हमारे तीर्थ – रासबिहारी बोस !!

महान पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !! 

उपन्यास अंश ;-

“दिल्ली ….? तुमने देखी है, नरेन्द्र ….?” वह अचानक ही मुझे पूछ बैठी थीं . 

“नहीं …!!” मैंने एक दुधमुहे बच्चे की तरह सच बोला था . “मैंने अभी कुछ नहीं देखा है !” मैंने फिर कहा था . 

“विश्व भ्रमण करना , स्वामी जी की तरह !” वो मुझे आदेश दे रहीं थीं . 

“म …म ..मैं विश्व ….भ्रमण करूं ….?” 

“क्यों …? हर्ज ही क्या है ….? आदमी की समझ बढती है , नरेन्द्र ! एक ही देश में रह कर ….एक ही परिवार में जी कर …एक ही प्रदेश में पढ़ कर …आदमी की समझ छोटी रह जाती है …जंग खा जाती है ! उसे सच-झूठ का छलावा ठग लेता है !” वह ठहर गई थीं . फिर कुछ सोच कर कहा था . “मुझे ही देख लो ! अगर स्वामी जी के पीछे मैं भारत न आती तो ….अधूरी ही रह जाती ! अगर मैं स्वामी जी की अधूरी इच्छा को ले कर …..संघर्ष न करती तो ….मैं …मुक्त ही न होती ….उन से मिलती तक नहीं ….” 

“कौन सा संघर्ष ….?” मैंने पूछा था . 

“बताती हूँ !” वो हंस गईं थीं . 

अचानक ही उन की आँखें आद्र हो आई थीं . किसी अनाम दुःख ने आ कर उन का अंतर भर दिया था !  न जाने कैसी वेदना थी – वह जो मुझे भी द्रवित कर रही थी . मैं अब अपने आप को एक हादसे से गुजरने के लिए तैयार करने लगा था ! 

“खोट….! खोट आ गया था – अंग्रेजों की नीयत में !” सिस्टर निवेदिता अब मुझे समझाने लगीं थीं . “भारत जैसा देश देख कर उन का ईमान डिग गया था ! उन की समझ में आ गया था कि …अगर सूझ-बूझ …चंट-चालाकी ….और शाम-दाम-दंड-भेद से वो भारत को पूर्णतया हथियाने में …सफल हो जाते हैं …तो उन की तो सातों पुश्तों का निश्तार हो जाएगा ! इंग्लेंड फिर …हमेशा-हमेशा के लिए …विश्व की राजधानी होगा …और कोई भी उन का शत्रु …उन का बाल भी बांका न कर पाएगा ….?” वह रुकीं थीं . उन्होंने अपने आस-पास को परखा था . शायद किसी अंग्रेजी जासूस को वह ढूंढ लेना चाहतीं थीं !

“फिर ….?” मैंने नई उत्सुकता से उन्हें पूछा था . 

“फिर उन्होंने भारत को हथियाने की स्कीमें बनाना आरंभ कर दिया था !” 

“स्कीमें ….?” 

“हाँ ! स्कीमें ….!! जैसे कि शिक्षा-दीक्षा देने की स्कीमें ….! एक विलक्षण स्कीम का जन्म हुआ था ! अंग्रेजी पढ़ने के लालच में …भारतीय अपने बच्चों को आँख मूंद कर …कान्वेंट स्चूलों में भेजने लगे थे ! यहाँ शिक्षा के साथ-साथ …उन्हें धर्म-परिवर्तन का पाठ भी पढ़ाया जाने लगा था ! चतुराई से ….होश्यारी से ….देश को भाषा और धर्म – दोनों से काट कर …एक इस तरह की मानसिकता देना था ….जहाँ वो गुलामी को गुलामी न मान ….इनाम-इकरार मान लें ….एहसान मान लें …और स्वेच्छा से ग्रहण करने लगें …!”

“वो तो हम आज भी ग्रहण कर रहे हैं , सिस्टर ….?” ये मेरे चौंकने की बारी थी . “हम तो आज भी ….अब भी  …वही सब कर रहे हैं ….जो ….”

“अधूरा रह गया उन का प्रयास , नरेन्द्र  ! अगर कहीं वो सफल हो जाते ……तो ….?”

“तो …..?”

“तो …आज का भारत भी ….उन का ही गुलाम भारत होता ! तुम्हारे ये वेद -वेदान्त ….सब कहीं किसी गहरे कुँए में पड़े होते ! तुम्हारे हक़-हकूक भी नहीं होते ….! तुम्हारी तो जमीन-जात्ता सब उन्ही के नाम होता ! तुम तो अपनी पहचान तक भूल गए होते , नरेन्द्र !”

“छल …..?” 

“छल-बल और सूझ-बूझ ….! सभी कुछ शामिल था – उन की स्कीम में ! भारत के ही लोगों को सत्ता की दलाली में शामिल कर लिया था – उन लोगों ने !!” 

“कैसे …?”

“सारे राजे-महाराजे उन के साथ आ मिले थे ! सारे बुद्धिजीवी उन्ही का गुणगान करने लगे थे ! उच्च -वर्ग के बच्चे इंग्लेंड में पढ़ने लगे थे . इन सब ने अंग्रेजों की सभ्यता को ही श्रेष्ठ मान लिया था ! मानसिक तौर पर तो भारत गुलाम हो ही चुका था ….?” 

“फिर ….?”

“फिर क्या ….? चोर की चोरी पकड़ी गई !” वह हंस रहीं थीं . 

उस हंसी ने मेरे मन में एक उजास-सा भर दिया था ! मैं मरने-मरने से बच गया था !! 

” पर कैसे …?” मैं विकत जिज्ञासा से उछल पड़ा था . 

“बंगाल के ही कुछ विचारकों ने इन सेंध लगाने वालों को सूंघ लिया था ! उन्हें पता चल गया था कि …मित्रता का स्वांग भरते …ये संत नहीं , भूखे भेडिए थे ….लुटेरे थे ! ये श्रेष्ठ नहीं , भ्रष्ट थे …! फिर विरोध आरंभ हुआ . फिर अनुधीलन …और जुगांतर का युग आरंभ हुआ !!” अब उनकी उंगली एक दिशा में उठी थी . “बंगाल भड़क उठा था ! बंगाल जल उठा था ….! बंगाल बौखला गया था …और बंगाल …..”

“और आप ….?” 

“बाबली हो गई थी ! मतवाली हो गई थी , मैं ! कूद पड़ी थी , संग्राम में . मैंने सीधे लार्ड कर्जन से टक्कर ली थी ! मैं अरविंदो से मिली थी . वो भी गाईकबाड़ों की नौकरी छोड़ कलकत्ता आ गए थे . महान विद्वान थे …विचारक थे …छ: सात भाषाओं को जानते थे …इंग्लेंड में ही पढ़े-पले थे …. और अब …..? टैगौर से लेकर ….रासबिहारी बोस …तक सब अब …अंग्रेजों के विरोध में खड़े थे !”

“और अंग्रेज ….?”

“चुप न थे ! बंग-भंग का ऐलान हो चुका था ! ‘बाँट दो बंगालिओं को ‘ उन की चाल थी . ‘डाल दो इन्हें जेलों में …दो इन्हें यातनाएं ….’ पुलिस के कुत्तों की गिरोह जनता पर  छोड़ कर …उन्हें जलील कर रहे थे ….और ….पुलिस ….”

“पुलिस तो अपनी थी ….?” 

“फ़ौज भी तो अपने ही लोगों की थी …? हिन्दुस्तान की ही बहादुर कौमों को …फ़ौज में भरती कर …इन लोगों ने उन्हें ग्रुप्स एंड ट्रुप्स  में कुछ इस तरह से बाँट दिया था ….कि …वो हिल भी न सकते थे ! एक हो ही न सकते थे …? हिन्दुस्तानी ही हिन्दुस्तानियों को पीट-पीट कर बेदम किए थे ! जुल्म हो रहा था – चारों और ….”

“फिर ….?”

“बंगाल छोड़ कर ….दिल्ली जाने का विचार तभी तो बना था …? दिल्ली से पूरे भारत को आसानी से काबू किया जा सकता था ! यहाँ के लोग भी बंगालियों के जैसे न थे ! यहाँ लोग अंग्रेज-भक्त बन चुके थे ! और बंगाल अब अंग्रेजों के लिए कोई बड़ी उपलब्धि न रहा था ! इसे तो अब भारत के एक कौने में बिठा कर भूला भी जा सकता था …?”

“हाँ, वो तो संभव था …!” अब मैं भी पूरी स्थिति को समझ गया था . “पर …ये सब ….जुगांतर  …अनुशीलन ….रासबिहारी बोस ….और टैगौर ….और ….और हाँ, अरविंदो ….?”

“सब के सब तीर्थ हैं ! तुम्हारे स्वतंत्र भारत के ….यही तो तीर्थ हैं , नरेन्द्र ! कलकत्ता आए हो तो तीर्थ-बरत भी करो ! इन्हें देखो …समझो …सुनो …! तुम्हारी उम्र कुछ करने की है ! लड़ने की है ….और …” कहते-कहते वो अंतर्ध्यान हो गईं थीं . 

अब सन १९०५ के भारत का इतिहास मेरी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ था . 

“बाल-बाल बचे !!” मैंने गहरी उच्छवास छोड़ कर एक सोच को मुक्त किया था . “अगर …वक्त से बंगाल न जाग गया होता तो ….? आज तो पूरा देश गुलामी के गर्त में डूबा होता …? हमारी तो अस्मिता तक लुट जाती ….?” मैं सोचे जा रहा था . “ज़रूर ही देखूँगा …इन तीर्थों को ….! अब न रहूँगा इस आश्रम में …!! अब मैं खोज लूँगा …जुगांतर को …अनुशीलन को …! और हाँ, जहाँ अपने परम गुरु केशब बलिराम हैगडेवार रहे थे …जहाँ उन्होंने दीक्षा पाई थी ….जहाँ उन्होंने जासूसियाँ की थीं ….विद्रोही बनने का ब्रत लिया था ….उन सारे स्थानों को मैं देखूँगा ….अवश्य देखूँगा …!!” मैंने ठान ली थी .

अब भी मुझे पूरा बंगाल ही एक तीर्थ जैसा ही लगा था ! 

मैंने अपनी खोज को एक नई दिशा दी थी . मेरा मन अब संन्यास में नहीं था . मेरा मन अब किन्हीं अनाम संग्रामों में उलझ गया था ! मैं भी अब सिस्टर निवेदिता की ररह …किसी लार्ड कर्जन जैसे …राक्षस से भिड जाना चाहता था ! मैं भी अब अरविंदो घोस की तरह …आसमान में आग लगा देना चाहता था ! मैं भी अब ….हाँ, मैं ….भी अब ….न जाने क्या-क्या नहीं कर डालना चाहता था ….? 

पर मेरी उम्र मुझ से बहुत छोटी थी !! लेकिन मेंरे विचार मुझ से बहुत बड़े थे !!! 

………………………………….

क्रमश – 

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !! 

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