महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा .

भोर का तारा -नरेन्द्र मोदी .

उपन्यास अंश :-

दादा जी का चेहरा एक बार तन आया था . मेरा किया मज़ाक उन्हें अच्छा न लगा था ! मैंने भी महसूस था कि शायद …मुझे दादा जी से इस तरह के प्रश्न नहीं करने चाहिए थे ? वो सच्चे देश-भक्त थे . सच्चे देश-प्रेमी थे ! मैं चाहता था की उन से क्षमा मांग लूं ?

“दादा जी ….मेरा मतलब ….था ! मुझे …..”

“मेरा मन था , नरेन्द्र कि में …दौड़ कर …सुभाष बाबू से जा मिलूँ ….! मेरा मन था ,नरेन्द्र कि मैं …भागूं …और जा कर सुभाष बाबू के चरण पकड़ लूं ….उन का आभार व्यक्त करू …और उन से प्रार्थना करू कि …एक भी अंग्रेज बच्चा जिन्दा न बचे ….और चुन-चुन कर मारा जाए इन विशासघातियों को …! ऐसा सबक दिया जाए इन्हें ….जो भविष्य …में भी …ये औरों के साथ ….

“इतने खुश मात होइए ,दादा जी !” बाबू मित्र इशारे से दादा जी को कुछ समझा रहे थे . मेरे भी कान खड़े हो गए थे . “ये जापानियों की चाल थी .” उस ने कहा था . “सुभाष बाबू के नाम पर जापान भारत को पदाक्रांत करने की योजना बना चुका था ! सुभाष बाबू के पास था क्या …? तोपखाना तो जापानियों का ही था ? उन के पास तो छोटी-मोटी बंदूकें ही थीं, बस ! बाकी तो सब जापान का ही था !” वह हाथ नचा-नचा कर बता रहा था .

सच मानीए मुझे वो आदमी – बाबू मित्र पक्का चोर और एक जानी दुश्मन लगा था . मैं तो उस का खून कर देना चाहता था . मुझे तो वो अंग्रेजों का मुख्व्विर लगा था जो अफवाहें फैला रहा था .

“तुम कैसे जानते हो ….?” अब की बार प्रश्न मैंने किया था . “सुभाष बाबू तो पक्के देश-भक्त थे …!” मैंने दलील दी थी .

“जापानी तो जापानी हैं ! वो भारत जैसी …मोटी मछली को कैसे छोड़ देते ? और सुभाष बाबू के पास था क्या उन्हें देने को ….?”

“देश तो अपना था ….सुभाष बाबू का था ….?”

“देश अभी भी अंग्रेजों का था ! उन्हीं के नीचे था . और उन्हें भी चिंता थी कि जापानियों को कैसे रोकें ….?”

“नहीं रोक पाए थे , जी !” मैंने उस आदमी को जैसे ठेंगा दिखाया था . “अंग्रेज तो भाग रहे थे ….डर गए थे ….जा रहे थे ….” मैं हंस रहा था ….खिलक रहा था .

दादा जी मुझे अपलक घूरे जा रहे थे . वो प्रसन्न थे . उन्हें मेरा किया प्रतिरोध अच्छा लगा था .

“फरवरी १९४४ चल रहा था .”बाबू मित्र फिर से बताने लगा था . “मैं झूठ नहीं बोलता ,दादा जी …..जापानी हार रहे थे ….! और अमेरिका …..”

“लेकिन अंग्रेजों के साथ अब कोई नहीं था ! न में …..और न तुम ….?” दादा जी ने तुरप लगाई थी . “मित्र ! अंग्रेज भारत का विश्वाश खो बैठे थे . ” दादा जी का कहा ये अंतिम सत्य था .

मुझे बहुत अच्छा लगा था . में तो दादा जी की तरह ही चाह रहा था कि …हम चलें और सुभाष बाबू से तुरंत ही मिल लें ! में तो चाह रहा था कि …मैं भी एक अन्दूक ले लूं …और धाय -धाय अंग्रेजों को मार डालूँ ! पर था तो यह सब विगत ….? बातें हो रही थीं. था तो एक सोच ही …?

“सोच चल रहा है ! पर दादा जी अंग्रेजों को कम मत तोलो …..! ये काईयाँ …हैं …! अव्वल नम्बर के चार-सौ-बीस हैं ! देख लेना ये भारत नहीं छोड़ेंगे ….? देख लेना -युद्ध जीतेंगे ….और फिर कभी भी भारत न छोड़ेंगे …!” भविष्य वाणियाँ हो रही थीं,नरेन्द्र !

मैंने अपने इस सोच को जूते मार कर भगाया था !” दादा जी मुझे फिर से बताने लगे थे . “सुभाष एक महान नेता था – मेरे लिए . सन१८९७ में जन्मा सुभाष … एक ऐसा नवयुवक था …जिस की सारे भारत में ख्याति थी . सुभाष शुरू से ही बिस्मार्क से प्रभावित था . वह कहता था – इतिहास उठा कर देख लो ! कभी भी बहस द्वारा कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आता ! ये अनशन और …सविनय आन्दोलन …एक नैतिक अभियान को खड़ा कर सकते हैं ….पर सत्ता परिवर्तन नहीं ! उस के लिए एक मात्र युद्ध ही विकल्प है ! अंग्रेजों ने बर्बरता की पराकाष्ठा ला दी है ….अब तो ईंट का ज़बाब पत्थर ही है !!”

मेरे लिहाज़ से सुभाष बाबू ही सच्चे थे , नरेन्द्र !

“मैं होता तो …उन के चरणों का दास बन जाता, दादा जी !” मैंने गंभीरता पूर्वक कहा था . “मैं होता तो ….”

“होता कब है, नरेन्द्र !” दादा जी स्वांस छोड़ कर बोले थे . “वक्त ही वलवान होता है, बेटे !” उन की आवाज़ कुंद हो आई थी . “कितना इंतज़ार था मुझे कि …सुभाष बाबू की आज़ाद हिन्द फ़ौज आए…कलकत्ता पर आक्रमण करे…गोले वर्शाए इन गोरों के सरों पर …मौत के घाट उतारदे…इन आताताईयों को ….और देश को स्वतंत्रता देदे …..”

“पर दे नहीं पाए ….?” मैंने पूछा था .

“सुभाष बाबू ने गाँधी जी से वायदा किया था कि मैं …धुरी -राष्ट्रों से मिल कर …युद्ध जीतूंगा …और एक स्वतंत्र भारत …आप को भेंट करूंगा !” दादा जी बताने लगे थे . “लेकिन लोगों ने इसे एक गढ़ा झूठ बता कर हवा में उड़ा दिया था ! लोग सुभाष बाबू को ‘हिन्दुस्तानी हिटलर’ की उपाधि देने लगे थे ! लोग कहने लगे थे कि सुभाष बाबू …आज़ाद हिन्द फ़ौज बना कर …खुद ही …राष्ट्रपति…प्रधान मंत्री ….और मुख्या सेना नायक बन बैठे थे ! इस से साफ़ ज़ाहिर था कि ….उन का इरादा हिटलर की तरह ही …राज-पाठ करने का था !”

“अंग्रेजों का हाथ होगा , उन्हें बदनाम करने में …?” मैंने पूछा था .

“अंग्रेज तो अब अपने बचाव में लगे थे ! वो देश को बता रहे थे कि …उन का हिटलर से युद्ध …मानवता की रक्षा , लोकतंत्र …और जन-तंत्र की स्थापना के निमित्त था ! वो नहीं चाहते थे कि हिटलर …जैसा तानाशाह …संसार को तबाहो-बर्बाद के दे ! हिटलर को बदनाम करने में वो सफल हो चुके थे ! अब सुभाष की बारी थी !!”

“क्यों …?” मैंने दादा जी से प्रतिप्रश्न पूछा था . मैं न जाने क्यों सुभाष बाबू के बारे सब कुछ जान लेना चाहता था ? मैं चाहता था कि सुभाष जैसा ही पुरुषार्थ में भी हासिल करू.

“इसलिए नरेन्द्र कि अब अंग्रेज सुभाष को ही अपना घोर शत्रु मानने लगे थे . उन्हें पता चल गया था की …आज़ाद हिन्द फ़ौज,सरकार तथा उन का मुख्यालय रंगून में आ गया था …जब कि ..उन का बेस अभी भी सिंगापूर में था ! आज़ाद हिन्द फ़ौज और सरकार ने समवेत स्वर में जयघोष किया था – दिल्ली चलो !!”

“मतलव कि …वर्मा के रास्ते …कलकत्ता होते हुए ….दिल्ली ….?”

“हाँ ! सम्पूर्ण भारत को समग्र रूप से लेना …और एक राष्ट्र की स्थापना करना …सुभाष बाबू का मुद्दा था ! उन का मुद्दा था – एक राष्ट्र …एक भारत ….और उन का ऐलान था -एक शत्रु -इंग्लेंड ! उन का उद्देश्य भी एक ही था -स्वाधीनता !” दादा जी रुके थे . उन्होंने मुझे आँखें भर कर देखा था . लगा था -वो अपने सुभाष को अभी भी तलाश रहे थे !

“आप को सुभाष बाबू बहुत अच्छे लगते थे …?” मैंने अबोध प्रश्न पूछा था .

“हाँ ,नरेन्द्र ! इस का कारन था . सुभाष जैसा देश-भक्त कभी कालांतर में ही पैदा होता है ? ‘जननी जन्मभूमि …स्वर्गादपि गरीयसी ….’ का मंत्र सुभाष बाबू के ह्रदय में हर वक्त गूंजता ही रहता था . उन का अनूठा आग्रह था कि , ‘मैं अपनी जन्म – भूमि के पुनह पैर छू सकूं ! उन की मांटी को मांथे लगा सकूं !’ उन का प्रचार-प्रसार जापान रेडियो के द्वारा ज़ारी था . वह कहते थे – भारत भारतीयों के लिए है …अंग्रेजों के लिए नहीं ! ब्रितानी सरकार का ये कथन असत्य है कि जापान भारत पर कब्ज़ा करना चाहता है ! जापान और आज़ाद हिन्द फ़ौज के बीच समझौता हुआ है – कि भारत की जो भी भूमि जीती जाएगी …वहां जापानी सैनिक न तो लूट-पाट करेंगे और न ही …बलात्कार करेंगे ! और यह जीता हुआ प्रदेश समग्र रूप से आज़ाद हिन्द सरकार और सेना के अधीन होगा ….”

“यह सब कहना क्या ज़रूरी था , दादा जी …? देश तो हमारा था …फिर हमीं …..?”

“बड़े ही संकट का समय था ये ,नरेन्द्र !”दादा जी की आवाज़ सतर्क थी . “गाँधी भी अब हलके पड़ने लगे थे . उन का सत्याग्रह और अहिंसा …अब झूठे पड़ते दिखाई देने लगे थे ! अंग्रेज नई-नई चालें खेल रहे थे . निश्चित था कि अंग्रेज युद्ध जीतने की हालत में भारत को नहीं छोड़ेंगे ! अब अगर कोई आशा-किरण थी तो वो …सुभाष ही थे !!”

“सुभाष …..?”

“भूली याद की तरह -नेता जी सुभाष चन्द्र बोस …फिर से जनता के मन में …उजागर हो गए थे …! उन का दिया नारा ,’तुम मुझे खून दो ….मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा ‘ फिर से जिन्दा हो गया था . फिर से लोग दीवानों की तरह ‘जयहिंद’ के नारे लगाने लगे थे . इस नारे में अजब आकर्षण था , नरेन्द्र !”

“कैसे,दादा जी …..?”

“सब कुछ न जाने कैसे …उस ‘जयहिंद’ के नारे में अन्तर्निहित होता लगा था …! लोग इस नारे के नाम पर अपने व्यक्तिगत भेद-भाव भूल गए थे ! विविध धर्म …और अनेकानेक देवी-देवता …इस अकेले नारे के सामने निरस्त हो गए थे ! सुभाष फिर से जन-मानस के दिल-दिमाग पर छा गए थे ! लोग पलक-पांवड़े बिछा सुभाष का दिल्ली पहुँचाने का इंतज़ार करने लगे थे ! प्रार्थना करने लगे थे ….और ….”

“बाकी सब लोग कहाँ थे, दादा जी …..?”

“सब अपने-अपने राग में जुटे थे . सब का एक ही उद्देश्य था कि किसी तरह अब अंग्रेज भारत छोड़ें …और देश को आज़ादी मिले ! जवाहर लाल नेहरू ने पुरजोर शब्दों में कहा था – ब्रिटिश साम्राज्य का पतन होना …आज के ऐतिहासिक सन्दर्भों में भी ज़रूरी है !” दादा जी रुके थे . फिर उन्होंने कुछ सोच कर कहा था . “हाँ,नरेन्द्र ! यह एक अवधारणा बन गई थी कि … ब्रिटिश साम्राज्य के परास्त हुए बिना भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता …! यदि किसी हाल में भी …ब्रिटेन और उस के सहयोगी राष्ट्र …युद्ध जीते …तो भारत को हमेशा-हमेशा के लिए …उन का गुलाम रहना होगा !!” दादा जी चुप थे .

“फिर क्या हुआ ,दादा जी ….?”

“फिर यही ,नरेन्द्र कि …देश के लोगों ने ही अब निर्णय करना था …कि वो क्या चाहते थे ….? वो क्या चाहते थे – युद्ध …या कि अहिंसात्मक आन्दोलन ….? गाँधी जी की आवाज़ तो हर किसी को डूब गई लगी थी . युद्ध….और युद्ध के सिवा ….लोगों को और कुछ सूझ ही न रहा था ! अच्छा लग रहा था कि जापानी तोपों की आवाजें कलकत्ता में भी सुनाई दे रहीं थीं ! अंग्रेजी पिट्ठू …अब कलकत्ता छोड़ कर जाने लगे थे ….”

“और आप ….?” मैं फिर से शरारती स्वर में पूछ रहा था .

“सच बताऊँ,नरेन्द्र …..?” दादा जी मुस्कराए थे .

“सच-सच ही कहना ,दादा जी …..!!” मैं भी मुस्कराया था .

“मैं ही क्यों ,नरेन्द्र ! ….पूरा देश ही आँखें बिछाए बैठा था कि …सुभाष बाबू आएं …और दिल्ली के लाल किले पर अपनी आज़ाद हिंद सरकार का झंडा फहराएं …और हम सब ‘जयहिंद’ के नारे लगाएं ….और ‘जयभारत’ की अवगूंज से …हवा भी काँप उठे …..!!

‘जैहिंद’ के नारे लगाता ही चला गया ….., के गीत फिर से बजने लगे थे …..!!

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

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