़ा हो गया था .

अब हम दोनों भिक्षा माँगने निकल पड़े थे …!!

निर्मोही अखाड़े के नियमानुसार हमें केवल छह स्थानों से ही भिक्षा मांगनी थी ! और अगर हमें छहों स्थानों में से …भिक्षा न मिली तो …हमें आज के दिन भूखा ही रहना था ! और अगर हमें एक ही स्थान पर पर्याप्त भिक्षा मिल गई तो …हम अन्य पांच स्थानों पर भिक्षा माँगने नहीं जाएंगे ! यह सब तय था !!

मेरी और क्रिस्टी की अजब ही जोड़ी बनी थी ……..?

मैं न तो क्रिस्टी का शिष्य लग रहा था …और न ही सहायक …? मैं जैसे कोई तमाशबीन ही था – जो साध्वी क्रिस्टी के साथ किसी कौतूहल वश हो लिया था ? लेकिन फिर भी लोगों की निगाहें तो उठतीं …कुछ देखतीं …और फिर गिर जातीं ! हम दोनों का कोई सम्बन्ध ही स्थापित न हो पाया था …पर हम थे साथ-साथ …और भिक्षा के आग्रही थे ?

“भिक्षाम देहि …!!” अब क्रिस्टी ने पहले दरवाजे पर भिक्षा प्राप्त करने का आग्रह किया था .

एक वृद्ध महिला घर के बाहर आई थी . उस ने हम दोनों को अर्थपूर्ण आँखों से देखा था . कुछ अनुमान लगा कर वह आगे बढ़ी थी …और उस ने क्रिस्टी के पैर छुए थे .

“अहो,भाग्य !!” वह कह रहीं थीं . “मेरे द्वार …आप आईं …? तर गए ,,,हम तो …!!” कहते-कहते वो मरे भी पैर लेने चलीं थीं .

“नहीं,माँ ….!” मैं पीछे हट गया था . “मैं तो आप का पुत्र हूँ !” मैंने कहा था ..और उन के पैर छुए थे …आशीर्वाद लिया था .

“अंदर आईये …न …?” उन का आग्रह था .

“नहीं,माँ ! हम आपके गृहस्थ में प्रवेश नहीं करेंगे !” क्रिस्टी ने उत्तर दिया था . “निर्मोही अखाड़े से हैं ! भिक्षा ले कर …”

वृद्ध अंदर चली गई थी . हम दोनों घर के बाहर ही खड़े थे . एक भीड़ जमा होने लगी थी . महिलाओं ने क्रिस्टी के पैर छू-छू कर आशीर्वाद लिया था . फिर घर की मालकिन अपनी बहुओं के साथ बाहर आई थी …और हमें ढेरों दान दे डाला था ! लेकिन क्रिस्टी ने उतना ही ग्रहण किया था …जितना कि हम दोनों के लिए पर्याप्त था ! फिर एक विरक्त भाव से क्रिस्टी वापस लौट रही थी . मैं उस के साथ था भी ….और नहीं भी …?

“गंगा घाट चलें ….?” क्रिस्टी ने पूछा था . “दो पल …बैठेंगे …गंगा तट …पर …?” उस का सुझाव था . “आज का अभीष्ट तो आ गया …?” वह प्रसन्न थी .

मुझे गंगा घाट जा कर बैठना अच्छा लगा था ….!!

अचानक ही मैं …भारतीय सभ्यता …संस्कार …और आचार-विचारों के बारे …सोचने लगा था ! कितनी गहरी समझ थी – हिन्दू समाज की …और कितनी श्रद्धा थी -साधुओं के लिए …., मैं हैरान था …? क्रिस्टी के पैर छूना …एक श्रेष्ठ सभ्यता का प्रतीक ही तो था …? और यथेष्ट भिक्षा देना …बताता था कि ,,,भारत आज भी अभाव ग्रस्त न था ? सुखी और संपन्न था !!

सदियों से लुटते आने के बाद भी …हमारी देने की प्रथा लुप्त नहीं हुई थी ….?

“मुझे भारत बहुत अच्छा लगता है, नरेन्द्र !” क्रिस्टी बताने लगी थी

“क्यों…?” मैंने पूछा था .

“इसलिए कि …यहाँ के लोग …सही अर्थों में ‘मानव’ हैं ! जब कि …अन्य स्थानों के लोग ….?”

“अन्य लोग ,कौन ….?”

“जैसे कि मेरे ही पिता जी ….? या कहूं …कि सम्पूर्ण अंग्रेज जाति ….भूखे भेडियों जैसे लगते हैं , मानव नहीं !” क्रिस्टी के मुंह का जायका ही बिगड़ गया था . “मानोगे,नरेन्द्र कि …मेरे पिता जी ने लार्ड कर्जन के साथ रह कर …पेट भर कर कमाया ,भारत में ! यहाँ के राजे-महाराजे तो उन्हें अमूल्य भेंट दे कर जाते थे ? धन उन के पास पानी की तरह बह कर चला आया था ! और जब उन्हें लगा था कि …अंग्रेज लौटेंगे …तो वह पहले ही इंग्लेंड चले आए थे !” क्रिस्टी चुप हो गई थी . वह शायद गंगा के विस्तारों में डोल रही थी .

“फिर …?” मैं अब चुप न रहना चाहता था . मैं चाहता था कि क्रिस्टी की राय अपने देश के बारे ले ही लूं .

“इंग्लेंड में जा कर उन्होंने …आलीशान कैसिल तैयार कराया ! एक लम्बा-चौड़ा फर्म बनाया . घोड़े …बग्घी …कार …और हर तरह के सनसाधन जुटाए ! और फिर ….”

“और फिर ….?” मैंने पूछा .

“और फिर उन्होंने भारत के बारे ही लिखना आरंभ किया ! लगा -जैसे भारत का भूत उन के सर चढ़ गया था ? घर में सजा-वजा कर रखी …भारत से लाईन सौगातें …वह हर आगंतुक को दिखाते …और भारत के ही किस्से सुनाते ! लेकिन माँ का हाल अलग था ! उन्हें भारत से नफरत थी ….चिढ थी …और वह कार उठा कर सैर-सपाटे पर निकल जातीं . और जब देर रात लौटतीं …तो पिता जी की आँखें लाल-लाल जल रहीं होतीं ! और फिर दोनों …आमने-सामने …

“और …आप ….?’

“क्या बताऊँ, नरेन्द्र …? घायल हो कर रह जाती ! रोते-रोते …बिस्तर में न जाने कब सो जाती …?”

क्रिस्टी चुप थी. क्रिस्टी गंगा के विस्तारों में ही कुछ खोज रही थी .

“काश ! पिता जी भारत छोड़ कर ही न जाते ….?”क्रिस्टी ने एक लम्बी उच्छवास छोड़ी थी . “और लोगों के साथ मिल कर भारत में ही रहते …? साहब बन कर नहीं …उन के सहयोगी बन कर …” मैं तनिक हंसा था .

“दोष यही है …!!” मैने क्रिस्टी की आँखों में पलट कर देखा था .

“हाँ,हाँ ! दोष यही था ,अंग्रेजों का कि …वो इस देश के लोगों का आदर न कर पाए …? यहाँ की श्रेष्ठ संस्कृति को अपनाया नहीं ….? सब नष्ट करना चाहा ….? लोगों को गुलाम बना कर …….”

क्रिस्टी की आँखों को गीला होते देखा था – मैंने !!

“रोया मत करो,क्रिस्टी ….!” गुरु जी उसे फटकार रहे थे . “तुम निर्मोही हो …! तुम मंजू हो !! ये तुम्हारा पुनर्जन्म है, पगली ? अपने इस स्वर्ग को अपवित्र क्यों करती हो …?”

“भारत ….और इंग्लेंड …..?” क्रिस्टी गुरु जी को कुछ बताना चाहती थी .

“एक नहीं ….हो पाए ….?” गुरु जी हँसे थे . “प्रभू की माया है, पगली ! सब कुछ संस्कारों से ही मिलता है !” उन का अंतिम वचन था .

मुझे याद है – आज भी याद है ! गुरु जी कहते थे – सब कुछ पूर्व निर्धारित है,नरेन्द्र ! जो होगा – सो ही होगा !! तुम्हारा सर काटने वाला भी मज़बूर होता है …और फूल मालाएं पहनाने वाला …भी यह नहीं जानता कि वो क्यों ऐसा कर रहा है …?

अतः जो वो रचता है …वो तो होगा ही – मैं अब यह मान कर चलता हूँ !!

मुझे दिल्ली के लिए कूच करना है ! मुझे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करनी है ! ये मेरे लिए आदेश हैं ! प्रभु के यहाँ से आए आदेश हैं ! फिर मैं उस परमपिता प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन क्यों करूंगा …? मैं दिल्ली चलूँगा ….चलूँगा …अवश्य …चलूँगा !!

मुझे जीत के नगाड़े बजाने हैं ….!!!!

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

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