महान पुरुषों केपूर्वा पर की चर्चा !
भोर का तारा – नरेन्द्र मोदी ;
उपन्यास अंश :-
“मैं ‘मोदी’ की मिटटी से …’गाँधी’ को गहरे में दफना दूंगा ! आप देख लेना ,भाई जी कि …’मोदी-मंत्र’ जनता के सर चढ़ कर बोलेगा …और ये इन नकली ‘गांधियों’ को ध्वस्त कर देगा …!!”
“लेकिन,अमित ….?”
“हम तो झूठे नहीं हैं …? हम तो चोर नहीं हैं …? ‘मोदी’ तो हमारा है …? आदमी है -मोदी …असली हाड-मांस का बना है …जीता-जागता …जीवंत नेता है …जिस में अकूत जान है …श्रेष्ठ प्राण है …और सच्चे और अचूक इरादे हैं !” अमित हवा पर छा गया था . मैं चुप था . मैं उस से सहमत था . मैं अमित के विरोध में न था ….!!
“नाम ….? क्या धरा है , नाम में नरेन्द्र …? मैं अपने आप को मना रहा था !
लेकिन तभी गुरु जी का तेजपुंज चेहरा मेरी आँखों के सामने उदय हो गया था ! वह मुझे लाल-लाल लोचनों से घूर रहे थे . काशी का नाम काशी न रहा – ये हमारा दुर्भाग्य ही रहा,नरेन्द्र !” उन की आवाज़ चाली आ रही थी . “शायद तुम्हें ज्ञात ही न हो कि काशी … नगरी का क्या महत्व है ?” उन्होंने मुझे एक अज्ञानी बालक की तरह देखा था . “पूरे विश्व में ये एक ही नगरी है – जिस का जन्म धरती के जन्म के साथ हुआ …? शिव ने बसाया था -इसे ! काशी-विश्वनाथ ……?” वो कहीं गुम हो गए थे .
मुझे भी लगा था कि शिव आ कर हमारे बीच बैठ गए थे !
“वैदिक नगर था ये.पुत्र !” जैसे शिव स्वयं मुझे समझा रहे थे . “वेद ,पुराण और सारे उपनिषद यहीं से जन्मे हैं ! हमारी वैदिक संस्कृति का भी यहीं जन्म हुआ ! विश्व की सांस्कृतिक विरासत का एकमात्र केंद्र था -काशी !” वह बता रहे थे .
“मोक्ष मिलता था -काशी में ….?” मैंने पूछा था .
“हाँ ! यहाँ शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिष्य …मोक्ष को प्राप्त होते थे ! उन की शिक्षा सम्पूर्ण होती थी …..और ….”
गंगा तट पर बसा यह पुरातन शहर -काशी मुझे लुभाने लगा था !
“मुग़ल शाशकों ने इसे सब से ज्यादा बर्बाद किया !”गुरु जी मुझे बताने लगे थे . सच मानो ,नरेन्द्र कि …इन शाशकों को …ना जाने क्या आनंद आता था कि …काशी ज़रूर आते थे ….और लूट-पाट ….मार-धाड़ …के साथ-साथ …हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त करना …इन का शौक ही बन गया था ….?”
“क्यों ….?” मैं नाराज़ था .
“ना जानें क्यों,नरेन्द्र ! सब से पहले १९९४ में कुतुबुद्दीन ऐबक ने काशी को लूटा ….और हिन्दूओं और हिन्दू संस्कृति का विनाश किया था ! फिर १३७६ में तुगलक आया और उस ने भी अपनी भड़ांस खूब निकाली ! १४९६ में लोधी से भी न रहा गया …और वह भी काशी चला ही आया था ? इस के बाद औरंगजेब ने तो …पूरे देश में ही हिन्दूओं का जीना हराम कर दिया था …? इन आक्रमणकारीओं ने …हमारी सम्पूर्ण शिक्षा …व्यवस्था को समाप्त कर दिया था ! नालंदा को जलादिया था …सारनाथ को …..”
“किसी ने भी नहीं रोका ….इन्हें ……?” मैं ने …तनिक रोष में आ कर पूछा था .
गुरु जी चुप थे . कहीं खो गए थे . शायद कोई माकूल उत्तर ढूंढ रहे थे – मेरे लिए ! क्यों कि मेरे कोमल शिशु मन को वह कोई ठेस न पहुंचाना चाहते थे ! पर मैं समझ रहा था कि ….हम …..
“हम संगठित हो कब पाते हैं,नरेन्द्र ….?” गुरु जी की आवाज़ में एक टीस थी . “औरंगजेब के जाने के बाद …अंग्रेज आ गए ….! इन्होने अलग ही चालें चलीं ….? काशी के एक ज़मींदार – मंशा राम को …राजा बनाया …बहकाया …और बाद में पूरा प्रदेश हड़प लिया …?”
“फिर ….?”
“फिर इन की वही चाल सामने आई ! एनीबेसेंट ने पंडित मालवीय को बहका कर …बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी की …स्थापना करा दी ! उस का उद्देश्य था कि ..हिन्दू संस्कृति की शिक्षा-दीक्षा का अंत आ जाए ! ‘न रहेगा -बांस – न बजेगी बांसुरी !’ की कहावत चरितार्थ कर दी ! उस ने तो काशी का अंत ही ला दिया …? इसे ‘बनारस’ बना दिया और ….अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ कर दिया …ताकि अंग्रेज हमेशा-हमेशा के लिए शाशक बने रहें ….और हम उन के गुलाम !!”
मुझे गहरा आघात लगा था ….!!
हमारी सांस्कृतिक धरोहरों को …आक्रमणकारियों ने …बाहर से आ-आ कर तोडा …और हम उठे ही नहीं ….लड़े ही नहीं …?यह आखिर क्या था जो हमें लड़ने से रोकता रहा था ….?
“हम लड़ते तो थे,नरेन्द्र ! लेकिन अपनी-अपनी लड़ाईयां लड़ते थे …और हार जाते थे …? हमारे अपने ही सहोदर दुश्मन से मिल जाते थे …और हमें हरा देते थे …?” गुरु जी ने मुझे सच्चाई बता दी थी .
“चलते हो,काशी देखने ….?” क्रिस्टी ने मुझे पूछा था . “मुझे काशी-विश्वनाथ के दर्शन करने हैं ….!” वह बता रही थी .
मैंने मुड कर सामने खड़ी क्रिस्टी को एक मुसीबत मान कर घूरा था ! मुझे लगा कि – ये भी एक लुटेरे की बेटी थी -जो भारत को लूट कर लौट गया था ….इंग्लेंड ! और फिर मेरी आँखों के सामने …मुसलमानों के …आक्रमण करते काफिले …उठ खड़े हुए थे ! ना जाने क्यों – ये काशी-विश्वनाथ …फिर भी जिन्दा थे …? फिर भी ….ना जाने कैसे ..हम भारतीय आज भी जिन्दा थे ….?
“चलो ! साथ रहेगा ….!!” क्रिस्टी ने मुझे अपने साथ ले लिया था . मैं भी चाहने लगा था कि …कम-से-कम मैं …काशी की लुटी-पिटी काया को …देख तो लूँगा …? मैं देख तो लूँगा कि काशी को कहाँ=कहाँ घाव लगे थे ….और क्या वो आज भी रिस रहे थे ….? मैं देखूँगा कि ….”एक से दो भले ….?” कह कर क्रिस्टी हंस पड़ी थी .
हम दोनों अब मन बना कर चल पड़े थे ! हमारे पैरों में पर लग गए थे ! हम काशी-विश्वनाथ के दर्शनों के लिए भागे चले जा रहे थे ! हम उड़ान भर रहे थे …और कुछ अलौकिक पा लेना चाहते थे ….?
“ओए!ओए …!!” मुझे एक अध् -बूढ़े व्यक्ति ने ललकारा था .”ये …कौन है,ब्बे ….?” उस ने क्रिस्टी की ओर इशारा किया था .
मैं ठिठका था . फिर मैंने हिम्मत कर उस व्यक्ति का मुकाबला किया था . मैं उसे बताने लगा था कि ..क्रिस्टी …निर्मोही अखाड़े की अवधूत थी ….तपस्विनी थी ….और काशी-विश्वनाथ के दर्शन-लाभ के लिए जा रही थी !
“अब्बे ! तू काला ….और ये ….गोरी ….?” साथ का दूसरा व्यक्ति हमारी ओर झपटा था . “ज़रूर कोई दाल में काला है ….!!” उस ने घोषणा की थी .
क्रिस्टी ने मेरी बांह पकड़ी थी ….और …भाग ली थी !!
फिर हम सामान्य हुए थे और चल कर लौट आए थे ! हमारे दर्शन लाभ का चाव …’काले-गोर के भेद’ की भेंट चढ़ गया था ! आज भी लोग ‘काले-गोरे’ के मेल को अजूबा ही मानते थे ? तभी शायद …अंग्रेजों का हेल-मेल …भारतीयों के साथ न हो पाया होगा ….- मैंने सोचा था !
काशी का नाम भी बनारस हो गया था …और देश में हर शहर का नाम ही बदल गया था …? गांवों के नाम भी बदले थे …? हर धाम का नाम बदली था ….और …सब पर या तो मुसलमानों की छाप थी …या फिर ब्रिटिश की ? शिक्षा का स्थान अंग्रेजी प्रणाली ने ले लिया था …और अब …गुलाम पैदा हो रहे थे – धडाधड ! विचित्र बात थी …? हमारा देश था ….पर हमारा था नहीं …?
शायद अमित की बात ही सच थी …..?
पूरा देश एक नाम के नीचे दबा खड़ा था …झुका खड़ा था …विनम्र हुआ खड़ा था …और पूर्ण समर्पण के मूड में था …? चमत्कार ही हुआ था कि …’गाँधी’ के नाम को चुरा कर …नकली लोग शाशक बन कर हमारे सरों पर बैठे थे …और अब पूरा देश उन की भक्ति करने में जुटा था ….?
पहले इस ‘नाम’ के काम को करेंगे – मैं सोच रहा था ! भारत को भारत कह कर तो बुलाएं ….मैं स्वयं को कह रहा था ! अपनी जन्म-भूमि के …मुंह पर पड़ी मिटटी को …तो हटाएं …उसे जिलाएँ तो ….?
“अमित …!” मैं एक लम्बे अंतराल के बाद बोला था . “म …म …मैं चाहता हूँ कि ….काशी …से …अगर चुनाव ….लडूं ….तो ….?”
“बनता है, आप का ….भाई जी …!” अमित का उत्तर था . “काशी हमारा तीर्थ है …और उस का उद्धार भी आवश्यक है ….? ” अमित ने बात को सिरे चढा दिया था .
मैं प्रसन्न हो उठा था ! ‘मैं आ रहा हूँ,गुरु जी !’ लगा था – मैं जोर-जोर से पुकार रहा था .’मैं आ रहा हूँ ….मैं …उद्धार करूंगा ….मैं लडूंगा ….मैं जीतूंगा ….और आप देख लेना …कि मैं …इन आताताइयों को ….”
तभी एक बार फिर मेरे दिल्ली जाने का इरादा पक्का हो गया था !
और आज ही मैंने सोच लिया था कि …चुनाव मैं लडूंगा …और वो भी काशी से ही लडूंगा ….बनारस को मैं ही संभालूँगा …काशी-विश्वनाथ को …शिव की नगरी को ….हिन्दूओं के इस परम तीर्थ को …१६ महाजनपदों में से प्रथम …और …श्रेष्ठ काशी का …कायाकल्प मैं करूंगा !!
चुनाव तो मैं उसी दिन जीत गया था …..!!
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!