माँ का इशारा पा रमेश फ़िर उसी दो-कौड़ी के रूप में आ गया था। सुनीता अपनी अक्ल पर पछतावा करते हुए.. फ़िर सोच में डूब गई थी।” आप ने फ़िर बेवकूफ़ी करके उस आदमी को क्यों बचाया! हो गए न फ़िर से ड्रामे शुरू! अरे! दिल्ली भी बता देते और फ़िर मज़ा चाखवाते इसे!’

प्रहलाद ने एक बार फ़िर अपनी माँ को चिन्ता में घुला हुआ देखकर कहा था। पिता के ड्रामों ने अब पिता के लिये इस्तेमाल होने वाले शब्दों में नाटक को देखते हुए.. हेर-फेर कर दिया था। बच्चा अब आप और आपका से इसे और इसके पर आ गया था।

रात के थाने में हुए.. तूफानी कार्यक्रम के बाद सवेरे जब सुनीता नीचे रसोई में रोज़ के अपने कामों के लिये उतरी थी.. तो नज़ारा वही था.. रामलालजी बैठक में बीमार अपने तख्त पर लेटे हुए थे.. पर पत्नीजी ने पहले से ही पतिदेव के जम कर कान भर रखे थे।” बहुत बदतमीज़ हो तुम!”।

रामलालजी ने सुनीता के नीचे आते ही कहा था.. हालाँकि बहुत बीमार चल रहे थे.. रामलालजी.. पर पत्नी के आदेशों का पालन तो जैसे भगवान के आदेशों के पालन के बराबर था। अपनी तबियत को भूल कर रामलालजी ने अपनी बहू के साथ बहस शुरू कर दी थी।

“ आप अपने बेटे को तो देखिये!”।

सुनीता ने कहा था।

“ तुम कम बदतमीज़ हो!”।

ससुर और बहू की अभी बहस चल ही रही थी.. कि अचानक से बीच में ही मुकेशजी का दिल्ली से फ़ोन आ जाता है.. सुनीता तो पहले से ही गर्म हो रही थी.. फ़ोन आने पर और पिता की आवाज़ सुनने पर सुनीता मुकेशजी को सारा क़िस्सा बता देती है.. बस! अपनी आँख वाली बात छुपा जाती है.. और अपने माता-पिता दोनों को ही एकबार फ़िर सोने के कड़े और सेट के साथ की अंगूठी का चोरी होना बता देती है। मुकेशजी और अनिताजी ने सोने की चोरी पर कोई भी प्रतिक्रिया वयक्त नहीं करते हुए.. बस! मुकेशजी ने रामलालजी से बात करी थी। “ बहुत ही बदतमीज़ है! ये!”

रामलालजी ने फ़ोन हाथ में लेते ही मुकेशजी को सुना डाला था।

“ आपके ख़िलाफ़ मैं कोर्ट में केस कर दूँगा! अन्दर जाएगा पूरा परिवार!’।

मुकेशजी को अपनी बिटिया की ज़ुबानी सारी दास्ताँ सुनकर फ़ोन पर ही ग़ुस्सा आ गया था.. और वे  रामलालजी से बात करते वक्त अपना आपा पूरी तरह से खो बैठे थे.. भूल गए थे.. कि वो समधी से कर रहे हैं।

“ कर दो! कर दो! हम भी देख लेंगें!”।

रामलालजी ने बीमार होते हुए भी बुलंद आवाज़ में चिल्ला कर कहा था। और फ़िर मोबाइल फोन सुनीता के हाथ में दे दिया था। मुकेशजी का ग़ुस्सा अभी पूरे उबाल पर था.. शाँत नहीं हुआ था.. उन्होंने सुनीता को  फोन पर ही समझाते हुए कहा था..

“ चिन्ता मत करना बेटा! तू! हम बैठें हैं.. सब सालों को देख लेंगें.. अबकी बार पुलिस स्टेशन पहुँच कर मुझे भी फोन ज़रूर कर देना!”।

सुनीता ने पिता के कहे हुए शब्द समझ तो लिये थे.. पर बेचारी दुखी तो थी ही! अब क्या हो सकता था.. पीछे सुनीता के मायके को भी चिंताओं ने घेर लिया था.. मुकेशजी को भी उनके वयापार में घाटा आ गया था.. इतनी सारी परेशानियों के रहते सुनीता पीछे मायके दो बच्चों को लेकर जा नहीं सकती थी.. नाम के लिये ही सही अब करोड़पति परिवार की बहू तो थी ही.. तो नोकरी का भी चक्कर नहीं था.. और वैसे भी एक बार रमेश ने नोकरी को लेकर कहा भी था,” हम कोई भूखे-नंगे नहीं हैं! स्टेटस है.. हमारा! मुझे अपनी जगह-जगह बेइज़्ज़ती नहीं करवानी”।

अब रमेश की सोच तो खैर! थी, ही कमाल की! लड़की पूरे शहर में फर्राटे से घुमाए चल रहा था.. वो तो बड़ी इज़्ज़त का काम था। अब जो हुआ सो हुआ हो तो कुछ और सकता नहीं था.. मायके और ससुराल दोनों को देखते हुए..  एक बार फ़िर मुस्कुराकर सुनीता इसी रमेश के साथ आगे बढ़ गई थी.. अब रामलालजी के परिवार में बच्चों की परवरिश तो हो ही रही थी। दाल-रोटी का लालच आदमी को कमज़ोर बना देता है.. भूख चीज़ ही ऐसी होती है।

एक बार फ़िर वरुण के साथ मॉर्निंग वॉक पर अपना मूड बदलते हुए.. अपने बच्चों के साथ फ़िर से शुरुआत करी थी.. सुनीता ने।

“ अरे! हाँ! एक बार एक प्रीति भी तो पाली थी.. और सुनीता को अकेले में बैठकर प्रीती नाम सोचकर हँसी आ गई थी.. मन ही मन सुनीता बोल उठी थी.. वाह! री.. किस्मत!”।

अब ये नई प्रीति रानी कहाँ से आ गईं थीं.. पहले तो न बताया था.. सुनीता ने.. चलो! भई! अब जहाँ इतने किस्से सही.. एक प्रीति का क़िस्सा और सही। आइये आप और हम एक बार फ़िर मज़े लेते हैं.. खानदान में प्रीति के अनोखे किस्से का।