बंगाल की राजधानी गौर में सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य की सवारी निकल रही थी।

लोगों को पता चल गया था कि हेमू जो अभी तक पंडित हेम चंद्र था अब वही सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य था। हिन्दू राष्ट्र की घोषणा कर दी गई थी। लोगों पर सूचना थी कि यहां से आगे अफगानों का शासन समाप्त था और अब जो नियम कानून चलेंगे वो वही होंगे जो पंडित हेम चंद्र ने सुलतान शेर शाह सूरी के जमाने में बनाए थे और प्रभाव में आये थे।

बंगाल ही नहीं अब पूरे भारत वर्ष में हिन्दू राष्ट्र होगा! अब सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य विश्व विजय पर निकलेंगे और जो भी उनके सामने आएगा उसे मिटा दिया जाएगा।

बंगाल की राजधानी गौर में उत्सव मनाया जा रहा था।

बंगाल ने भी एक आश्चर्य की तरह इस घटना का स्वागत किया था। सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य को परमेश्वर का भेजा अवतार कहा जा रहा था जिसे भारत वर्ष की बंद छुड़ाने के लिए भेजा गया था। लोगों ने ही नहीं पूरे शासक वर्ग ने भी मान लिया था कि हेमू उर्फ पंडित हेम चंद्र एक असाधारण व्यक्ति था और एक अनाम प्रतिभा का धनी था। उसी की रीति नीति के सहारे सुलतान शेर शाह सूरी ने भी सफलता प्राप्त की थी ओर मुगलों को हिन्दुस्तान के बाहर खदेड़ा था। हेम चंद्र का ही कमाल था जो सुलतान शेर शाह सूरी हुमायू से हर मुकाबला जीतता ही चला गया था। और .. और अय्याश आदिल शाह सूरी भी पंडित हेम चंद्र की बदौलत ही शासन चला रहा था वरना तो ..

सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य का दरबार लगा हुआ था!

दरबार के नवरत्नों में से एक पंडित चूड़ामणि मिश्र ने हाथ उठा कर एक महत्वपूर्ण सूचना दी थी।

“सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य उन सरदारों, जागीरदारों और उमरा-उलेमाओं को स्वागत समारोह में निमंत्रित करेंगे जो धर्म परिवर्तन करना चाहेंगे!” पंडित चूड़ामणि मिश्र बता रहे थे। “मैं आप लोगों को सूचित कर दूं कि दक्षिण भारत का विजय नगर साम्राज्य इसी प्रकार के हुए धर्म परिवर्तन की एक अनूठी मिसाल है। श्रंगेरी के हमारे गुरु जी ने यह करिश्मा कर दिखाया है और अब उन का शिष्य मैं – पंडित चूड़ामणि मिश्र वही परंपरा यहां भी प्रमाणित करूंगा!” हंस रहे थे पंडित चूड़ामणि।

“लेकिन पंडित जी ..?” मोहम्मद शाह ने आपत्ति उठानी चाही थी।

“मैं आपका प्रश्न जानता हूँ और उसका समाधान भी मुझे ही करना होगा – यह भी मैं जानता हूँ। आप का शक निराधार है। हम खुली बाँहों से आपका स्वागत करेंगे! आप आइये तो?”

उल्लास की एक लहर पूरे दरबार में डोल गई थी।

“भारत वर्ष हिन्दुओं का है, हिन्दुओं का था और हिन्दुओं का ही रहेगा।” पंडित चूड़ामणि फिर से बताने लगे थे। “कालांतर में यही होना है कि आप लौट आएं! आज नहीं तो कल आप को लौटना तो है ही!” उन्होंने हाथ उठा कर उन सब का आह्वान किया था जो अब लौटने के इच्छुक थे। “और .. और मैं ये भी घोषणा करता हूँ कि हमारे उदार मना सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य आपको निराश नहीं करेंगे! वो खुले हाथों सत्ता और महत्ता बांटेंगे क्योंकि ये उनकी आदत है।”

और शाम को जब तन्ना शास्त्री – सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य के नव रत्न अपनी शिष्या कलाकृति के साथ संगीत सभा में उतरे थे तो पुष्प वर्षा हुई थी। स्वर्ग की अप्सरा समान कलाकृति ने बेजोड़ नृत्य किया था और तन्ना शास्त्री ने नवोदित संगीत से उसके साथ साधना की थी।

बंगाल एक नए-नवेले प्रकाश से उल्लसित हो उठा था।

“साजन!” एकांत के अनूठे पलों में सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य की प्राण प्रिया केसर ने प्रश्न किया था। “न्याय करने के लिए आप सिंहासन बत्तीसी कैसे हासिल करेंगे?” हंस रही थी केसर।

“तुम हो न मेरी सिंहासन बत्तीसी!” सम्राट के स्वर कर्णप्रिय थे। “तुम – केसर तुम्हीं तो हो मेरी सिंहासन बत्तीसी।” वह कहते रहे थे। “तुम्हारे रहते मैं अन्याय कैसे कर सकता हूँ?” उनका प्रश्न था।

आज अंतत: केसर ने भी मान लिया था कि उसका पति पुरुष बेजोड़ था, असाधारण था और भारत वर्ष को अब अंतत: विदेशियों के आतंक से मुक्ति मिल जाएगी – वह जान गई थी!

जहां बंगाल में सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य ने हिन्दू राष्ट्र की घोषणा कर एक नए प्रकाश पुंज को जन्म दिया था वहीं 15 नवंबर 1554 को बादशाह हुमायू ने भी हिन्दुस्तान को फिर एक बार फतह करने की घोषणा की थी।

शायद एक संयोग ही था कि दो सूरज एक साथ दो दिशाओं में उगे थे और अब वो दो तरह से अपने आस-पास को प्रकाशित कर रहे थे। दोनों की दो दिशाएं थीं। एक बंगाल से काबुल की ओर चल पड़ा था तो दूसरा काबुल से दिल्ली की ओर। हां। इरादा दोनों का एक ही था। एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहता था तो दूसरा मुगल सल्तनत की नींव डालना चाहता था। और यही था उनके एक दूसरे से टकराने का सबब।

बादशाह हुमायू के लिए हेमू नया न था। वह उसे पंडित हेम चंद्र के नाम से अच्छी तरह जानता था ओर यह भी जानता था कि किस तरह उसने भिश्ती की मुश्क पर बैठकर गंगा पार की थी और आगरा भाग कर अपनी जान बचाई थी। और फिर शेर शाह सूरी ने उसे हिन्दुस्तान से भगा कर ही दम लिया था। इस सब के पीछे हेमू का ही हाथ था – हुमायू यह जानता था।

फारस में रह कर हुमायू को नई जिंदगी मिली थी, नए अरमान हासिल हुए थे और वहां के बादशाह ने उसकी भरपूर मदद की थी। यहां तक कि फारस के शाह ने हुमायू के साथ आपने बेटे राजकुमार मुराद को चौदह हजार की सेना के साथ फिर से हिन्दुस्तान को फतह करने भेजा था। और हुमायू का पहला मुकाबला 1545 में अपने ही भाई असगरी के साथ हुआ था। समर में जीतने के बाद हुमायू ने असगरी को कैद में डाल दिया था ओर अब बारी थी कैमरान के साथ भिड़ने की। कैमरान कितना काइयां था ये हुमायू जानता था। दो बार वो हुमायू को चकमा देकर भागा था लेकिन तीसरी बार उसके निशाने पर आ गया था।

“भाई जान!” कैमरान खुले हाथों हुमायू के सामने आ खड़ा हुआ था। “हमला करने की गलती मत कर बैठना!” वह जोरों से हंस रहा था। “आप की तोप के निशाने पर आप का ही लखते जिगर खड़ा है!” उसने ऐलान किया था। “अब आप चाहें तो दाग दें तोपें!” वह फिर से हंस पड़ा था।

हैरान था हुमायू! परेशान था हुमायू! कैमरान कह क्या रहा था? क्या उसका मतलब था कि उसकी तोपों के निशाने पर उसका ही बेटा अकबर खड़ा था? क्या अकबर था? क्या अकबर ..?” भावुक हो आया था हुमायू। अकबर की यादें उसे रोंदे दे रही थीं। वो तो मान ही बैठा था कि अकबर ..

“क्या कह रहे हो कैमरान?” हिम्मत कर हुमायू ने पूछ ही लिया था।

“अकबर निशाने पर है! दाग दो तोपें!” कैमरान चिल्लाया था। “है हिम्मत तो ..”

“कैमरान ..! मेरे भाई ..” हुमायू रोने रोने को था।

“मुझे आधा साम्राज्य चाहिये!” कैमरान की मांग थी।

“मिलेगा भाई! ले लेना कैमरान! तुम्हीं सब ले लेना! मुझे .. मुझे अकबर से मिला दो!”

“इस तरह नहीं चलेगा भाई जान!”

“मैं वचन भरता हूँ भाई!” हुमायू ने समर्पण कर दिया था।

अकबर को पाने के बाद हुमायू धन्य हो गया था।

और जब कैमरान ने अपनी अगली चाल चली थी तो हुमायू ने उसे कैद कर लिया था और अंधा बना दिया था।

1546 में बदकशान की लड़ाई में सुलेमान ने आत्मसमर्पण कर दिया था। 1553 आते आते हुमायू ने कैमरान को भी ठिकाने लगा दिया था।

हुमायू जानता था कि हिन्दुस्तान पर पुन: चढ़ाई करने के लिए उसे पूरी तैयारी करनी थी। अत: उसने अपने सारे पुराने खिदमतगारों और परिचितों को निमंत्रण दिया था। बाबर के पुराने खिदमतगार भी हुमायू से आ मिले थे। बैरम खां ने बाबर के गुरखनी परिवार का वास्ता दे कर और हिन्दुस्तान की बादशाहत का नया स्वप्न दिखा कर एक अच्छी खासी फौज तैयार कर ली थी।

हुमायू को खबर थी कि दिल्ली पर इस वक्त सिकंदर शाह सूरी का राज था। वह यह भी जानता था कि अब अफगान सल्तनत बिखर चुकी थी और आदिल शाह सूरी भाग कर चुनार में बैठा था। वह यह भी जानता था कि हेमू बंगाल में था। उसे जंच रहा था कि ये एक ऐसा मुबारक मौका था जब वह अपनी प्यारी दिल्ली में प्रवेश कर अपने चिर इच्छित सपने – दीन-ए-पनाह शहर से मिलेगा और उससे इस्लाम की खैरियत पूछेगा!

हां हां! दारुल इस्लाम के अपने सपने को हुमायू भूला नहीं था।

लेकिन हेमू या अब सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य या कहें कि बंगाल की खाड़ी से उठा एक तूफान जो आज नहीं तो कल उससे टकराएगा जरूर और दीन-ए-पनाह और हिन्दू राष्ट्र अब आपस में लड़ेंगे – जरूर लड़ेंगे!

मेजर कृपाल वर्मा

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