47 साल के हुमायू एक लंबी जद्दोजहद के बाद लौटे थे और अब दिल्ली के तख्त पर आसीन थे।

अकबर अभी कुल 13 साल का था। हुमायू को याद आ रहा था कि किस तरह अब्बा हुजूर ने दिल्ली आगरा फतह करने के बाद ही उसे कालपी पर आक्रमण करने के लिए भेजा था। लेकिन अकबर ..

बड़ा मन था हुमायू का कि तुरंत ही हिन्दुस्तान के आर-पार अपनी सल्तनत को कायम करें और पूरे देश में इस्लाम की स्थापना करें। फारस से साथ आये राजकुमार फरीद का भी यही उद्देश्य था और अब इस्लाम के संस्थापक दीने पनाह में आ आकर पनाह ले रहे थे और अगला अभियान चलाने के मसौदे तैयार कर रहे थे।

राजपूत चुप थे। दक्खिन भी चुप था। अब कहीं कोई विरोध नहीं था। पुर्तगालियों को पनाह देने का बादशाह हुमायू का मन था। अफगान शायद अब न लौटेंगे – ये उनका अनुमान था। लेकिन हां – बंगाल में बैठा हेमू कोई भुलाने की चीज न था।

“सेना को फिर से संगठित करो बैरम खान!” बादशाह हुमायू बताने लगे थे। “हेमू एक अलग ही बला है। उसके लिए हमें ..”

बैरम खान चुप खड़ा था। बादशाह हुमायू ने उसे संदिग्ध निगाहों से घूरा था। उन्हें शक हुआ था कि ..

“बड़ी ही मुसीबत के दिन हैं, शहंशाह!” धीमे से बोला था बैरम खान। “अकाल पड़ रहा है।” उसने एक अशुभ सूचना दी थी बादशाह को। “फसलें नष्ट हो गई हैं। पशु धन मरने लग रहा है। पानी की भी किल्लत है। लोगों में भुखमरी फैल रही है। बहुत बुरा वक्त है जनाब।” बैरम खान बताता ही रहा था।

क्या हो सकता था? मुगल सेनाएं तो जनता की लूटपाट करती थीं और धन माल कमाती थीं। उनका हिन्दुस्तान आने का मकसद भी यही होता था। लेकिन अब लोग इस अकाल में बादशाह हुमायू के आने को अशुभ मान रहे थे। अब हुमायू को अभागा बादशाह बताया जा रहा था।

बैरम खां की उम्मीद से अलग सैनिक भर्ती होने न आ रहे थे।

“रहम कर मेरे मालिक!” हुमायू ने अपने आरामगाह में इबादत के पाक पलों में परमात्मा से रहम की भीख मांगी थी। “तू लोगों को देगा तभी तो हमें मिलेगा!” हुमायू का सीधा सवाल था।

हुमायू को लगा था कि इबादत करने में और इस्लाम की हिफाजत करने में ही सल्तनत की भलाई थी।

दीने पनाह की पुनःस्थापना आरंभ करा दी थी। शहंशाह हुमायू ने अपने लिए इबादत गाह के साथ साथ एक नायाब पढ़ने लिखने की व्यवस्था भी की थी। सुलतान का मन था कि अब इस्लाम की उन्नति के लिए हर संभव प्रयत्न किए जाएं।

हिन्दुओं का मनोबल टूट चुका था। उनके विद्वान और महान या तो मार दिए गए थे और या भाग गए थे। गिने चुने कुछ साधु-सध्धुक्कड़ थे जो यूं ही लोगों को बहकाने के लिए कुछ गीत नाद गा लेते थे या व्यर्थ की तुक्केबाजी करते रहते थे। अब बादशाह को पूरी पूरी उम्मीद थी कि पूरा हिन्दुस्तान जल्द ही इस्लाम कबूल लेगा।

जिन लोगों ने इस्लाम कबूला था वो अब खुश थे। उन्हें जागीरें मिली थीं। उन्हें दो-चार औरतें रखने की सहूलियत मिल गई थी और लूटपाट करने का उनका हक भी उन्हें खूब पसंद आया था।

दीने पनाह में अपनी तीन मंजिला मीनार पर खड़े खड़े बादशाह हुमायू यमुना नदी के विशाल विस्तारों में खो से जाते। उन्हें बेहद भाता जब आसमान टिमटिमाते तारों से सजग हो जाता और वो घंटों उन सितारों में अपने सितारे तलाशते रहते। और जब चांदनी रात होती तो घंटों टकटकी लगाए दिल्ली पर फैले उस पवित्र उजास में अपने सपनों की तदबीर देखते और देखते कि किस तरह से हिन्दुस्तान अल्लाह की नियामत के नीचे आ चुका था और वो ..

“हेमू सासाराम पहुंच गया है सुलतान!” बैरम खां ने स्वयं आ कर हेमू को सूचना दी थी। “एक लंबे लाव लश्कर के साथ ..” बैरम खां के चेहरे पर हवाइयां उड़ी थीं।

“खुदा खैर करे!” एक लंबी सांस छोड़कर हुमायू ने कहा था।

एक गहरा सदमा लगा था – शहंशाह हुमायू को!

और जब अचानक अजान की गुहार उन्होंने सुनी थी और उन्होंने महसूसा था कि अल्लाह के दरबार में हाजिर होने में उन्होंने देरी की है तो जल्दी-पल्दी में मीनार की तंग सीढ़ियों पर उतरते वक्त उनसे चूक हो गई थी। लुढ़कते-ढ़ुलकते वो सीढ़ियों के रास्ते बड़े जोरों के साथ नीचे लगे नुकीले पत्थर पर आ बजे थे।

एक बेहद दर्दनाक घटना घट गई थी। शहंशाह हुमायू अल्लाह की जन्नत में जा पहुंचे थे।

सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य के सासाराम आगमन पर उनका लोगों ने हार्दिक स्वागत किया था।

अब तक सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य अपने राज-काज और सच्ची अच्छी काम काज की प्रणाली और व्यवस्था के लिए विख्यात हो चुके थे। जो शुभारंभ उन्होंने शहंशाह शेर शाह सूरी के शासन काल में शुरू किए थे वो अभी तक अपनी उम्र पूरी कर रहे थे। सैनिकों से लेकर आम व्यापारी और किसान उनके राज-काज से खुश थे।

लोग उन्हें हेमू, पंडित हेम चंद्र और अब सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य के नाम से जानते थे। लोग जान गये थे कि सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य शायद कोई अवतारी पुरुष ही थे जो हिन्दू राष्ट्र की स्थापना कर भारत वर्ष को मुगलों और अफगानों के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए प्रकट हुए थे।

“इस्लाम शाह सूरी का मकबरा बन रहा है, सम्राट।” राजा महेश दास ने सूचना दी थी। “जिधर सुलतान शेर शाह सूरी का मकबरा है उसके ही आगे उनके अब्बा का मकबरा और ..”

“बंद करा दो सारा काम-काज राजा साहब!” अचानक ही सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य ने आदेश दिये थे। “बहुत हुआ न?” उन्होंने तनिक मुसकुराकर राजा महेश दास से पूछा था। “मुझे तो महसूस होता है राजा साहब कि हमारी भारत भूमि पर बेशुमार उग आए ये मकबरे, मीनारें और मजारें और हमारे मंदिरों को तोड़ तोड़ कर बनाए ये दरगाह और इबादत गाह शर्मनाक फफोलों जैसे हैं। अगर ये रहे तो हम कभी भूल ही न पाएंगे कि हम इनके गुलाम रहे थे और इन्होंने ..”

“हमारी संतानों को जब पता चलेगा सम्राट कि ..?”

“ये कोई याद रखने लायक धरोहर नहीं बनेगी राजा साहब!” सम्राट ने सीधा राजा महेश दास की आंखों में झांका था। “हम अब एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना कर वो सब निर्माण करेंगे जो हमारी संतानें देखेंगी और ..”

“विचार आपका बहुत श्रेष्ठ है सुलतान!” प्रसन्न होकर राजा महेश दास बोले थे। “मैं सासाराम को अब आपके विचार के अनुसार बड़ा करूंगा।” वो कहते रहे थे।

सासाराम एक विचित्र प्रकार की हलचल से भरा था।

पूरे भारतवर्ष की मनीषा सासाराम को हिन्दुओं का तीर्थ मानकर उसकी ओर निकल पड़ी थी – शायद किसी उज्जैन की याद ताजा हो आई थी या कि शायद पाटलीपुत्र का साम्राज्य लोगों को याद हो आया था।

“अशरफ बेगम आप से मिलना चाहती हैं।” केसर को महान सिंह ने सूचना दी थी। “बुरे हाल में दिख रही हैं।” वह बताने लगा था।

“बुलाओ उन्हें!” तनिक चौकन्ना हुई केसर ने हुक्म दिया था।

अशरफ बुआ के पैर लगने के बाद ही केसर ने कठिनाई से उनका हुलिया पहचाना था।

जारो कतार हो हो कर रोती अशरफ बेगम केसर की बांहों में भरी भरी बेजार थीं, असहाय थीं और बर्बाद हो चुकी थीं।

“हुआ क्या बुआ!” केसर ने हिम्मत बटोर कर पूछ लिया था।

“कत्ल! कत्ल हो गया तुम्हारे अब्बा का।”

“किसने किया?”

“कादिर ने!”

केसर का चेहरा सुर्ख लाल हो गया था और उसका दिमाग घूम गया था। उसे कादिर सामने खड़ा हंसता दिखाई दे रहा था।

“महान सिंह!” केसर ने हुक्म दागा था। “अभी चलना है। मैंने इस कमीने कादिर का सर कलम करना है।” केसर की आवाज में रोष था। “बुआ! आप फिकर मत करो। यहीं अब आराम से रहो। मैं देखती हूँ कि ये सूरमा अपने बाप का कत्ल कर कहां भागता है?”

“केसर! बेटी केसर ..!” सुबकने लगी थीं अशरफ बुआ। “मेरी तो कोख ही उजड़ जाएगी री। मेरे अकेला ही तो है कादिर।” वह अब रहम की भीख मांग रही थीं। “ये तो इन मुसलमानों के खून का खोट है बेटी। मैंने सोचा तो था कि .. शायद मैं हिन्दू हूँ तो ..”

सूचना पाने पर एक बार तो सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य ने भी सोचा था कि इस कादिर के कांटे को अभी निकाल दें! लेकिन अशरफ बुआ आगे आ गई थीं।

“बंगाल चली जाओ बुआ। आपको जागीर अता कर दी है। वहां आपको कोई कष्ट न होगा।”

सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य के इस निर्णय पर केसर ने तालियां बजाई थीं।

मेजर कृपाल वर्मा

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