
लैट द पीपुल ….नो !!
महान पुरूषों के पूर्वापर की चर्चा !
उपन्यास अंश :”
“हमें पुर-जोर हमला करना होगा !” मैं अलह्सुबह अमित की आती आवाजें सुनने लगता हूँ . “कांग्रेस के बिछाए जाल को …काटने का एक ही उपाय है ….”
“क्या …..?” मैंने मुड़ कर पूछा था .
“आल …आउट …!!” अमित का उत्तर था . “हमें भी अब …कोई कोर-कसर नहीं रखनी ….!” वह बता रहा था . “पर्दा उठा देते हैं …..पोल खोल देते हैं …..! लैट …द …पीपुल ….नो …..कि उन की सो कॉल्ड – रहनुमा कांग्रेस का …असली रूप क्या है ….रंग क्या है ….ढंग क्या है ….?”
पानी सर से ऊपर चला गया था . मैं गहरे सोच में डूबा था . मैं चाह कर भी ऐसी लड़ाई न लड़ना चाहता था ….जिस में देश का अहित हो ….! मैं नहीं चाहता था कि …..हमारा प्रचार-प्रसार ….हदें लाँघ जाए ! मैं इसे व्यक्तिगत तौर पर लड़ना नहीं चाहता था ……..
“चुनाव हार जाएंगे …..!” मेरी चुप्पी को तरासते हुए अमित कह उठा था . “फिर मुझे मत कहना ….” अमित का उल्हाना था .
संगीन स्थिति थी . राजनीति का संग्राम अपने चर्म-बिंदु पर पहुँच चुका था . ऐसे संग्राम के हथियार बहुत ही अलग होते हैं ! इस संग्राम को अगर …पूरी प्रज्ञा के साथ न लड़ा जाए तो ….परिणाम भी घातक होते हैं ! शेर को पिजड़े में बंद कर के …बे रहमी से मारा जाता है ! जैसे कि प्रथ्वी राज चौहान …
“वक्त नहीं है – हमारे पास …! लोग नहीं समझते …कि ….”
“बताओ लोगों को …..!!” मैं बोल पड़ा था . “सच्चाई सामने रखो ….”
“तुम कहो तो ……?”
“न …..! मैं नहीं चाहता कि ….हम भारत माँ के मुह पर पड़ा घूंघट उठा दें ….” मैं भावुक था . “मैं नहीं चाहता था कि ….इतिहास हम से ….सवाल पूछे कि ….तब तुम कहाँ थे ….?”
“हम थे कहाँ ……तब …….?” अमित ने मुझे कहा था . “सब गोल-मोल परदे के पीछे होता रहा ….! देश के साथ धोखा हुआ …..देश के साथ ….नेहरू सरकार ने …..”
“नहीं,नहीं ….! अमित …….!! नेहरू जी को बीच में मत लाओ ….!” मैं विनती कर रहा था .
घोर निराशा में डूबा नेहरू जी का चेहरा मेरी आँखों के सामने था !
बात सन १९६२ की चीन के साथ हुई जंग को लेकर चल पड़ी थी . इस जंग में ….भारत की शर्म-नांक हार हुई थी – मैं ये जानता था ! नंगी और सटीक रिपोर्ट थी ….और आरोप और प्रत्यारोप थे कि ….कि …सब कुछ नेहरू जी की आँख के नीचे हुआ था ….उन की मंशा से हुआ था ….जब कि चीन …..निर्दोष था ……! चीन ने तो हमले की शुरूआत तक नहीं की थी ….! तब …करा …धरा …..
“इसी हादसे ने तो ….नेहरू जी की जान ले ली ….!” मैं टीस आया था . “भगवान ना करे ……..कि कल मैं ….कुर्सी पर बैठूँ और …..”
चीन का नक्शा न जाने क्यों ….मेरी आँखों के सामने तन गया था ! चीन ने तिब्बत हड़पने के बाद ….भारत के अरुणाचल प्रदेश और ….अन्य भागों को भी अपने आप में शामिल कर लिया था ! उन का कहना था कि ….वो प्रदेश उन के थे ! उन का दावा था कि ….
“हिंदी-चीनी भाई-भाई …….!” न जाने कहाँ से मेरे दिमाग में ये नारा उछला था !
हाँ ! १९५४ में चीन और भारत के बीच पैक्ट हुआ था . हम भाई-भाई बने थे – तब ! हम दो देश थे – जो गुलामी की जंजीरें काट कर …स्वतंत्र हुए थे ! हम साथ-साथ मिल कर रहना चाहते थे ….! हम चाहते थे कि हम ….अपना-अपना विकास मिल-बाँट कर करें ….! हम एक दूसरे का सहयोग करें ….इज्ज़त करें …..साथ दें ……और मिल कर आगे बढ़ें ….!!
एक सुंदर सुपन जैसा ही था – ये समझौता ….!!
लेकिन सन १९६२ में दोनों देश लड़ पड़े थे .
अचानक मुझे एक एहसास हुआ था . मैं अचानक ही ….दहला गया था ! मुझे गहरा आघात लगा था . एक नंगी सच्चाई ने आ कर मुझे निहथ्था घेर लिया था .
“देश तो आज भी ….असुरक्षित है !” मुझे ये सच्चाई बता रही थी . “अगर आज भी चीन हमला कर दे तो …..? अगर पाकिस्तान मिल कर …..? ओह,मेरे इश्वर ….!!” मैंने खुले आसमान की ओर देखा था . वहां भी कोई उत्तर न था . “अगर वैसा कुछ हो गया तो ….?” मैं सकते में आ गया था .
इतिहास के पन्ने खुले थे . फडफडाए थे . फिर मेरी आँखों के सामने थे !!
“यही तो होता रहा है …., नरेन्द्र !” मैं अब वक्त की आवाज सुन रहा था . “सच में यही होता रहा है ….!” वक्त हंसने लगा था . “हम हरामखोर हैं …., मित्र !” उस की आवाज़ तल्ख़ थी . “हम स्वार्थी हैं ….घोर स्वार्थी ….! हम चीटियों की तरह ….माल ढो-ढो कर घर बनाते हैं …..धन-माल को ….गहरे में दबा कर बैठ जाते हैं ….! सोचते हैं – कौन ले-ले गा …..? किसे पता चलेगा …..? कौन आएगा यहाँ …..तक …?”
“और …लुटेरे …लूट ले जाते हैं …..!!” मैंने स्वीकारा था . “बार-बार यही तो होता है ….! हर बार हम अपनी सुरक्षा की बात भूल ही जाते हैं . हम तो भूल ही जाते हैं कि …हमारी सरहदें सूनी पड़ी हैं ….हमें तो याद ही नहीं रहता कि …हमारे सिपाहियों को …..पेट भर भोजन भी मिला कि नहीं …..! हम धन के ढेर पर …नाग की तरह …कुंडली मार कर बैठ जाते हैं …..और जब …….”
हाँ,हाँ ! जब पाकिस्तान ने १९६५ में हमला किया था तो ….देश की आँखें खुलीं थीं …! अहिंसा का सपना तब …मौत पा गया था !
मेरी द्रष्टि के सामने ….एक द्रश्य आ कर ठहर गया था !
“घमासान लड़ाई में ….सूझ ही नहीं रहा था कि ….मशीन गन की गोलियां आ कहाँ से रही थीं ….?” समर-भूमि से लौटा घायल सैनिक रेल-वे स्टेशन पर जमा लोगों को बता रहा था . मैं उस वक्त उन्हीं सैनिकों की तरह ….उन की सेवा में लगा था ! गरमा-गरम …चाय की कैतिली से …प्याले में चाय डाल कर मैंने उस वीर सैनिक को दी थी ! “धन्यवाद …, बेटे ….!” उस सैनिक ने मेरे सर पर हाथ रख कर कहा था . “होनहार हो ….!” उस के ये परम-वाक्य मैंने सुने थे . “देश की सेवा करना ….” वह कह रहा था . “मुझे देख लो …..? दोनों पैर गए …., पर परवाह किसे है ….?”
“कैसे गए आप के पैर ….?” मैं पूछ बैठा था .
“मशीन गन का फायर …हमारी जाने ले रहा था . कोहरा था …ठंड थी …..! जानलेवा उस माहौल में न कुछ दीख रहा था – न कुछ सूझ ही रहा था ! लेकिन …..उस आते फायर का तो उत्तर हमें खोजना ही था ! बस, मैंने रायफल संभाली और हो लिया ….आते फायर की सीध में !”
“लेकिन ….?”
“जान ही तो जाती …..?” वह हंसा था . “वो तो जाती ही है !!” उस ने कहा था . “यही तो मौका था ….वीरता दिखाने का ….! मैं न मुड़ा ….!!”
“फिर ….?”
“बंकर के भीतर बैठा था – वह ! मशीन गन पर गोलियों का पटा चढ़ा था . उस के आस-पास भी गोलियों के अम्बार लगे थे . वह अकेला था . मैंने उसे बिल्ली की आँख से देखा . चूहे को भनक पड़ी …..तो उस ने फायर खोल दिया …! दोनों टाँगे गोलियों से भर गईं ….! पर मैं टीसा तक न था ! मैंने बैनट का भरपूर प्रहार किया था ….और उस का क़त्ल कर डाला था !”
तालियाँ बजी थीं ….तब रेल-वे स्टेशन पर ….!! फूल मालाओं से उस सैनिक का गला सर तक भर गया था …!! हम लोगों के लिए वह भगवान का भेजा कोई मसीहा था ! हम उस के प्रशंसक थे . उस के भक्त थे ….उस के साथ थे ….उस के गुलाम थे ….!!
तब ….हाँ, तब …..मुझे लालसा हुई थी कि …मैं एक सैनिक बनूँ ….! मैं भी देश की सेवा में …जी-जान से जुट जाऊं ….!!
“कैसे काम चलेगा , नरेन्द्र ….?” बाबू जी का कातर चेहरा मेरे सामने आ जाता है . “कुछ नहीं होगा …..चाय-वाय बेचने से …..!” वह निराश थे . “लड़ाई क्या चली ….भूखों मरने ….की बात ….”
हाँ, ये तो सच था कि ….उस १९६५ की लड़ाई के दौरान ….हमारे परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई थी ….!!
क्रमश :-
……………….
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य …!!