क्या होगा?कैसे होगा,अरे!क्या हो गया!ऐसा कर लेते तो वैसा हो जाता।गलती हो गयी मुझसे। अजीब सा डर लगने लग जाता है। जब तक हमारा जीवन है,यह डर हमारा पीछा ही नहीं छोड़ता, कभी भूत-प्रेत के रूपों में तो कभी प्रकति के ख़ौफ़नाक हमलों के रूप में। हमारी या फिर ज़्यादातर हर बन्दे की यह सोच होती है, की सब कुछ परमात्मा की मर्ज़ी से होता है, जब सब कुछ उसी की यानी कि प्रभु की इच्छा के अनुसार होना होता है, तो फिर हम आगे बढ़ने से क्यों रुक जाते हैं, क्यों डर जाते हैं। हम इसलिए भी डर जाते है, क्योंकि शायद हमें  परमात्मा का फैसला सही नहीं लगता, और हम सोच रहे होते हैं, जो मैं कर रहा हूँ, या जो मैं कर रही हूँ, वही ठीक है। कभी-कभी हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुन लेनी  चाहिए क्योंकि वही परमात्मा की भी इच्छा होती है। एक बात गौर की होगी आप सभी मित्रों ने की भगवान की बड़ी-बड़ी  तस्वीरें दीवारों पर टंगी होती है, और ईश्वर अपने हाथ से इशारा करते हुए दिखाई दे रहे होते, हैं उस तस्वीर में…लिखा होता है,”डर कैसा मैं हूँ न।”कभी-कभी क्या होता है, दोस्तों की हम आने वाली परिस्थिति को पहले से ही भाँप जाते है, यानी बिना कुछ हुए ही अंदाज़ा लगाना शुरू  कर देते हैं, कहने का मतलब यह है, कि हम पहले से ही judgmental हो जाते है, और फालतू में डर जाते हैं। मेरे हिसाब से ऐसा तब होता है, जब या तो हम परमात्मा से पहले ही मिलकर आये होते हैं , या फ़िर ऊपर वाले ने हमें पहले से ही हिसाब से ज़्यादा समझदार बनाकर पैदा किया होता है।

पर मित्रों अगर हमें आने वाले जीवन में एक कदम आगे  बढ़ना है,और हम अपने और अपनी आने वाली पीढ़ी में बदलाव और नयापन लाना चाहते है, तो हमें  अपने डर को हमेशा के लिए ख़त्म करना होगा….वो कहते हैं न – डर के आगे जीत है।
मत थर-थर  काँपों तुम,और इस अवसर को  भाँप लो तुम । अगर डर कर हिम्मत हार गए तो मिट्टी में मिल जाओगे। गुज़रते वक़्त और उम्र के साथ आज मुझे भी यह अहसास हो गया है, की  इंसान को अपना डर खत्म कर एक बार जो मन में आये वो करके देख लेना चाहिए , क्योंकि जीवन तो  परमात्मा की देन होता है, और वही एक दिन हमसे यह जीवन लेकर हमारे सारे डर ख़त्म कर देता है। और हमसे कहता है, देखो होना तो ये ही था…फिर क्यों इतना डर रहे थे, क्यों नहीं अपने मन का कहा करके देखा, क्या सोचते रह गए, कितनी बार कहा तो था, तुमसे – मत डर, चल..में हूँ न …पर नहीं अपने आगे किसी की सुनते ही नही हो। देख लिया नतीजा, कर दिया मैने तुम्हें भय मुक्त। जब अन्त परमात्मा ने निश्चित कर ही रखा है,तो क्यों न उसी पर भरोसा करके और अपने डर को ख़त्म कर आगे चल कर देखा जाए। दोस्तों ये जो डर है, यह मेरे हिसाब से हमारे कर्म है, हमारे कर्मों के अनुसार ही हमें अच्छा या बुरा नतीजा भोगना पड़ता है, हर इंसान के अलग-अलग कर्म है, जिनका परमात्मा अलग-अलग न्याय और नतीजा घोषित करते है, अगर हम इस बात को ऐसे सोच कर देखें …की हम परमात्मा के दरबार में लाइन से ख़ड़े हुए है, हमारा नम्बर आता चलता है, और परम पिता परमेश्वर हमें हमारे कर्मों के हिसाब से  हमारे आने वाले जीवन में क्या होगा और क्या नहीं से  सम्बंन्धित रिजल्ट हमारे हाथ में थमा देते है। हम सभी सच्चे मन से ईश्वर के दरबार में खड़े हैं, यह सोच हमारे डर को हमेशा के लिए ख़त्म कर देती है । आख़िर में सबका अन्त एक ही है, इस सच को अपनाना ही हमेशा के लिए डर को ख़त्म करना होता है। हर  वयक्ति के जीवन में उतार-चढ़ाव आये हैं, उन उतार-चढ़ाव के दौरान हम अकेले नहीं होते है, हमारा एक हाथ ऊपर वाले के हाथ में होता है। वो हमारे साथ चल रहा होता है…कह रहा होता है..चल साथ चल रहा हूँ तेरे।

मुझे डर से एक किस्सा याद आ रहा है, मेरी बचपन में एक सहेली हुआ करती थी..रानी। पढ़ने-लिखने में जवाब न था रानी का। पर रानी को डर नाम की बीमारी ने घेर रखा था। समझ नहीं आता था, मुझे रानी इतनी काबिल होते हुए भी डरती क्यों रहती थी। कभी एग्जाम में  कम मार्क्स  आने पर हमेशा अपसेट हो जाना,और उस पर मेरा यह कहना होता था, कि “अरे!इतना मत डरा कर ज़िंदगी को खुल कर जिया कर। पर यह अजीब सा डर मैं रानी के दिमाग़ से कभी न निकाल पाई थी। हमेशा डर-डर कर रहना उसकी आदत सी बन गयी थी। आज अपनी ज़िंदगी के इस मोड़ पर  पहुँचकर जब भी मैं  पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो समझ आता है, ज़्यादा डरने और सोचने वाला इंसान कभी कहीं नहीं पहुँच सकता। हम बड़े होते गए बाकी सब तो ठीक था, पर रानी की डरने और ज़्यादा सोचने वाली आदत गयी न थी। रानी कॉलेज में भी हम सब से हर मामले में अव्वल ही रहा करती थी। कॉलेज खत्म होने के बाद बाकी सब लड़कियों ने छोटा-मोटा जॉब शुरू कर दिया था, पर रानी के दिमाग में उसके घर वालों ने यह बात अच्छी तरह बिठा दी थी, कि  जॉब हो तो नम्बर one नहीं तो कोई ज़रूरत नहीं है, काम करने की। इसी सोच और उसके दिमाग के घरवालों को लेकर डर ने रानी को कुछ न करने दिया। डरती ही रह गयी बेचारी कि बड़ी जॉब मिलेगी नहीं और छोटी जॉब घर वाले करने नहीं देंगे। अपने डर पर काबू नहीं पा रही थी रानी, उसे उस डर ने कि हाय !क्या होगा,रानी को बिल्कुल आगे नहीं बढ़ने दिया,रानी पर उससे ज़्यादा उसका डर हावी हो गया था। कभी-कभी क्या होता है, कि परिवार में या हमारे जान पहचान में,कोई-कोई इंसान इतना ज़्यादा डोमिनेटिंग होता है, कि आप उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत ही नहीं कर सकते,और न ही उस ख़ास इंसान के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकते है, क्योंकि परिवार में अहमियत रखता है वो ख़ास सदस्य। इस तरह के डोमिनेटिंग लोगों से डरकर हम अपने आप को दबा लेते है, अपने आप को खोकर हम किसी दूसरे शक़्स की ज़िन्दगी जीने लग जाते है, जो हमारी होती ही नहीं है। अपने आप को हमारा खोना, और किसी दूसरे को अपने आप पर हावी होने देना, यह हमारा बहुत बड़ा डर और  कमज़ोरी भी कहलाता है। क्यों हम अपने आप को खोल कर नहीं जी पाते, क्या है, जो हमें ही हमेशा हमारे खुद से डराता रहता है, जो लोग इस डर को ख़त्म  करने में असमर्थ होते है, वो यकीनन मिट्टी में मिल जाते है। यह डर उनकी पहचान और खुद की शख्सियत को ख़त्म कर देता है, और कोई इंसान उसी बन्दे में इतना हावी हो जाता है, की हावी हुआ शख्स ही उस इंसान में नज़र आने लग जाता है।

हाँ!तो मैं बात रानी के विषय में कर रही थी, हुआ यूँ कि आखिरकार रानी का विवाह हो गया था। पढ़ाई पूरी ही हो गयी थी, घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर अपने दिमाग से कुछ कर न पाई थी। कारण वही था मित्रों रानी की खुद की शख्सियत और उसके खुद के डर होने के कारण उसके घर  वालों का हावी होना।  खेर!ब्याह शादी भी रानी के पसन्द से नहीं घरवालों की मर्ज़ी से ही तय किया गया। ब्याह के कुछ सालों बाद जब मैं रानी से मिली थी, तो मैने उसके चेहरे और आँखों में एक अजीब सी उदासी देखी। एक अच्छी मित्र होने के कारण मैं  रह न पायी थी, और पूछ बैठी थी,”क्या बात है, रानी सब ठीक तो है”। रानी ने मेरी तरफ़ देखकर एक हल्की सी  मुस्कुराहट फेंकते हुए कहा था,”हाँ!सब ठीक ही है”जवाब अधूरा सा था, आज फ़िर से डर कर मुझसे कुछ छुपा रही थी रानी, झूठा दिखावा कर रही थी, पति के साथ खुश रहने का। मैंने रानी को एक बार फिर समझाते हुए कहा था, “रानी, ज़बरदस्ती के सौदे ज़्यादा दिन तक नहीं टिकते, अगर तुम्हें कुछ अच्छा नहीं लग रहा है, तो उसे छोड़ दो अपनी और अपने सन्तान के जीवन को नर्क मत बनाओ”। पर मेरी इन बातों का रानी पर कोई ख़ास असर न हो रहा था, मानना तो चाहती थी, पर लोग क्या कहेंगे और समाज से डर रही थी। सबसे बड़ा सवाल रानी के आगे यह खड़ा हो गया था, छोड़कर जाउंगी कहाँ?
हमारे समाज में बेटियों का ब्याह करने के बाद उसका खुद का जन्म स्थान उसके लिए बदल जाता है, अपनी ही बेटियों को हमारा समाज रिश्तेदार का नाम दे देता है। जिस घर में वो चिड़िया पली बड़ी होती है, उसी घोंसले में जब कभी उड़ान भरकर वापिस लौटती है, तो पानी का गिलास उठाने में भी झिझक महसूस करती है, क्यों? क्योंकि इस माहौल को हमने खुद बदला होता है। हमारी सोच ही इस बदलाव का कारण है। इसलिए जो बेटीयाँ अपने घर में बिंदास पली बड़ी होती है, एक दिन केवल मात्र रिश्तेदार बनकर रह जाती हैं।
रानी का डर बचपन से लेकर जीवन के उस पड़ाव तक कुछ इस प्रकार उस पर हावी हुआ, कि आज उस डर ने रानी को ही रानी के अन्दर से उखाड़ कर फेंक दिया है। आज मैं अपनी प्यारी  सहेली रानी के अन्दर एक डरी हुई रानी को देखती हूँ, जो कुछ भी होने से पहले ही घबरा जाती है। डर ने उसका खुद पर से भी भरोसा ख़त्म कर दिया है। बहुत दुख होता है, मुझे आज अपनी सहेली रानी को डरा सहमा देखकर,और डर के मारे दूसरों की हां में हां मिलता देखकर।
अगर हमनें अपने अन्दर से डर को ख़त्म न किया तो ज़िंदगियाँ मिट्टी में मिलते देर न लगेगी। अरे!डर कैसा.. परमात्मा हमारे साथ है, वो बार-बार हमें यही कहता है, आगे  चल..डर मत मैं खड़ा हूँ। होनी  निश्चित है, और  मृत्यु अटल है। पूरी तरह से भय मुक्त होने से पहले  अपने अंतर्मन की सुन और  उड़ान भरकर देख। खोल अपने आप को ..डर कर छुपने की बजाए आगे बढ़कर देख, क्योंकि डर के आगे ही जीत है।

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