मुझे मेरा इच्छित आसमान नज़र नहीं आया था !!
रेल गाड़ियों का आना-जाना बंद हो गया था . देश में अब भय भरा था . लड़ाई अपने चर्म पर थी . स्टेशन आता पर मिलिट्री स्पेसल दनदनाती निकल जाती . और जो रुक भी जाती – उन पर पहरे लगे होते ! उन को हमारी चाय की दरकार नहीं होती थी . यदा-कदा कोई पैसेंजर ही आ निकलता तो कुछ धंधा हो जाता . सब सूना-सूना पड़ा था . सब कुछ बे-मज़ा हो गया था . मन था कि बाघी होने लगा था . क्या करें ? कैसे कमायें ….अपनी रोटी – समझ में ही न आ रहा था !
“नौकरी …..?” बाबू जी एक ही विकल्प पर आ कर ठहर जाते .
“कौन बैठा है हमें नौकरी देने को ….?” बड़े भाई दुखी थे – सो गरजे थे .
“मैंने जुगाड़ लगाया है ! कुछ …ले-दे …कर ….?”
“न -अ ….!!” मैं साफ़ नांट गया था .
घर में आमदनी को लेकर कलह उठ बैठा था . शांति न थी . एक चिंता में डूबा हमारा परिवार , बिना पतवार की नाव की तरह हिलोरें खा रहा था ! अब डूबा …कि जब डूबा – वाली स्थिति थी !!
“शाखा में नहीं आये ….?” अठावले मिले थे तो पूछ बैठे थे .
मैं भीतर से भभक उठा था . मैं कहना चाहता था – हमें रोटी नसीब नहीं होती ….और आप को शाखा का शौक चर्राया है ….! क्या धरा है -शाखा-वाखा में ….? कुछ न लेते हो ….और न कुछ देते हो ….! खाली-पीली बातें हैं …..
“मैं चाहता हूँ , नरेन्द्र कि …..” उन्होंने बात को आगे बढाया था .
“मुझ से न होगा , सर !” मैं दो टूक नांट गया था . “घर में नहीं दाने ….अम्मा चली भुनाने …!” मैंने भरपूर क्रोध में आ कर उन्हें उल्हाना दिया था . “हमारी तो जान पर बनी है …..”
“मेरे लायक कोई सेवा …..?” वो पूछ बैठे थे .
मैं चुप था . पर मैं चुप भी नहीं था ! मेरा ये मौन एक गज़ब के मुखर में बदल गया था ! मैं उन से कहना चाहता था – आप पहले अपना तो कोई ठिकाना बना लें ….? दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं …! ऐसा क्या ज्ञान बताते हैं जो ……?
“बताऊंगा ….!” कह कर मैंने जान छुड़ा ली थी .
वो तो चले गए …पर मेरा मन तो और भी अशांत हो उठा था !!
न जाने कैसे मुझे अपने परिवार के लोग ही अपने दुश्मन लगाने लगे थे ….?
मैं सोच रहा था कि मेरा एक अभीष्ट है ….मेरा एक निश्चित गंतव्य है …..! पर मेरा परिवार उस के बीचोबीच आ कर खड़ा हो गया है ! मेरी दिशा…धर्म तय होने में …ये लोग बाधक बन गए हैं . मेरी शादी कर के …मेरे पैरों में जंजीरें डाल दी गई हैं …..! यह घर तो मेरा नहीं है …? यह ठिकाना मेरे लिए नहीं है ….!!
“फिर कहाँ जाओगे, मित्र ….?” मैंने स्वयं से ही प्रश्न किया था .
लड़ाई समाप्त हो गई थी . काम भी चल पड़ा था . लेकिन मैं अब भी उदास ही बना हुआ था ! घर में अपने भाई-बहिनों के साथ मेरा अपना संबंध बन न पा रहा था ! जसोदा के साथ भी मेरा अबोला चल रहा था !!
पढ़ाई-लिखाई से भी मेरा मन उचाट गया था
स्कूल भी मुझे अब एक फिजूल का ढोंग ल गाने लगा था . पाठशाला मैं बैठ कर …पाठ याद करना …उसे रटते रहना …उस के प्रश्न-उत्तर छांटते रहना ….और फिर एक इम्तहान पास कर लेना …..मुझे कुछ जमता नहीं था ! आखिर इस से मुझे फायदा क्या होना था …? ‘नौकरी’ बार-बार एक यही उत्तर आता ! ‘एक अच्छी नौकरी पाने के लिए …अच्छी डिग्रियां होना तो अनिवार्य है , नरेन्द्र !’ मेरा ही अंतर बोलता . ‘मन लगा कर पढो …डिग्रियां लो ……और फिर देखो …..’
पर मुझे मेरा इच्छित आसमान नज़र ही नहीं आया था !!
और न जाने कैसे और कब …मेरे एकांत को भेद कर …कुछ ठोस तथ्य मेरे पास आ कर बैठ गए थे !
“रास बिहारी बोस ने आज़ादी की मशाल जलाई ….और एक ऐसा उजाला हुआ ….जो ….पूरे विश्वा के क्षितिज पर छ गया !! अंग्रेजों का साम्राज्य गया ….गुलाम देश एक के बाद एक आज़ाद होते ही चले गए ….
“पर अब हम तो गुलाम नहीं हैं ….?” मैंने प्रतरोध किया था .
“हैं ….!! हम अभी भी गुलाम हैं . सच्चे माइनों में …हम आज़ाद हैं कहाँ ….?”
“फिर कौन है -हमारा शाशक ….?”
“गरीबी ….बे-रोजगारी ….असमानता ….मुनाफाखोरी ….जात-पाँत ……उंच-नीच ….! क्या-क्या नहीं है ….? ये हमारी तमाम व्याधाएं अभी मरी कहाँ हैं , नरेन्द्र !”
“तो मैं क्या करू ….? खाली हाथ मैं किस-किस से जा लडूं ….? पेट भूखा है …और हाथ-पल्ले भी कुछ नहीं ….!! मेरा वजूद ही क्या है जो ….मैं …..?”
“खोजो न अपने वजूद को ….”
“पर कहाँ ….?”
और एक मौन था -जो मेरे गिर्द छाने लगा था ! आवाजें मरी नहीं थीं . प्रश्नों के उत्तर आना अभी भी शेष था ! लेकिन मेरा अबोध मन घायल पंछी की तरह अवश हुआ छटपटा रहा था ! क्या करता , मैं ….? कहाँ जाता ….?
क्रमशः –
………………
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!
