“जहांपनाह!” तारदी बेग ने कांपती उंगलियों से अकबर को पत्र लिखना आरम्भ किया था। “हेमू माने कि सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ने तूफान की तरह चढ़ाई कर दी है। काली आंधी की तरह अंधाधुंध वेग से आक्रमण कर उसने बयाना, इटावा, संभल और बंगाल फतह कर लिए हैं। कालपी को आदिल शाह को दे दिया है और हमारे सेनापति और सिपाही आगरा से भाग कर दिल्ली आ गये हैं। अब कभी भी वह दिल्ली पर कहर ढाएगा और ..!

सुलतान सुनने में आ रहा है कि सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ने एक विशाल सेना का गठन कर लिया है। सेना में राजपूत, जाट, गूजर, तुर्क, पठान ओर अफगान सभी शामिल हैं। उसके पास अपार धन के अंबार हैं। उसके पास चुनिंदा हाथियों का दल है, धनुर्धर रिसाला है, तोपखाना है और .. और ..

मेरा मन कांप रहा है, हाथ कांप रहे हैं और .. और हमारी हार होगी अगर आपने रसद राशन न भेजा! हम अकाल के मारे हैं जबकि सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के पास ..

हमसे मोर्चा नहीं संभलेगा सम्राट!”

“क्या करें?” अकबर ने बैरम खां से पूछा था। “भेजते हैं मदद?”

“नहीं!” बैरम खां दो टूक नाट गया था। “आप जानते हैं कि सिकंदर शाह सूरी को भनक भी लगी तो वह कब्र से भी उठ कर आक्रमण कर देगा। हम दिल्ली चले गये तो फिर शायद ही ..” बैरम खां ने चौदह साल के सम्राट अकबर को सीख दी थी। “हम यहां कलानौर में ही सुरक्षित हैं।” कुछ सोच कर बैरम खां फिर बोला था। “सेनापति मीर मोहम्मद शेरवानी को उसकी टुकड़ी के साथ दिल्ली भेज देते हैं। वह अनुभवी है और ..”

“ठीक है!” अकबर ने सलाह मान ली थी।

तारदी बेग और मीर मोहम्मद शेरवानी ने मिल कर अपने पूरे अनुभव के आधार पर सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के मुकाबले के लिए व्यूह रचना की थी।

आसपास के सारे मुगल शासकों को बुला लिया था। दिल्ली आगरा की सारी सेना को एकजुट कर तुगलकाबाद पर बेहतर मोर्चा बनाया गया था।

अग्रिम मुठभेड़ के लिए सेनापति अब्दुल्ला उजबेग को चुना गया था तो दाहिने पक्ष को हैदर मोहम्मद संभाल रहे थे। उसकर बेग को बायाँ पक्ष मिला था और स्वयं तारदी बेग मध्य में रह कर युद्ध संचालन कर रहे थे। तुर्की घोड़ों की मुख्य टुकड़ी के साथ मिर मोहम्मद शेरवानी थे जिन्होंने सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य की मुख्य आक्रमणकारी सेना को गुमराह कर अगवानी पर आई सेना से अलग कर देना था। उसके बाद तो उनकी फतह निश्चित थी।

पांच अक्तूबर 1556 सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य मुकाबले के लिए तुगलकाबाद की ओर चल पड़े थे। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य की सेना में एक हजार हाथी, पचास हजार रिसाला, 51 तोपें और 500 धनुर्धर थे। सम्राट ने अपने सेनापति मुबारक खान और बहादुर खान को रिसाले को दो भागों में बांट कर दो तरफ से आक्रमण करना था और स्वयं अपने रणबांकुरे तीन सौ हाथियों और पचास हजार सैनिकों के साथ सेना के गर्भ में गुप्त हो गये थे। राय हुसैन जलवान को दुश्मन को गुमराह करने की जिम्मेदारी दी गई थी।

6 अक्तूबर 1556 के दिन दोनों सेनाओं की जबरदस्त मुठभेड़ हुई थी। तुगलकाबाद का आसपास दहला उठा था।

मीर मोहम्मद शेरवानी को बड़ी सफलता मिली थी। उसने सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य की सेना को पीछे खदेड़ना आरंभ किया था और फिर अब्दुल्ला उजबेग ने जब दाहिने से आक्रमण किया था तो सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य की सेना सकते में आ गई थी। फिर क्या था – मीर मोहम्मद शेरवानी और अब्दुल्ला उजबेग ने कहर बरपाया था और तीन हजार सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। लुटती पिटती सम्राट की सेना को मुगलों ने आदतन लूटना आरंभ कर दिया था। आदतानुसार मुगल सैनिकों ने लड़ाई छोड़ लूटपाट आरंभ कर दी थी। खूब हाथी लूटे थे और घोड़े इकट्ठे किए थे।

और तभी सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ने आक्रमण किया था – तारदी बेग पर और उस उठे तूफान के सामने कोई भी टिक नहीं पाया था। तारदी बेग सर पर पैर रख कर भागा था तो मुगल सैनिक भी भाग चले थे और जब मीर मोहम्मद शेरवानी लौटा था तो दृश्य ही बदल गया था। वह भी भाग लिया था और फिर तो मुगल सेना का अता पता तक न था।

सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ने भागती मुगल सेना का पीछा न किया था।

जहां सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का मुख्य सेनापति राय हुसैन जलवानी अपने सैनिकों सहित युद्ध में मारा गया था वहीं बैरम खां ने युद्ध हार कर लौटे तारदी बेग का सर कलम कर दिया था।

यह शहंशाह अकबर और सेनापति बैरम खान की निराशा का एक जीता जागता प्रमाण था। उन्हें अब काबुल भागने की तैयारी करनी थी। कलानौर और जलंधर में रहना अब मुमकिन न था।

7 अक्तूबर 1556 को हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की घोषणा के साथ साथ राज्याभिषेक का ऐलान भी हो गया था।

राज्याभिषेक का उत्सव पुराने किले में संपन्न होना था। सारी तैयारियां पहले से ही मुकम्मल हो चुकी थीं। काशी से पंडित प्रेमाचार्य दिल्ली पहुंच गये थे। उन्हें आमंत्रित किया गया था राज्याभिषेक को पूर्ण वैदिक रीति रिवाज के साथ संपन्न कराने के लिए। इनके साथ काशी के विद्वान और अन्य सम्माननीय सज्जन भी पधारे थे।

राज्याभिषेक का उत्सव दिल्ली के लिए सदियों के बाद आया एक अनूठा अवसर था जब भारतवर्ष के हर कोने से लोग चलकर पहुंचे थे और अपनी आंखों से इस उत्सव को देखना चाहते थे। आम लोगों के अलावा खास लोग भी पधारे थे। धनी-मानी लोग आए थे। राजे रजवाड़े पहुंचे थे और हिन्दू मुसलमानों के अलावा पुर्तगालियों का जत्था भी दिल्ली पहुंचा था।

विजय नगर साम्राज्य की ओर से एक विशेष दल दिल्ली आया था।

दिल्ली में दूर दूर तक खेमे लगा लगा कर लोग एक सप्ताह तक चलने वाले राज्याभिषेक उत्सव को देखने आ जमे थे। एक नई उमंग और नए अरमानों के साथ ये लोग दिल्ली पहुंचे थे और अब टटोल टटोल कर उस दिल्ली की जांच पड़ताल कर रहे थे जहां मुसलमानों की पांच सल्तनतें लगातार शासन करती रही थीं।

लोगों को आश्चर्य हुआ था ये देख कर कि दिल्ली में आए आक्रमणकारियों ने चप्पे चप्पे पर अपनी मोहर लगा दी थी। कहीं मस्जिदें थीं, कहीं मजार था, कहीं ईदगाह था तो कहीं कब्रिस्तान था। झाड़ियों के भीतर झांकने पर भी कोई न कोई बावली या गुंबज दिखाई दे जाता था। कहीं भी किसी मंदिर या देवालय के दर्शन दुर्लभ थे।

“हम हिन्दुओं की पीठ पर हमारे ही खून से गुलाम लिख कर इन हमलावरों ने हमारा देश अपने नाम लिख लिया है।” एक ऐसी सच्चाई थी जो हिन्दू राष्ट्र के उत्सव में शामिल होने आए भारतीयों को लिखी मिली थी।

कादिर को राज्याभिषेक में आने का निमंत्रण नहीं मिला था। अशरफ बुआ को केसर ने अलग से बुलाया था। लेकिन कादिर दिल्ली आया था और उसने यमुना नदी के किनारे पेड़ों के घने झुरमुट में अपने खेमे लगाए थे। नदी पर दो नावें भी तैयार थीं। केसर को कादिर भूला कब था।

राज्याभिषेक के लिए पूरे भारतवर्ष की नदियों का जल, फल फूल, मेवे और सौगातें आई थीं। हर कोई बिसात के अनुसार भेंट लेकर आया था और पूरे देश की शुभ कामनाएं किसी न किसी रूप में दिल्ली पहुंची थीं।

पंडित प्रेमाचार्य के साथ मिल कर गुरु गुरुलाल ने हवन मंडप तैयार कराया था। इक्कीस हवन कुंड थे जिनमें हवन होना आरंभ हो चुका था और मंत्रोच्चार के साथ राज्याभिषेक परम्परागत रीति रिवाज के साथ संपूर्ण हुआ था। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य अपनी महारानी केसर के साथ सिंहासन पर विराजमान थे। पंडित प्रेमाचार्य ने उन्हें चंदन का तिलक लगाया था और आशीर्वाद दिया था। कादिर चुपचाप खड़ा केसर को अपलक देखता रहा था।

मंगलाचरण के उपलक्ष में नगाड़े बजे थे, तुरई बजी थी और ढोल ढमाकों के साथ सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य का जय जयकार हुआ था।

अब दिल्ली हिन्दू राष्ट्र की राजधानी थी और होने वाला उत्सव भी हिन्दू रीति रिवाजों के अनुसार ही मनाया गया था।

जगह जगह केसर भोग के खेमे लगे थे जहां जल-पान की व्यवस्था थी। दिल्ली में कई स्थानों पर दंगल लगे थे। सेना भी अपने जंगी करतब दिखा रही थी। और हर शाम को तन्ना शास्त्री की सभा लगती थी जहां कलाकृति का नृत्य होता था और कभी-कभार केसर भी तन्ना शास्त्री के साथ सुर देकर कोई राग अलापती थी। प्रांतीय भजन मंडलियों के भी अपने कार्यक्रम चल रहे थे और जनता के लिए हाट बाजार भी लगे थे जहां से मन पसंद खरीददारी की जा सकती थी।

दिल्ली आमोद-प्रमोद से लबालब भरी थी।

आने वालों को भेंटें दी जा रही थीं। धर्मांतरण का कार्य भी चूड़ामन शास्त्री ने आरंभ कर दिया था और लौटने वालों के साथ ही संदेश जा रहा था कि भटक गए हिन्दू परिवारों के लिए घर वापसी का न्योता है।

कादिर का मन दिल्ली से लौटने का न था। वह दिल्ली को हासिल करने के लिए बेताब था। महारानी केसर का सौंदर्य, छटा, छवि और चंचल चितवन उसे पागल किए थी। वह चाह रहा था कि किसी तरह से भी उसे दिल्ली के सिंहासन पर बैठना था और वह भी महारानी केसर के साथ।

मेजर कृपाल वर्मा

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