
मैनिका !
महान पुरूषों के पूर्वापर की चर्चा !
उपन्यास अंश :-
अपने जटिल प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मैं अब शारदा मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा था !
मैं अब माँ शारदा से विनम्र प्रार्थना कर रहा था कि वो अब मुझे ऐसा वरदान दें ….कि मैं स्त्री -मन के अथाह समुद्र से कुछ मोती चुन लूं ….जो दुर्लभ हों ….कारगर हों …मेरे काम आने वाले हों ….और मेरे पथ -प्रदर्शक बनने वाले हों !
“मेरी शादी …कुल पांच साल की उम्र में इन के साथ संपन्न हुई थी ,नरेन्द्र !” माँ कहने लगीं थीं . और मुझे लगा था जैसे मेरे ऊपर उन की असीम अनुकम्पा थी . मुझे लगा था – वो मेरी शुभचिंतक थीं . “मुझे तो स्वयं याद नहीं ….और न मैं तब ‘शादी’ शब्द का अर्थ ही समझती थी ! मेरे पिता एक गरीब ब्राह्मण थे . उन्होंने इन्हें एक योग्य वर मान कर मेरी शादी कर दी थी ….ताकि वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएं ! बहुत बीमार रहते थे , न …!”
“आपने ….मेरा मतलब …..आपने ….?” मैं कांपते कंठ से उन के किसी किए विरोध के बारे पूछ लेना चाहता था . “इस तरह के ….वाल-विवाह ….के ….”
“मुझे क्या समझ थी ….?” अब की बार वो विहंस कर बोलीं थीं . “तब चलन यही था . माँ -बाप कोई अच्छा घर-घराना ढूंढ कर बच्चों के रिश्ते तय कर देते थे . बड़े हो कर बच्चे उन्हें स्वीकार लेते थे …..और अपना जीवन निर्वाह बिना किसी चूं -चपट के करते थे . माता-पिता की आज्ञा …उन दिनों …भगवान के आदेश जैसी थी , नरेन्द्र !”
“होगी …..ज़रूर होगी ….!” मैं मान लेता हूँ . मैं मुड कर देखता हूँ ….कि किस तरह मेरे घोर विरोध के वावजूद भी ….बाबू जी मेरी शादी कर बैठे थे ….और मैं मुंह तक न खोल पाया था !
“और जब मुझे समझ आई तो ….द्रश्य ही बदल चुका था !” वह फिर से बताने लगती हैं .
“कैसे ….?” मैं जिज्ञासा वश पूछ लेता हूँ .
“ये तो ….सन्यासी बन गए थे ! इन के किस्से-कहानी तो ….पूरे देश-विदेश में …डोल-डोल कर …इन की ख्याति -विख्याति बता रहे थे . काली माँ के परम भक्त ….श्री रामकृष्ण परमहंस ….दुनियां के दुःख-दर्द बाँट रहे थे ….समाज की सेवा कर रहे थे ….और अपनी भक्ति में पूर्णत: लींन थे ! इन्हें दींन दुनियां तक की सुध नहीं थी . ये तो अपना आगत-विगत ….सब भूले बैठे थे ! ये तो वहां थे …..जहाँ ….मैं द्रष्टि भर कर इन्हें देख तक नहीं सकती थी !”
“क्यों …..?”
“क्यों कि ….मैं थी ….क्या ….? एक सोलह साल की युवती को क्या समझ होती है , नरेन्द्र !” वो फिर से मुस्कराइं थीं . ” वो उम्र ही कुछ और होती है !” वो पूरे मनोयोग से बता रहीं थीं . “स्त्री के लिए …सोलह साल की उम्र के ….अलग ही अर्थ होते हैं ! अब तो तुम भी जानते हो , नरेन्द्र कि ….एक सोलह साल की युवती के सपने ….कितने रंगीन ….कितने चपल ….कितने रस-सिक्त …..और कितने मोहक होते हैं ….? उस का तन-मन तो पपीहे की तरह ….’पिया-पिया’ पुकारने लगता है . और उस का अंग-अंग भी तो ….पिया का ही संग माँगने लगता है…… !”
“आपने ….? मेरा मतलव कि …..आपने …..”
“मैंने तव …..उस सोलह साल की उम्र में …..साध्वी बनने का ब्रत लिया था ! मैंने तव ठानली थी ….कि मैं इन से मिलूंगी …..और मैं इन से प्रार्थना करूंगी …..कि …..”
“विचित्र ही था …..आप का संकल्प ….और …..”
“बहुत विचित्र …..!!” वो उत्साहित हो बता रहीं थीं . “सब ने रोका ……सब ने टोका …….! और सब ने ही मुझे बताया कि ….मैं अब अपने पति के योग्य नहीं रह गई थी ….! लोगों ने मुझे पागल तक कहा ….! और यह भी कहा कि ….जो मैं चाह रही थी – वो तो सर्वथा असंभव ….ही था !”
“फिर ……?” डरते-डरते मैंने पूछा था .
“फिर क्या …..?” उन्होंने मुझे स्नेह पूर्वक देखा था . “मैंने अपने आप को ही संभाला ….समझाया ……और फिर अपने अंग-वस्त्र उठा कर ….इन के आगार में चली आई …!”
“आप ……?” मैं अपना बचा-खुचा होश संभाल कर पूछता हूँ . ” रामकृष्ण ….परमहंस ….के ….?”
“हाँ ! अपने परमहंस पति के सामने मैं …..लाखों तरह से रोकने के बाद भी ……आ खड़ी हुई थी !! तमाम होते विरोध को बाजू धकेल कर मैं ….अब इन के सामने खड़ी थी !!! इन्होने ….मेरी और ….देखा भर था . ‘मैं आप की पत्नी ….शारदा हूँ !’ मैंने इन से कहा था .”
इन की आँखें फटी-की-फटी रह गईं थीं !
“मेरा तप भंग करने आई हो , मैनिका …..?” जैसे ये मुझ से पूछ रहे थे .
“नहीं …! अपना हक़ लेने आई हूँ !” मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा था . “एक पत्नी का हक़ मुझे आप से चाहिए , महात्मा …..!” मैंने विनय पूर्वक कहा था .
और सच में ही नरेन्द्र,! मुझे मेरा हक़ मिल गया था !! सच्ची मुरादें हमेशा ही मिल जाती हैं , बेटे !!!
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क्रमश –
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!