सोमवार की होने वाली गोष्ठी के बारे सुमेद सोच नहीं पा रहा था कि कौन से विचार को आगे बढ़ाए? सहसा उसे ध्यान आया था कि क्यों न संघमित्रा को भी शामिल कर लिया जाए। पता तो चले कि वह क्या ध्येय, उद्देश्य और जिंदगी से कौन से सरोकार पा जाना चाहती थी।

“सुमेद! ये कौन सी मीनार है जो हर ओर से दिखाई दे जाती है?” संघमित्रा ने अप्रत्याशित प्रश्न पूछ लिया था।

सुमेद मुसकुराया था। उसने संघमित्रा के चेहरे पर बिखरे लावण्य को सराहनीय निगाहों से देखा था। प्रशंसनीय पिंडी थी संघमित्रा की। मौसी ने बड़े जतन से गढ़ा था उसे – वह जानता था। संघमित्रा का पूछा प्रश्न भी बड़ा ही सटीक और सदाबहार था।

“ये चार मीनार है मित्रा!” वह बताने लगा था। “मैं इसे रोज-रोज एक चुनौती मीनार मान कर देखता हूँ। दिल्ली में था तो कुतुब मीनार दिखती थी और यहां हैदराबाद चला आया तो चार मीनार से मुकाबला हो गया! हाहाहा!” वह खुल कर हंसा था। “कहीं भी जाओ हिन्दुस्तान में आप का सामना होगा मुगलों से या फिर अंग्रेजों से! हमारा हिन्दुओं का तो इन्होंने कहीं नामो निशान छोड़ा ही नहीं।” सुमेद ने बेबसी जताई थी। “तुम क्या सोचती हो मित्रा?” उसने पूछा था।

संघमित्रा पूछे प्रश्न को कई पलों तक दिमाग में घुमाती रही थी। बार-बार उसके जेहन में अपने सखा सुमेद का जिद्दी चेहरा डोलता रहा था। सुमेद का प्रश्न चोटिल था। तीखा था। पर था तो सच।

“हमें विरासत में यही सब तो मिला है!” संघमित्रा ने एक सोच के बाद कहा था। “अब देखना भी यही पड़ेगा।” उसकी सलाह थी।

“लेकिन क्यों? क्यों देखें हम उसे जो हमें छोटा करे, गुलामी की याद दिलाए, हर पल हमें बताए कि आज भी भारत उन्हीं का है। हम तो ..”

“सुमेद, जो तुम सोच रहे हो वो तो इंपॉसिबल है।”

“फिर पॉसिबल क्या है?” सुमेद का उलट प्रश्न आया था।

संघमित्रा चुप थी। वह किसी गहरे सोच में डूबी थी।

“मैं .. मैं इसी तरह के तर्कों से हार कर, परास्त हो कर तुम्हारे पास पहुंची हूँ सुमेद!” संघमित्रा की आवाज में एक दर्द उमड़ आया था। “मैं वह सह कर लौटी हूँ जिसे ..” चुप हो गई थी संघमित्रा।

सुमेद को भी आभास था – उसका जिसे संघमित्रा ने भोगा होगा। इतनी सुंदर स्त्री आज भी अछूती उसके पास लौट आई थी – यह भी एक आश्चर्य ही था।

“मां के मरने के बाद मैं निपट अकेली रह गई थी, सुमेद!” संघमित्रा बताने लगी थी। “और तब पिताजी भी टूटने लगे थे। यहां तक कि उन्होंने चारपाई पकड़ ली थी। बीमारी लाइलाज होती चली गई थी तो मैं उन्हें ले कर होम फॉर होम अस्पताल में पहुंची थी।”

“एक लाख रुपये जमा होंगे!” मुझे उनके आदमी ने बताया था। “पहले आई सी यू में होगा एडमीशन। फिर पता चलेगा बीमारी का तो .. उनका कहना था .. जिसे मैं सुन नहीं रही थी।”

“फिर क्या हुआ?” सुमेद की आवाज एकदम बदल गई थी।

“कहां से लाती एक लाख? मैं तो वहीं खड़ी-खड़ी सूख गई थी। लाश होते पिताजी को लौटा कर घर ले आई थी। आंखों से चुचाते आंसू थम नहीं रहे थे। सच मानो सुमेद, उस दिन मैंने कई बार तुम्हें याद किया था। लेकिन .. लेकिन मैं यह भी जानती थी कि इतना मोटा पैसा ..?”

“सारा खेल ही पैसे का है।” सुमेद ने समर्थन किया था।

“उस दिन .. मैं – छिपाऊंगी नहीं तुम से सुमेद कि उस दिन मेरा मन हुआ था कि पैसे के लिए अपने आप को बेच दूं! पिताजी का दुख देखा नहीं जा रहा था। दो बजे थे रात के। पिताजी कराहने लगे थे और मैं रोने लगी थी।

“फिर ..?” सुमेद गंभीर था।

“मां प्रकट हुई थी। मुझे डांट कर बोली – काढ़ा बना और पिला दे। तू जानती तो है कि मैं कैसे बनाती थी काढ़ा? मैंने कढ़ा बना कर पिताजी को मां की तरह गरम-गरम पिलाया था, और कंबल में लपेट कर सुला दिया था।”

“फिर ..?”

“सुबह ठीक मिले थे।” संघमित्रा मुसकुराई थी। “लेकिन अब मैं बीमार हो गई थी सुमेद! मैं डर गई थी कि देश में तो डाकू भर आए थे – डॉक्टर बन कर! और तब तुम्हारी तलाश में दिल्ली पहुंच गए थे।”

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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