क्या आपने भगवान् को देखा है ?

महान पुरूषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

मेरे लिए ये सब से कठिन संक्रमण काल चल रहा था !

वाद नगर से भाग कर मैं कलकत्ता पहुँच गया था !!

आश्रम के मठ ,मंदिर ,स्कूल …और अस्पताल की भव्यता को देख कर मैं बेहोश हो गया था ! गंगा के निर्मल नीर की तरह ही यहाँ मानव -कल्याण की पवित्र भावनाओं की धाराओं को बहते देख मेरा मन तृप्त हो गया था . अंतर-बाहय से भीगा-पसीजा मैं उस काल-खंड को पकड़ कर खड़ा हो गया था ! मैं चाहने लगा था कि …सब …और सारा शुभ …इसी काल-खंड में घट जाए …मेरी आँखों के सामने से सब गुजरे …..मुझे छू कर निकले …..और मैं इसी में पूर्ण रूप से समाहित हो जाऊं !!

गुरु थे . उन्होंने भगवा वस्त्र पहने थे . उन के रूप-स्वरुप स्वामी विवेकानंद से मेल खाते थे . वो उन्हीं जैसे आचरण करते थे . उन की जुबांन पर वेदांत धरा था . उन की आत्माएं परमात्मा के रंग में रंगी थीं . वे देव-स्वरुप थे ….प्रेरणा -श्रोत थे ! मैं उन के आदर में आँखें बिछाए उन्हें निहारता …..और निहारता ही चला जाता !

पूरा आश्रम अपनी संरचना में 'क्रास' के आकार पर बना था . इस से प्रतीत होता था कि ….ब्रिटिश साम्राज्य का वरद हस्त अवश्य ही इस आश्रम के सर पर रहा होगा ! मठ का मंदिर भी भव्यता के साथ-साथ एक अलग से दिव्यता लिए हुए था ! उस मठ की काया में सर्व-धर्म समन्वय -जैसा भाव परलक्षित होता था ! हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख ,ईसाई ….और यहाँ तक कि ….बुद्ध का शुद्ध दर्शन भी ….इस मठ का एक हिस्सा थे ! मैंने डोल-डोल कर आश्रम को देखा था ….लेकिन किसी जात-पाँत ….या उंच-नीच का लेशमात्र चिन्ह भी मुझे द्रष्टिगोचर नहीं हुआ था !!

इन परमब्राज्य पुरूषों …और साध्वीयों के लिए 'मानव' ही एक मात्र 'भाव' था ! मानव -सेवा ही उन का शुद्ध और सात्विकी धर्म था . यहाँ किसी भी मनुष्य से उस के कुल-गोत्र …या जाति -बिरादरी के बारे प्रश्न नहीं पूछे जाते थे ! यहाँ सब समान थे …..सब परमात्मा के बनाए इन्सान थे ….और सभी बराबर थे !

विचार की श्रेष्टता पर मेरा मन निछावर हो गया था !!

स्वामी विवेकानंद के मंदिर के सामने खड़ा-खड़ा मैं बहुत देर तक उन के अंदर तक झांकने का प्रयत्न करता रहा था . कारण- मुझे लगा था जैसे  …..मैं कहीं ….कच्चे-कच्चे पलों में …इन स्वामी जी को ही …..अपना इष्ट मान बैठा होऊं ….? मुझे लगा था कि …ये महान पुरुष ….मेरे भीतर कहीं बैठा था ….और मेरा और इन का ज़रूर ही कोई अकाटय सम्बन्ध था !!

"क्या आपने भगवान् को देखा है …?" ये प्रश्न था – जो अबोध नरेन्द्र दत्त ने अपनी पहली ही मुलाक़ात में श्रद्धेय श्री रामकृष्ण परमहंस से पूछा था . 

तब नरेन्द्र दत्त -बाद में स्वामी विवेकानंद , क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे . उन का मन तभी से वेदांत में रमने लगा था ! वह हर गुरु से यही प्रश्न करते थे . उन के इंग्लिश टीचर ने तब उन्हें परामर्श दिया था कि वो अगर श्री रामकृष्ण परमहंस से जा कर ये प्रश्न पूछेंगे तो उन्हें इस का उत्तर अवश्य ही मिलेगा !!

"मैं उन का शिष्य हूँ . मेरी उन में अपार श्रद्धा है . अगर तुम चाहो तो ……?" उन का सुझाव था .

युवा नरेन्द्र दत्त ने देर न की थी . वो सीधे श्री रामकृष्ण परमहंस के आश्रम पहुंचे थे . उन से भेंट होने पर ….उन का पहला प्रश्न वही था . "क्या आपने भगवान को देखा है ….?" वो पूछ बैठे थे . 

श्री रामकृष्ण परमहंस की स्नेह सिक्त द्रष्टि ने इस अबोध युवक को बड़े ही लाड के साथ देखा था ….परखा था …..और फिर पास बिठा लिया था . लम्बे लम्हों तक वो नरेन्द्र दत्त को निहारते रहे थे . उन्हें लगा था …..कि उन का उत्तराधिकारी …उन के पास पहुँच गया था ! उन की द्रष्टि में उस दिन अपार सुख के उदगम उगे थे !!

"हाँ ! मैंने भगवान् को देखा है !" श्री रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया था .

पहली बार नरेन्द्र दत्त को उन के दिए उत्तर पर अविश्वास नहीं हुआ था !

"कहाँ देखा है ….?" वह प्रमाण चाहने लगे थे . 

"यहीं देखा है ….!" गुरु हँसे थे . "अभी ….अभी देखा है !" वो फिर से विहँसे थे . "और अब ….मैं उन के साथ बातें कर रहा हूँ ….!"

"मैं नहीं समझा ….."

"तो समझो …! मैं और तुम ….दोनों ही भगवान् हैं …..और इन्सान भी हैं ! हम एक नहीं – दो हैं ! आत्मा  …और परमात्मा – हम दोनों हैं ! हाँ, हमारी आत्माएं अलग-अलग हैं …पर परमात्मा एक है ! तुम मेरे परमात्मा हो …..और मैं तुम्हारा परमात्मा हूँ !! आत्माओं में हम दो हैं ….अलग-अलग हैं …."

क्या उत्तर था ….? कैसे गजब की अभिव्यक्ति थी ! कैसा तेज था ….लावण्य था ….सौहार्द था …कुछ था ….और थी प्रार्थना ….! गदगद हुए नरेन्द्र दत्त ने गुरु जी के चरण छू लिए थे ….!!

"मैं आप का शिष्य बनूँगा ….." उन का आग्रह था . 

"मुझे तो तुम्हारा ही इन्तजार था , नरेन्द्र !" वह बोल रहे थे . "न जाने कब से ….आँखें पसारे मैं ….तुम्हारे इन्तजार में बैठा हूँ ! हाँ ! मुझे विस्वास था ….कि तुम एक दिन चल कर स्वयं मुझ तक पहुंचोगे ….

"आप ये सब कैसे ….?"

"सब अज्ञात ….ज्ञात होता है , नरेन्द्र ! सब पूर्व निर्धारित है ….!! वेदांत यही तो बताता है कि …..सब कुछ काल- चक्र के साथ-साथ घूमता है …और सही अवसर आने पर घटता है ….! और फिर माया सब कुछ समेटती रहती है ….!!"

"कहाँ खोये ….हो , बेटे ….?" मुझे किसी ने पुकारा था . 

मेरा सोच टूटा था . मैं यथार्थ में लौटा था . मैं गदगद था . मैं आत्मविभोर था . मेरी आँखें नम थीं . मेरी आत्मा प्रसन्न थी . मैं अब एक नहीं …अनेक था ….! मैं क्या था …..शायद मुझे इस का उत्तर भी मिल गया था ….!!

मैं और युवा नरेन्द्र दत्त अब एक ही स्थान पर बराबर खड़े थे ….!!

…………………………..

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर करपाल वर्मा साहित्य …!!

 

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