इन्किलाब – जिंदाबाद !!

युगपुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास  – अंश :-

कभी-कभी पूर्ण प्रकाश के होते हुए भी घोर अंधकार आप की आँखों की रोशनी छीन लेता है ! आप को दिन के उजाले में भी दिखना बंद हो जाता है . आप शक्ति-विहीन हो कर …दो पग चलने तक के लिए तरस जाते हैं . आप को कुछ सुनाई तक नहीं देता . आप की आवाज़ भीतर से बाहर नहीं आती . आप को न तो कोई समझता है ….और न ही कोई पूछता है !

सिर्फ लोग आप की ओर देख रहे होते हैं ….मौन ……शांत …..!!

“कलकत्ता में तब जुगांतर  …और अनुशीलन का आन्दोलन चला हुआ था . हैगडेवार  को श्यामसुंदर बनर्जी ने …….” मैं अब अठावले की आवाजें सुन रहा था . 

“ये कलकत्ता – है क्या बला ….?” मैंने अब स्वयं से पूछा था . “ऐसा क्या है ….जो हर बात की मिशाल में कलकत्ता का ही नाम आता है ….? क्या है -ऐसा जो कलकत्ता को निहाल किए बैठा है …..?”

“जा कर …स्वयं देखो …न ….!!” मेरा अंतर अचानक ही प्रसन्न हो कर बोला था . “देश-भक्तों के चरण उस धरती पर पड़े हैं …..और वो धन्य है …..!!”

फिर मैं अनवरत ही एक शोर सुनने लगा था , “इन्कलाब – जिंदाबाद …..!!” “वन्दे – मातरम ….!!” “सुजलाम ….सुफलाम् …..मलयज -शीतलाम ……!!” 

एक निमंत्रण मुझ तक पहुँच गया था . एक आवाज़ मेरे भीतर भूत की तरह भर गई थी . मेरा मन भाग कर कलकत्ता पहुँच गया था . मैं भूल गया था …कि मैं ….यहाँ ….अपने परिवार के साथ में रह रहा था ! मुझे याद ही न रहा था कि जसोदा बैन के साथ मेरी शादी तक हो चुकी थी !!

“कैसे पहुंचोगे , कलकत्ता …..?” बस एक ही प्रश्न मेरे सामने था …..!!

ये एक जटिल प्रश्न था . जाने के लिए जो धन दरकार था – मुझे मालूम ही न था ! मैं वहां कभी गया कब था …? वैसे भी मेरे पास था क्या …..? मन ने तो कहा – अठावले से सहायता मांगलो ! पर मैं ही नांट गया था . मैं नहीं चाहता था कि ….अपने इस सूझे अभीष्ट -कलकत्ता की मैं किसी से बात तक करू . में तो अकेला ही …वहां उड़ कर पहुँच जाना चाहता था ! मैं चाहता था कि …कलकत्ता जाते ही मैं ….पहले-पहल रास बिहारी बोस की रूह से मिलूँ …..और उस के साथ बैठ कर एक नई मशाल ज़लाने का मशविदा करू ….!!

जैसे मैं नींद के नशे में …..अपने इस अभिसार -पथ पर अग्रसर हो रहा था ….हर रोज़ .!!

“रोज़-रोज़ रेल गाड़ियाँ …आती हैं !!” मेरा खिलंदड मन ललकार कर बोला था – एक दिन . “पागल ! किसी में भी कूद कर सवार हो जाओ …..! कहीं -न- कहीं तो ले ही जाएगी …..!!”

“टिकिट ……?” 

“छोडो भी ….ये टिकिट का चौंचला , यार !”

“नहीं ! मैं टिकिट ख़रीद कर ही …..”

जो भी था – पर मैं तो कलकत्ता जाने का निर्णय कर ही बैठा . 

तब मेरी उम्र कुल सोलह-सत्रह की थी ! तब मैं एक दुध -मुहां बच्चा ही तो था ….!! तब मैं अपने खेलने-खाने की उम्र के साथ खड़ा था . लेकिन न जाने क्यूं मेरा मन ही न था कि मैं इस तरह के इन झंझटों को पालूँ …..

मेरा तो कोई पथ -प्रदर्शक भी न था ! में निपट अकेला ही अपने भाव और भावनाओं के साथ था ! और मुझे कोई डर भी न था . मुझे कोई झिझक भी न थी . मुझे अब केवल जुगांतर  ….अनुशीलन …..रास बिहारी बोस ….राम प्रसाद बिस्मिल …..और उन के दिए नाम और नारे ही याद थे . मुझे अपनी यही यात्रा – मेरी अपनी यात्रा लगी थी . उठाया ये कदम मुझे बहुत अपना-सा लगा था ! मेरी आत्मा बेहद प्रसन्न थी . मेरा मन प्रफुल्लित था . न मुझे अब भूख का डर था – न प्यास का ! न मुझे अब गरीबी सता रही थी ….और न ही अब मुझे अमीरी से कोई शिकायत थी . में तो किसी और ही संसार में प्रवेश पा गया था …..!! 

मेरे कलकत्ता जाने की खबर किसी के पास नहीं थी ! 

मैं रेल-गाडी में बैठा था . मुझे उस रेल-गाडी का न तो नाम पता था ….और न ही उस का गंतव्य ….! मैं चाह रहा था कि पहले चुप-चाप मैं इस ….मनहूस ….वाद नगर को छोड़ कर ….कहीं भी ….किसी भी दिशा में …..पहुँच जाऊं . तब ….कहीं जा कर ….मैं इस कलकत्ता को खोजूंगा -कोलंबस की तरह ….!!

मेरे पास अन्य यात्रियों की तरह कोई लगेज न था !

मैं अपने इस लगेज को घर पर छोड़ कर ही तो भागा था ! मैंने सोच-समझ कर ही सब त्याग दिया था ! मैं बंधन-मुक्त हो कर ही घर से निकला था . मुझे अब न कोई दरकार थी …..और न कोई सरोकार …..!! 

लेकिन जल्दी ही मेरा यात्रा का चाव ठंडा पड़ने लगा था . नींद के साथ भूख भी सताने लगी थी . मेरा साहस भी साथ छोड़ने लगा था . मेरी कच्ची-कच्ची भावनाएं भी मुझे अकेला छोड़ गईं थीं . अब मेरा मन भी मुझे धिक्कारने लगा था ! एक अकाट्य चिता ने मुझे आ कर घेर लिया था ! 

“यों …..अकेले …..कब तक भटकते रहोगे , नरेन्द्र …….?” मैंने प्रश्न सुना था . “ये तो कोई बात नहीं …..बनी …..!!” अब की बार एक उल्हाना साथ आया था . “पागल बन गए , तुम ……”

“तो …….?” 

“कहीं काम ढूंढ लो ….! किसी भी चाय की दूकान पर …….?” 

मैं हंस पड़ा था ! यह वही गुलामी का मंत्र था ! ये वही चक्की थी – जो मुझ से फिर से बैल बनने को कह रही थी . 

“नहीं ! में अब चाय नहीं बेचूंगा !” मैं नांट गया था . 

“तो ……? कौन शहंशाह बनोगे ……?”

“हाँ ! में अब शहंशाह ही बनूँगा …..!!”

अब की बार मैंने दीर्घ स्वर में पुकारा था . मैं अभी तक हारा न था ! 

“फ़कीर हो …..?” एक वृद्ध आदमी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछा था . “लगते तो कोई दरवेश हो , बेटे …..!” उन का स्वर सौहार्द में डूबा था . “कहो तो मैं तुम्हें आश्रम में छोड़ दूं …?” उन का सुझाव था . 

“कौनसा आश्रम …..?”

“राम-कृष्ण आश्रम ……! तुम्हें वहां ….तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे …..!!”

और में उन के साथ-साथ राम-कृष्ण मिशन आश्रम चला गया था …..!! 

……………………..

क्रमश :-

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य …..!! 

” 

 

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