भोर का तारा 

युग पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

वाद नगर भी अपनी बसावट के आधार पर समाज के इसी सोच के तहत दायरों में बंटा था. मोहल्ले थे. ब्राह्मणों का मुहल्ला ….कायस्थों का मुहल्ला  …धनिक-ढाणियों का मुहल्ला  ….धोबी,तेली और नाइयों के मुहल्ले और इस से भी आगे चमार -भंगियों की बस्तियां थीं !

वर्ण-व्यवस्था के आधार पर हम सब को इस बसावट के अनुसार अपने-अपने काम-कर्तव्य भी याद थे. हमें ऊंच-नीच का ज्ञान एक सामान्य-ज्ञान की तरह बचपन से ही सिखा दिया जाता था. हम सब एक दूसरे को उस के नाम के साथ-साथ उस के रुतबे से भी जानते थे. किसका-किस के यहाँ आना-जाना होता  …खान-पान होता   …बेटी-व्योहार होता  …सब हमें ज्ञात था. इस क्रम और क्रिया-कलाप में कोई गलती नहीं होती थी. और अगर कभी-कभार कोई मन चला सीमा उल्लंघन कर ही देता – तो समाज उसे सही रास्ता दिखाने तुरंत सामने आ जाता।

जैसे हम सब को मान-मर्यादाओं के सींखचों में जड़ दिया था   … और हम सब को अपनी-अपनी गुजर-बसर एक निश्चित ढर्रे के अनुसार ही करनी थी.

हमारा तेली -तमोलियों का मुहल्ला था. हमारे अपने सामजिक दायित्व थे. हमारा अपना कर्म-क्षेत्र था. अपने कर्म-क्षेत्र में रह कर ही हमें अपनी जीविका कमानी थी. तेल की पिराई  ….तेल की सप्लाई  …तेल का क्रय-विक्रय   ….और तेल का व्यापार   वह सब हमारे जिम्मे था. हम सब इस कर्म-क्षेत्र के बे-ताज़  बादशाह थे.

मैं जानता था कि मुझे भी यही काम विरासत में मिलना था. मुझे भी अपने बाबू जी की तरह  …इसी कोल्हू में गोल-गोल घूमना था  ….रात-दिन बहना था  …कंगाली काटनी थी  ….उम्र पूरी करनी थी  ….यों ही   …!! लेकिन मैं था कि  …कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बांध कर जीवन-यात्रा पूरी करने से नांट गया था !

मैं – अपने जीवन को आँखें खोल कर जीना चाहता था. मैं चाहता था   कि  मैं  …अपने विचारों के साथ चलूँ   …अपनी इच्छाओं के साथ उड़ूँ   …अपने अरमानों के साथ जीऊं   …..! फिर परिणाम जो हो – सो हो !!

“मैं शादी नहीं करना चाहता   …!” मैंने हिम्मत जुटा कर बाबू जी के प्रस्ताव का मुकाबला किया  था. “मैं  …मैं  …इस छोटी-सी उम्र में   …शादी   ….?” मेरी जुबान तालू से जा कर चिपक गई थी. आप बेशक हंसे  ….पर यह मुकाबला मेरे लिए   …मेरे जीवन का  …पहला ही धर्म-युद्ध था !

“फिर कौन सी उम्र में शादी करोगे   ….?” बाबू जी ने विंहस कर पूछा था. वो जानते थे कि मैं थोड़ा जिद्दी था.

“पढ़-लिख कर    ….कुछ बनने के बाद   ….” मैं यों ही बोला था. सही उत्तर तो मुझे आता ही न था ! अभी तक मेरे सामने मेरा अभीष्ट आया कहाँ था ?

“बूढ़ों की शादी होती है, क्या ?” बाबू जी ने ठहाका लगाया था. “हर काम के लिए एक उम्र होती है, बेटे !” वो स्नेह से बोले थे. “अपने साथियों को देखलो ! एक दो के तो बच्चे भी होनेवाले हैं. ”

और यह सच भी था.

भारत की भुखमरी का कारण -भक्क-से मेरी समझ में समां गया था.

छोटी उम्र में शादी होने के बाद – बच्चे पैदा होने का क्रम – एक लंबे अरसे तक चलता था. आदमी  …बेद्यानि में  …बिना किसी सोच-विमोच के बच्चे पैदा करता चला जाता था. उसे तनिक भी भान न होता था कि जो बच्चे वो पैदा कर रहा था  …उन के प्रति उस का कोई दायित्व भी था. यह तो एक परिवारों का चलन था. बच्चे भगवान् की दैन थे  ….और भगवान् ही उन का रक्षक-शिक्षक था. बच्चे पैदा करनेवाले माँ-बाप तो मात्र एक कारण थे.

लेकिन मैं था कि  …इस चाल-चलन को मानना नहीं चाहता था. मैं नहीं चाहता था कि   ….मैं भी    …इस ढर्रे को जीऊं और बाबू जी की तरह  ….

“मैं शादी नहीं करूंगा  ….!” मैंने पुरजोर प्रतिरोध किया था.

“लेकिन क्यों  …?” बाबू जी ही गरजे थे. “हम भी तो सुने कि  ….तुम शादी क्यों नहीं करना चाहते ?”

“मैं  ….मैं  …पहले  …अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूँ   ….” मैंने अपनी और से एक सशक्त दलील उन के सामने धरी थी.

“किसी और के पैरों पर खड़े हो  – क्या   …?” छज्जू चाचा बीच में कूदे  थे. चूंकि मेरी शादी तय हो चुकी थी  …अतः सब लोग इस में कोई व्यवधान न चाहते थे.

उन के पूछे प्रति -प्रश्न ने सारे माहौल को हल्का कर दिया था. हंसी का एक भबूका उठा था  ….और मेरी दी दलील को उडा  ले गया था. उन के लिए तो मैं अभी बच्चा ही था. मैं अपना भूत-भविष्य समझता कहाँ था ?

क्रमशः –

 

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