धृतराष्ट्र

“मैं मंच पर उस समय तक पैर नहीं रखूंगी जब तक कि ..आप ..के चरण उठ कर नहीं चलेंगे  …और मंच पर आप विराजमान नहीं होंगे !” सुवर्णा जिद पर अड़ी थी।  “आप ने एक विचारधारा को जन्म दिया है. समाज को …”

“पर मैं। ..मैं  …  ” संग्राम का कंठ रुंध रहा था. “मैं क्या मुँह लेकर   ….जनता के सामने  …?”

“जनता ही तो आप के दर्शनों की प्यासी है, पिता जी !” सुवर्णा बोली थी. “वर्ना    …मैं जिद न करती। ”

जैसे जनता की पुकार उन्होंने सुनी थी   …परखी थी और पहचानी थी। वो गदगद हो आए थे. सुवर्णा की बात मान कर वो मंच पर आ गए थे.

फिर न जाने कैसे और कहाँ से उन का विगत चल कर आया था और पास आ कर बगलवाली कुर्सी पर बैठ उन से बतियाने लगा था.

“तब तुम बच्चे थे, संग्राम !”विगत हंसा था. “चुलबुले,बच्चे !! स्वस्थ ,पुष्ट   …और पहलवान ! दम था शरीर में   ….और पार्टी के झंडे-डंडे लेकर दिन-रात घोड़े की तरह भागते ही रहते थे. यही तुम्हारी लगन,काम,करम और जीवट गुरू जी को भा गया था. तुम पर मुग्ध थे, गुरू जी ! कहते थे – संग्राम ! ये देश दीन -दुखियों का है. संकट गहरा है. इन्हें गरीबी की काली खोह से बाहर खींचना है   ….और रूढ़ियों की बेड़ियाँ काटनी हैं, पुत्र ! क्या तुम कर सकोगे   …?”

“ज़रूर करूंगा , गुरू जी ! आप का आशीर्वाद मिला तो  ….मैं समाज का ढांचा ही बदल दूंगा ! गरीबी, बे-रोज़गारी ,अशिक्षा और अनैतिकता के पहाड़ों को उखाड़ फेंकूंगा ….! हमारे पास है क्या नहीं ? सब ने हमें ही लूट-लूट कर  …साम्राज्य बनाए हैं ! ये लूट मैं न होने दूंगा !!”

इसी आखिरी दिए वायदे को मान गुरू जी ने प्राण त्यागे थे !

“लड़े तो तुम खूब, संग्राम !” वक्त ने उनकी पीठ ठोकी थी. “तुम से लोगों को बहुत-बहुत उम्मीदें थीं. तुम से तो लोग यहाँ तक  …..”

“लच्छी ने खा लिया, मुझे   ….!” अचानक संग्राम का तीसरा नेत्र खुला था. “हाँ,हाँ ! लच्छी लुच्ची थी  …घटिया थी   ….एक दम गन्दी ,बेकार और बकबास !” क्रोध जैसा कुछ आने लगा था,उन्हें। “न जाने कैसी मनहूस घड़ी थी   …वो जब उन्होंने लच्छी को छू लिया था. संतोष का द्यान तो उन्हें था   …पर अनुमान गलत था ! संतोष एक बेहद उम्दा चीज़ का नाम था. उन की चाहत पर कुर्वान होनेवाली -संतोष ,कभी उन के आड़े न आएगी , वह जानते थे. बस, बस गई ,लच्छी  …! उस ने हर-हर गन्दी हरकत कर   …संतोष की जान ले ली ! अनाथ हुए उन के चार बच्चे अब चौड़े में आ गए थे। लेकिन तभी – जब गुरू जी ने उन्हें राज-पाठ सौंपा था तो    …सब का सब प्रकाशित हो उठा था   …!

“मैं पढ़ाऊंगा-लिखाऊंगा ,पीयूष को।” मांडल स्कूल के प्रिंसिपल मिस्टर मसीह ने छाती ठोक कर कहा था. “पीयूष हॉस्टिल में रहेगा  …मेरी देख-रेख मैं  …!”

और इस तरह सुवर्णा को सुलोचना ले गई थी तो  …राशि,जाकी वनस्थली में प्रवेश पा गईं थीं. चारों बच्चों को चारों दिशाओं ने जैसे मांग लिया था   …और उन का संकट दूर हो गया था. अब वो समाज सेवा के लिए पूर्ण स्वछंद थे।  उन्होंने इरादा बना लिया था कि वह भारत देश को एक उन्नत देश बना कर रहेंगे ! गुरू जी के दिए समाजवाद के मंत्र को शंख की तरह फूंकेंगे और  ….

“पागल मत बनो, सांगू !” लच्छी थी. “आर-बार का आ रहा है   …तो उड़ाते क्यों हो  …? चार-चार बच्चे हैं. कल को ज़रुरत पड़ी तो  ….?” उस ने चुपके से कान में कहा था. “ये जुड़ा   …जंगम आज है , कल नहीं ! लोग तो लोग हैं  ….”

अमृत में विष की बूँद बो दी थी, लच्छी ने   ….!!

क्रमशः :-

धारावाहिक कहानी।

 

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