“मैं चाहता हूँ कि एक ऐसा प्रपंच तैयार करूं कि आदमी के सभी पालतू हुए जानवर, परिंदे और दरिंदे हमारे साथ मिल जाएं।”

काग भुषंड ने एक पते की बात की थी और हवा में कबूतरों की तरह छोड़ दी थी।

लेकिन जमा सभी पदाधिकारियों की समझ में कुछ भी नहीं आया था। लगा था काग भुषंड उन सभी को गुमराह कर रहा था। शायद उसका इरादा तो कुछ और ही था।

“चूंकि आदमी हमारी भाषा नहीं समझ सकता लेकिन हम उसकी हर बात सुन समझ सकते हैं – हमें इस बड़ी बात को एक कारगर हथियार की तरह इस्तेमाल करना होगा।” काग भुषंड ने एक ओर नई जुज अपनी पुरानी रण नीति में जोड़ी थी। “सभी पालतू जानवर, परिंदे और दरिंदे अगर हमारे साथ मिल जाएं तो फतह हमारी हुई मानी जाए।” काग भुषंड ने एक छोटी उड़ान भरी थी और वह हुल्लड़ की कमर पर जा बैठा था। हुल्लड़ को बहुत अच्छा लगा था।

चुन्नी दरक गई थी। काग भुषंड का हुल्लड़ की कमर पर जा बैठना उसे बुरा लगा था। उसे लगा था जैसे काग भुषंड अपनी गोटें तैयार कर रहा था ओर किसी गहरी साजिश को जन्म दे रहा था।

“गधा हमारे किस काम का?” चुन्नी ने मुंह बिचका कर पूछा था। “जो है ही गधा वह फिर हमारे किस काम का?”

समर सभा में एक ठहाका लगा था। जो लोग काग भुषंड के विरोध में थे वो खूब हंसे थे ओर जो समर्थन में थे वो भी हंस पड़े थे। चुन्नी की बात एक चुहल की तरह हर जबान पर जा चढ़ी थी। गधा तो गधा ही था।

“तिरस्कार नहीं।” हंसी ठहाका शांत होते ही मणि धर ने फुफकार कर कहा था। “अपने किसी भी साथी – सहयोगी का तिरस्कार हमें ले डूबेगा मित्रों।” मणि धर ने चेतावनी दी थी। “हमारे शासित साम्राज्य में गधे को भी उसका उचित मूल्य मिलेगा।” मणि धर ने पृथ्वी राज को एक टक घूरा था। “जो मांगता नहीं इसका मतलब ये नहीं कि उसे मिलना नहीं चाहिये।” मणि धर ने एक ऐलान जैसा किया था।

एक नया सोच सामने आया था। हर किसी को गधे का मूल्य भी समझ में आया था। चुन्नी तनिक सिकुड़ कर रह गई थी।

“मणि धर का आदेश क्या है?” पृथ्वी राज ने बात का रुख मोड़ दिया था। वह चाहता था कि गरुणाचार्य ही काग भुषंड की तरकीब पर कोई टिप्पणी करे। बात की तह तक जाना उसे जरूरी लगा था। “आचार्य क्या आप मानते हैं कि इन पालतू जानवरों को साथ लेना उचित रहेगा?” उसने अपना प्रश्न सभा के सामने रख दिया था।

अब गरुणाचार्य की समाधि टूटी थी। वह तो किसी गहरे चिंतन में डूबे थे। सामने आई इस विकट स्थिति से निपटने के लिए उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से भविष्य में झांक कर देखा था।

“भविष्य का सोच सही है।” गरुणाचार्य का गुरु गंभीर स्वर समर सभा के बीच गूंजा था। “हमें छोटे बड़े सभी का सम्मान करना होगा!” उन्होंने आंख उठा कर भरी सभा को देखा था। “गधा कोई गाली नहीं है और शेर कोई सम्मान नहीं है। जबकि हाथी होना भी कुछ होना नहीं है।” गरुणाचार्य ने अब सभी को एक साथ घूरा था।

गरुणाचार्य की बात सभी जमा पदाधिकारियों के बहुत ऊपर से निकल गई थी। उनका ये गूढ़ दर्शन चुन्नी की अक्ल से परे की बात थी। और जो कुछ समझ पाए थे वो भन्ना उठे थे।

न गधा गधा है और न शेर शेर है। और फिर हाथी भी कुछ नहीं है – ये बात किसी के भी गले नहीं उतर रही थी।

“क्यों हाथी होना कुछ होना नहीं है, मुनिवर?” हुल्लड़ ने सूंड़ तान कर पूछा था। “आप को मेरी बल बुद्धि का ज्ञान नहीं है क्या?” वह गर्जा था। “यह तो हम हाथियों का अपमान है!” उसने कमर पर बैठे काग भुषंड को पूंछ से सहला दिया था!

पृथ्वी राज को अपनी गलती का एहसास हुआ था। तेजी ने उसे कड़ी निगाहों से घूरा था। अब नकुल की निगाहें भी नीची थीं। लालू ने जंगलाधीश के तन आए तेवरों को देख लिया था। गरुणाचार्य की मूर्खता पर लालू को रोष आया था। जबकि शशांक ने अपने छोटे बदन को और भी छोटा कर गायब सा कर दिया था।

“क्यों शेर होना कोई सम्मान नहीं है आचार्य?” जंगलाधीश के घरघराते कंठ स्वर हर किसी का कलेजा कंपा गये थे। “ये क्या मूर्खता पूर्ण बातें आप कह रहे हैं।” अब उसने पूरी सभा को घूरा था। “क्या है ये काग भुषंड?” जंगलाधीश ने हुल्लड़ की कमर पर बैठे काग भुषंड को घूरा था। “कभी गधा पहलवान तो कभी कौवा महान!” जंगलाधीश ने जुमला कहा था। “क्या अर्थ है इन सब बेतुकी बातों का?” अब उसने पृथ्वी राज की ओर दृष्टि घुमाई थी।

पृथ्वी राज को काटो तो खून नहीं। उसे लगा था जंगलाधीश अब अवश्य ही पंजा चलाएगा और उसका अंत ला देगा! उसने अपने आस पास को देखा था। उसे जरासंध भी कहीं आस पास नजर नहीं आया था। उसे नकुल की नालायकी पर एक बारगी क्षोभ हो आया था। नकुल ने बताने के बाद भी जरासंध को नहीं बुलाया था। बेवकूफ – उसने स्वयं से कहा था।

“सब भगवान के बनाए जीव धारी हैं!” गरुणाचार्य की आवाज गूंजी थी। उस आवाज में एक दिव्य संदेश सा कुछ था। “जीवन अंश सभी में बराबर है।” गरुणाचार्य ने बात का खुलासा किया था। “काया और कल्प ही भिन्न है – बस!” उन्होंने अब एक मधुर मुसकान ठंडी मनुहारों की तरह छोड़ी थी। “इस रहस्य को क्रोध से नहीं समझा जा सकता और न लोभ से और न ही मद से और यहां तक कि बुद्धि से भी यह पकड़ में नहीं आता।”

“फिर पकड़ा कहां जाता है?” काग भुषंड ने चुहल की थी।

“इसे दिव्य दृष्टि से देखा जाता है। तब आत्मा और परमात्मा दोनों एक साथ दिखाई दे जाते हैं।”

“आप ने तो देखा होगा?” हुल्लड़ ने व्यंग किया था।

“हॉं हॉं!” गरुणाचार्य ने हामी भरी थी। “सभी जीव अंश बराबर हैं बंधु!”

“तो सब बराबर काम करें?” काग भुषंड ने शर्त रख दी थी।

“फिर तो मोर्चे पर पृथ्वी राज ही जाये – हम क्यों जाकर जान दें?” जंगलाधीश ने भी रंग लेते हुए कहा था।

हंसी का एक ठहाका उठा था और चक्र वात की तरह हवा पर छा गया था। बहुत देर तक हो हो – हा हा का शोर उठता ही रहा था।

पृथ्वी राज का मन हुआ था कि वह बिल में कहीं भीतर जा घुसे और फिर कभी भी बाहर ना निकले!

तेजी को डर लग रहा था कि पृथ्वी राज के स्थान पर कहीं उसे ही आज बैठना न पड़ जाए! गरुणाचार्य की मूर्खता पूर्ण बातों से सारा गुड़ गोबर हो गया था। पृथ्वी राज को क्या जरूरत थी कि उस गरुणाचार्य को इतना मूंह लगाता?

नकुल आज ही महामंत्री पद से त्याग पत्र देकर चला जाना चाहता था। लालू उसे अपने खेमे में जरूर शामिल कर लेगा – उसे अपने ऊपर भरोसा था। शेरों के साथ होना ही कुछ होना है। चूहों के साथ रहकर तो जग हंसाई कराना कौन सी बुद्धिमानी थी। वह सोचे जा रहा था।

मणि धर को महसूस हुआ था कि यह सही समय था जब उसे अपने पद की गरिमा बनाए रखनी थी। वह राष्ट्राध्यक्ष था। वह एक जिम्मेदार था। वह कैसे मान लेता कि शेर बघेर और हाथी मिल कर सब पर हावी हो जाएं! अब उसने लालू की ओर देखा था। शशांक का इशारा भी वह समझ गया था।

“अभी मोर्चा फतह कहां हुआ है मित्रों?” मणि धर ने फुफकार कर पूछा था। “और न ही आप लोगों को कहा गया है कि आप जाकर मोर्चा संभालें।” मणि धर की आवाज गूंजी थी। “और हॉं! मैं यह दावे के साथ कहता हूँ कि अगर मोर्चों पर जरूरत पड़ी तो पृथ्वी राज भी दो दो हाथ करेगा – अवश्य।” मणि धर ने ऐलान किया था।

पृथ्वी राज की जय! पृथ्वी राज जिंदा बाद!! नारे हवा में गूंजने लगे थे।

समाजवाद का प्रतीक पृथ्वी राज फिर से जिंदा हो गया था।

मेजर कृपाल वर्मा

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