“मैं दावे के साथ कहता हूँ दोस्तों कि ये पंडित हेम चंद्र सत्ता का भूखा है। चालाक है और छुपा रुस्तम है। देखते नहीं किस चालाकी से हिन्दुओं को हर छोटे बड़े ओहदों पर तैनात करता जा रहा है।” पंजाब का सुबेदार हैबत खान शिकायत कर रहा था।
असंतुष्टों की जमात जुड़ी थी। वो सब लोग एकत्रित हुए थे जिन्हें दिल्ली चाहिये थी, आगरा भी दरकार था और अब अपनी अपनी सल्तनत की शुरुआत करनी थी। सारे विद्रोही अफगान, मुगल, पठान और काबुली इस आ पहुंचे सुनहरी अवसर को हाथ से जाने न देना चाहते थे। वो चाहते थे कि सूरी सल्तनत के बाद अब उन्हें भी मौका मिले क्योंकि वो भी तो हिन्दुस्तान इसीलिए आए थे कि ..
“मुझे आप लोग मिल कर तनिक सा सहारा दे दें!” खबस खान ने अपनी गोट आगे सरकाई थी। “हक तो गद्दी पर मेरा ही बनता है – ये आप सब जानते भी हैं और मानते भी हैं!” वह तनिक सा मुसकुराया था। “मैं आप सब से वायदा करता हूँ कि ..”
“और मैं क्या करूं?” नियाजी अजीम हुमायू खबस खान की बात काट कर बोला था। “मेरी तो जागीर ही जब्त कर ली!” उसने रुआंसी आवाज में कहा था। “इस टोडरमल के बच्चे ने न जाने क्या पट्टी पढ़ाई इस्लाम साहब को! पहले हमारा लगान दोगुना किया और फिर तो ..”
“अब मेरा भी महसूल दो गुना कर दिया है।” जोन खान तड़का था। “मैंने भी जिद ठान ली है दोस्तों! दो कौड़ी न दूंगा – चाहे खून की नदियां बह जाएं।”
एक सन्नाटा हवा पर तैरने लगा था। हर किसी जमा ओहदेदार और अमीर उलेमाओं को अपने अपने पक्ष बचाने की चिंता खाए जा रही थी। हर कोई चाहता तो था कि किसी तरह इस्लाम शाह से गद्दी छीन कर खुद आसीन हो जाए और ले ले पूरे के पूरे हिन्दुस्तान को कब्जे में! लेकिन ..
“मेरी तो एक ही अर्ज है आप लोगों से!” नियाजी बोल पड़ा था। “इस पंडित को पहले उठाओ!” उसका ऐलान था। “अपने भाई जुझार सिंह को इसने इस्लाम शाह सूरी के साथ तैनात कर दिया है ताकि ..” उसने पूरी जमात को एक चेतावनी दी थी। “और अपने भांजे रमैया को दरबार में ला खड़ा किया है, साले महान सिंह को दिल्ली दे दी है और अब सेना में हिन्दुओं की खुली भर्ती हो रही है। हिन्दुओं को खुली छूट दे दी है।” उसने फिर से पूरी जमात को घूरा था। “अगर हम वक्त पर न चेते तो सब लुट जाएंगे! हमें यह पंडित हिन्दुस्तान से बाहर निकाल फेंकेगा जैसे कि इसने हुमायू को भगा दिया और ..”
“काबुल से कैमरान को बुला लेते हैं!” कुतुब खान की राय थी। “उसके पास लश्कर है और वो ..”
“फिर से मुगल आ जाएंगे, छा जाएंगे ओर इस बार सारे अफगान जान से जाएंगे!” जलाल खान ने ऊंचे स्वर में विरोध किया था।
भय और संशय की एक नई लहर उठ खड़ी हुई थी। जमात में आये सभी अफगान, मुगल, पठान और काबुली अचानक ही गुटों में बंटे लगे थे। लगा था कि हिन्दुस्तान जैसी नायाब हस्ती को प्राप्त करने के लिए वो सब अलग अलग तरह से व्यस्त थे। सब अपने अपने लिए पूरे देश को ले लेना चाहते थे और ..
“मैं जंग का ऐलान करता हूँ।” खबस खान ने हवा में हाथ लहरा कर कहा था। सभी ने बड़े गौर से ऐलान करते खबस खान को चीन्हा था। “मुगल है!” एक मूक संवाद हर दिमाग में उगा था। “एक बार अगर दिल्ली इसके हत्थे चढ़ी नहीं कि ..” हर कोई सोचने लगा था। “मैं हर सूरत में जंग लड़ूंगा!” वह कह रहा था। “जो चाहे मेरे साथ आये, जंग का ऐलान करे और कहे कि ..”
तभी कुछ सरदार और सिपहसालार उठ उठ कर जाने लगे थे।
“हम आपके साथ हैं!” आदिल शाह का एलान-ए-जंग सब ने सुना था।
लेकिन जाने वालों ने अब मुड़कर भी नहीं देखा था। उस टूटती बिखरती जमात को।
“सब से पहले तो आपका हक बनता है दिल्ली पर!” अंगद धीमे से नियाजी को बता रहा था। “आप के अब्बा जान तो ..?”
“आंख बची नहीं कि मैं बैठा गद्दी पर!” नियाजी ने अपने इरादे व्यक्त किए थे। “ये इस्लाम शाह मुझे जानता नहीं दोस्त!” उसने अपनी शेखी बघारी थी। “ये सब तो देखते ही रह जाएंगे! हाहाहा! शेर शाह नियाजी जिंदाबाद!” उसने नारा लगाया था और कहीं अदृश्य में जा डुबा था।
अंगद हंसता ही रहा था।
हिन्दुस्तान का शहंशाह बनने के लाजवाब सपने को आंखों में संजोए खबस खान यमुना के किनारे खड़ा खड़ा आगरा को आंखें भर भर कर देख रहा था।
“इस्लाम शाह जब मीठी नींद त्याग कर उठेगा तो सनाखा खा कर मर जाएगा।” कुतुब खान हंस हंस कर दोहरा हो गया था। “क्या चाल फेंकी है आपने खान साहब!” उसने खबस खान की प्रशंसा की थी। “दिल्ली को तो भनक तक नहीं है कि हम लोग ..”
“इसके बाद दिल्ली की बिल्ली को भी ले भागेंगे भाई!” जान खान ने अगला इरादा भी व्यक्त किया था। “ले लेते हैं इस्लाम से सब कुछ। उसके बाद तो ..”
“बंगाल को तो मैं लूंगा खान साहब!” जलाल का प्रस्ताव था।
“और मैं पंजाब पर काबिज होने के बाद काबुल तक ..” नियाजी की अपनी योजना थी।
“ग्वालियर मुझे दे देना खान साहब!” आदिल की मांग थी।
लेकिन खबस खान जैसे किसी भी मांग, फरियाद या सुलह सफाई से परे था। उसका सपना एक बार साकार होने की देर थी कि उसने हिन्दुस्तान के आर पार पहुंचना था और फिर तो ..
सारे सहयोगी अपने अपने लश्कर ले कर शामिल हुए थे। खबस खान ने सब को मोर्चे बांटे थे ओर स्वयं के लिए उसने आगरा को चुना था। हमला रात को होना था। हमला – गुपचुप चोरों की तरह रात के अंधेरे में शाही फौजों पर कहर की तरह टूटना था और सुबह होते न होते आगरा खबस खान के पंजे में आ जाना था।
“चुपचाप बिल्ली की तरह दबे पांव खबस खान ने अपने सहयोगियों के साथ आगरा पर आक्रमण किया था। रात के अंधेरे में लोगों पर अत्याचार करती खबस खान की सेनाएं कहर ढाती जा रही थीं।
“अब दिल्ली भी दूर नहीं है।” खबस खान ने स्वयं को शाबाशी देते हुए कहा था।
तभी एक भिन्न प्रकार की घोषणा सुनाई दी थी।
“हथियार डाल दो वरना सब मारे जाओगे!” जुझार सिंह की धारदार आवाज दिगंत पर गूंजी थी। “शाही सेनाएं आगरा के हर नुक्कड़ पर तुम्हारे इंतजार में खड़ी हैं!” फिर से मुनादी हुई थी। “हुक्म मिलते ही तुम लोग मारे जाओगे!” जुझार सिंह बार बार मुनादी कर रहा था।
रात के उस घोर अंधकार में एक अनाम सा खौफ तारी हो गया था।
खबस खान को समझते देर न लगी थी। वह जान गया था कि ये पंडित हेम चंद्र की चाल थी और अब इससे बचना भी नामुमकिन था। वो मुकाबला हार चुका था – यह तो अब सर्व विदित था।
“भागो!” उसने अपने अंग रक्षकों को आदेश दिया था और गहन अंधेरे में विलीन हो गया था।
जो भाग सकता था, वो भागा था लेकिन खबस खान और उसके सहयोगियों ने आत्म समर्पण कर दिया था।
“कुतुब खान, जलाल खान, जैना खान और नियाजी पकड़े गये हैं ओर जेल में बंद हैं।” इस्लाम शाह सूरी पंडित हेम चंद्र को अपनी प्राप्त सफलता का बयान कर रहा था। “इनके साथ क्या सुलूक करें?” उसका प्रश्न था।
“बागी हैं! षड्यंत्र रचा है!” पंडित जी ने उनके अभियोग बताए थे। “सजाए मौत ही सजा बनती है ताकि अन्य सभी को सनद रहे कि ..” तनिक हंस गये थे पंडित हेम चंद्र। “जाने दो एक संदेश सल्तनत के आर पार ताकि सर उठाने वाले खूब खबरदार हो जाएं!” उनका कहना था।
और मौत की मिली सजा सल्तनत की फिजा पर खूब जोरों से फैली थी। सब के कान खड़े हो गये थे। सब को पता चल गया था कि मृत्यु दंड पाने के बाद भी उन सबकी जागीरें जब्त कर ली गई थीं।
अपनी पहली सफलता पर जहां इस्लाम शाह सूरी अपने आप को सराह रहा था वहीं जुझार सिंह ने भी जश्न मनाया था।
लेकिन पंडित हेम चंद्र ने इस सफलता का सेहरा अंगद के सर बांधा था।
और सल्तनत में बैठ कर षड्यंत्र रचने वाले विद्रोहियों को भी जंच गया था कि पंडित हेम चंद्र के होते सोते दिल्ली का कुछ बनना बिगड़ना नहीं था। कारण – पंडित हेम चंद्र सोते कब थे!