“क्या सोच रहे हो?” अचानक चुप हो गये हेमू की गमगीन सूरत देख केसर ने पूछा था।

हेमू अपलक केसर के चांद से चेहरे को देख रहा था। केसर के हुस्न के तिलिस्म से घायल हुआ हेमू तीर खाए तीतर की तरह छटपटा रहा था। केसर की आग्रही ऑंखें उत्तर मांग रही थीं – किये प्रश्न का।

“यही कि ..” हेमू ने जैसे होश संभाला था। “यही कि .. केसर ..” हेमू ने जैसे अपनी ऑंखें पसार कर किसी हंसते-खेलते मोहक स्वप्न को देखा था। “यही केसर कि तुम चली जाओगी और एक साल की अवधि ..?” हेमू रुआंसा हो आया था। प्रिया से विछोह की घड़ियां गिनता हेमू वैरागी होने को था। “कैसे जीऊंगा केसर ..?” प्रश्न था हेमू का।

केसर मुस्कराई थी। उसने अपने नयनाभिराम को चहूँदिक नचाकर पूरे आस-पास को निहारा था। फिर लौटकर प्रेमाकुल हो आए अपने पति पुरुष को अगाध स्नेह युक्त निगाहों से देखा था। उसकी आत्मा ने एक अपार सुख पिया था। मन प्रसन्न था। कृतज्ञ हो आई थी केसर – हेमू के पवित्र प्रेम की। उसने हेमू को अपनी सराहनीय निगाहों में सहेज लिया था – हमेशा के लिए!

“अब तक कैसे जिए?” प्रश्न किया था केसर ने।

“मर-मर कर!” हेमू ने उत्तर दिया था। “यादों में .. खयालों में .. खेल-खेल में .. और जिंदगी की रेल-पेल में पर केसर, सच मानो प्रिया – एक पल भी बिना तुम्हारे मैंने नहीं जिया!” हेमू ने केसर को आगोश में समेट लिया था – एक अनमोल निधि की तरह।

“एक साल क्या है ..?” केसर ने मुक्त हास्य के मोती बखेरते हुए समझाया था हेमू को। “यों उड़ा .. और मैं आई!” चुटकी बजा कर केसर ने हेमू को एक अजब से अल्हाद से भर दिया था।

दोनों के बीच एक चुहल चालू हो गई थी। हेमू केसर को छोड़कर हिलना तक ना चाहता था। वह तो चाहता था कि उन मोहिया हुए पलों को वो केसर के सामीप्य में ही गुजारे .. और ..

“गुरु जी का संदेश आया है!” पार्वती ने बाहर से ही बताया था।

अचानक ही हेमू को अपना दायित्व याद आ गया था। उसे याद आ गया था कि तीन बार गुरु जी के बुलाने के बाद भी वह लाल गढ़ी न जा सका था। कारण तो कादिर ही था। वह नहीं चाहता था कि कादिर को गुरु जी से मिलाए या कि लाल गढ़ी भी लेकर जाए। वह जानता था कि कादिर दिल्ली क्यों नहीं गया था। हेमू का सारा खेल खराब हो गया था। और वह यह भी जानता था कि ..

“मैं भी मिलूंगी गुरु जी से!” केसर ने मांग की थी। “यहीं बुला कर उनका अतिथि सत्कार क्यों नहीं करते?” उसका प्रश्न था।

“नहीं!” साफ नाट गया था हेमू। “मुझे उनके साथ बैठकर कुछ भिन्न तरह से लेना देना है केसर!” हेमू ने बात को संक्षेप में समझाया था।

अभी तक गुरु जी से न मिलने का कारण वही एक था – कादिर। वह उसे अपनी निगाहों से ओझल तक न होने देना चाहता था। लेकिन गुरु जी से मिलना भी नितांत आवश्यक था। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना को लेकर उसे गुरु जी के साथ बैठ कर अगला चरण स्थापित करने की मुहिम तैयार करनी थी। और वह नहीं चाहता था कि कादिर को इसकी सुगंध तक पहुँचे। कमीना था कादिर!

केसर को लेने केसर की ढाणी से लोग आ गये थे!

एक अच्छी खासी भीड़ पहुँची थी। खूब शोर-शराबा माहोल में भर गया था। केसर की विदाई भी एक महत्वपूर्ण घटना थी – जैसे!

कादिर एक प्यासे पथिक सा एक अजीब सी दौड़-भाग में व्यस्त था!

उसे अब किसी भी कीमत पर केसर का दीदार करना था! वह केसर से किसी भी तरह मिल लेना चाहता था। वह उसका दीदार कर उस तक अपना सलाम पहुँचाना चाहता था। हेमू तो साफ नाट गया था। हेमू ने उसे अपनी ससुराल वालों का डर बताया था, उनके रीति-रिवाज से डराया था क्योंकि हेमू चाहता नहीं था कि किसी भी हाल में कादिर को केसर से मिलाया जाए!

बंदर को दर्पण दिखाने के परिणाम हेमू जानता था!

ससुराल वालों का हजूम आने से केसर का घर लबालब भर गया था। वह उनके आतिथ्य में नाक तक डूब गई थी। क्योंकि पहली बार ही उसके पीहर से लोग उसके घर आए थे इसलिए वह चाहती थी कि उनके सत्कार और स्वागत में कोई कमी न रहे!

केसर को उसके स्वजनों के बीच सुरक्षित छोड़कर हेमू चुपके से लाल गढ़ी निकल गया था। उसने कादिर को अपना कोई अता-पता न दिया था और न ही किसी और को बताया था कि वो लाल गढ़ी जा रहा था। वह नहीं चाहता था कि दिल्ली की हवा को भी गुरु जी के साथ हुई उसकी इस गुप्त मंत्रणा का हाल हाथ लगे!

“कैसे हो भाई, रणजीत!” कादिर ने केसर की ढाणी से आये एक सजीले छबीले युवक को पकड़ा था। उसने बड़े ही सौहार्द के साथ उसे गले से लगाया था।

“मेरा नाम रणजीत नहीं .. सुखबीर है!” उस युवक ने अलग होते हुए बताया था। “लेकिन आप को मैंने देखा है!” वह हंसा था। “आप तो जीजा जी के जिगरी यार हैं न ..!” उसने हंसते हुए पूछ लिया था।

“खूब पहचानते हो भाई!” कादिर ने उसे आंखों में घूरा था। “अच्छा बताओ, दिल्ली कब आ रहे हो?” कादिर ने उससे पूछा था।

ये एक मारक प्रश्न था। सुखबीर दिल्ली जाने के सपने न जाने कब से देखता आ रहा था। अचानक एक सुयोग आता देख वह आपा ही भूल गया था। कादिर को साक्षात सामने खड़ा देख और दिल्ली आने का निमंत्रण सुन उसका मन नाच उठा था। साक्षात जैसे उसे परमात्मा के दर्शन हुए हों – उसने हंसते कादिर को पहचाना था।

“आपका हुक्म होते ही मैं हाजिर हो जाऊंगा!” सुखबीर ने हंसते हुए उत्तर दिया था। “आप के लिए तो जान हाजिर है!” सुखबीर ने एक शपथ जैसी ली थी।

युग ही उलटे पैरों चल रहा था। हिन्दुओं को मुसलमान शासक अब खुदा लगने लगे थे। हर कोई मुसलमानों के मन जीतने में लगा था।

“कल की विदाई है न ..?” कादिर ने बात को मोड़ा था। “मिला दो न ..?” उसने एक ख्वाहिश सुखबीर के सामने रख दी थी।

“आइए! मैं वहीं तो जा रहा था!” सुखबीर प्रफुल्लित था। “खान-पान आज वहीं चल रहा है!” उसने सूचना दी थी। “फिर आप तो हैं ही हमारे मेहमान ..”

और कादिर मेहमानों से खचाखच भरी हवेली में एक जासूस की तरह चुपके से प्रवेश पा गया था। सुखबीर की आड़ में खड़े होकर उसने केसर का दीदार था। वह चाहता था कि केसर को बिना अपनी आहट दिये देखे और उसके सहज सौंदर्य के दर्शन बिना किसी पूर्वाग्रह के करे!

कैसा मुबारक मौका है ..! या अल्लाह! कादिर ने होंठों में ही एक इबादत को पढ़ा था!

“अरे नहीं बन्नो!” केसर अपनी सहेली को समझा रही थी। “हिल गये थे – मुझे देखते ही साजन!” वह हंसी थी। मुक्त मोतियों सी हंसी आस-पास फूलों सी बिखर गई थी। “ये तो सोच रहे थे कि मैं .. वही सोटा चलाती गंवार केसर होऊंगी!” केसर खिलखिला कर हंसी थी। उसकी हंसी की खनक ने न जाने कौन से अनाम दरवाजों को कादिर के भीतर खोल दिया था। “और जब मुझे देखा तो गश खा गये!” ताली पीट कर केसर ने बन्नो को बाँहों में समेटा था।

और अब कादिर भी गश खा गया था!

“या अल्लाह!” कादिर ने ऑंखें मूँद कर जैसे केसर के हुस्न को अपने भीतर कैद कर लिया था।

“अब जिद पर अड़े हैं कि मैं उन्हें छोड़कर पीहर न जाऊं!” केसर ने सूचना दी थी।

“वाह जी वाह!” बन्नो तड़की थी। “हम क्या यहां झक मारने आए हैं? लेकर जाएंगे अपनी बिल्लो को!” बन्नो ने इरादा जाहिर किया था।

केसर के बेजोड़ हुस्न पर फिदा हुए कादिर को अचानक नीलोफर याद हो आई थी। उसे लगा था – जैसे नीलोफर केसर की कोई कनीज हो, दासी हो, लौंडी हो और केसर हो – दिल्ली की महारानी, मलिका और कादिर उसकी बगल में बैठा हो बादशाह! दिल्ली का बादशाह कादिर खान!

“लुट गया मैं तो!” कादिर के मन से एक आह रित गई थी। “साले बिहारियों ने मुझे तो लूट लिया!” उसे अब क्रोध चढ़ आया था। “कच्चे तेल की दावत खिलाई और ये नीलोफर मेरे गले से बांध दी!” वह कोस रहा था अपने ससुराल वालों को। “मैं .. मैं ..” वह कुछ कहना चाहता था लेकिन चुप हो गया था।

“चलो सब बाहर!” अचानक एक ऐलान हुआ था। “अछूते की रस्म होगी!” घोषणा हुई थी।

सब हवेली से बाहर आने लगे थे। कादिर भी कठिनाई से मुड़ा था और हवेली के बाहर चला आया था। “हेमू को ये माल और ये हूरपरी क्यों मिली?” वह अब भी सोचे जा रहा था। वह पागल होने की हदें पार करता लगा था। “उसे वैसा ही सब कुछ क्यों नहीं मिला?” उसका स्वयं से प्रश्न था। “शेख शामी ने अपने लालच में उसकी शादी बिहार से की थी – उत्तर तुरंत कादिर के पास चला आया था। “शेख शामी चाहते हैं कि वो उनके लिए सल्तनत कायम करे?” कादिर ने जैसे चोर पकड़ लिया था!

जाते आगंतुकों को जब केसर ने निगाहें भर कर देखा था तो उसकी नजर जाते कादिर की पीठ पर पड़ी थी। केसर को अचानक एक जोर का झटका जैसा लगा था। केसर ने कादिर को पहचान लिया था!

केसर को लगा था – जैसे उसके तलवे में छिदा जहर का भुना तीर उसे गहरा घाव दे गया था!

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading