“जुनून और जौहर का जमाना था यह!” राहुल सोफी को बता रहा था। “महाराणा प्रताप को तो जुनून सवार था कि वह मुगलों को हरा कर मानेंगे।”

“क्यों?” सोफी ने बीच में प्रश्न किया था। “ऐसा क्या जुनून जो ..?”

“मुगलों को वह विदेशी और विधर्मी मानते थे।” राहुल ने कारण स्पष्ट किया था। “था भी सच! मुगल भारत में आक्रमणकारी बन कर घुसे थे। फिर मालिक बन बैठे। यहां तक कि राजपूतों ने उन्हें अपनी स्त्रियां तक देना स्वीकार लिया था।” रुका था राहुल। “महाराणा को यह गवारा नहीं था। उन्होंने ललकार कर कहा था – डूब मरने की बात है यह। शर्म से आंखें नीची रहती हैं। बंद करो यह बकवास।” उनका आदेश था।

“जंग तो होनी ही थी?” सोफी भी मान लेती है। “लेकिन अकबर से लड़ने के लिए ..?”

“अकबर पर था क्या? थे तो सब राजपूत ही!” राहुल सोफी को समझाता है। “मान सिंह और उनका सौतेला भाई शक्ति सिंह ही तो सेना लेकर आए थे।”

“क्यों?”

“आपसी मन मुटाव था। सभी चौधरी थे। सुलह कौन कराता?” हंसा था राहुल। “विचित्र इतिहास है, सोफी। एक थे राणा जो दूर तक देखते थे और दूसरे थे मान सिंह जो अपने पैरों के नीचे ही देखते थे। और शक्ति सिंह तो अकबर के यहां नौकरी करने लगा था। तुम्हीं सोचो?”

“मैं तो कहूंगी कि तुम्हारे ये राणा जी ही पागल थे।” सोफी ने हंस कर कहा था। “क्या जरूरत थी कि कुल पांच हजार घुड़सवार लेकर सत्ताईस हजार की सेना के सामने आ खड़े हुए? मरने वाली बात ही तो है?”

“था तो ये पागलपन ही सोफी!” राहुल ने भी स्वीकारा था। “लेकिन उनके इसी पागलपन ने ही तो उन्हें अमर बना दिया। अब इतिहास के बस की बात नहीं कि उन्हें भूल जाए। मानव जाति के ये श्रेष्ठ नमूने हैं – अमर हैं।” राहुल रुका था। सोफी गंभीर थी। “सत्य तो सत्य है। कीमत तो मांगता ही है। लेकिन जो अंत में हासिल होता है वह किसी भी फरेबी के नसीब में नहीं होता सोफी।”

सोफी विचार मग्न थी। जालिम एक फरेबी था – वह जानती थी। जालिम एक बड़े जोखिम का नाम था – उसे पता था। और शायद उसे परास्त करने के लिए प्रताप जैसे जुनून और राजपूत स्त्रियों जैसे जौहर की ही जरूरत थी। अब इतिहास इसे क्या कहेगा? मेरे ठेंगे पर .. कहकर सोफी हंस गई थी।

“उदयपुर और हल्दी घाटी का फासला ही कुल चवालीस किलोमीटर है?” सोफी ने पूछा था। “फिर राणा ने युद्ध के लिए हल्दी घाटी का चुनाव क्यों किया?” सोफी पूछ रही थी।

राहुल तनिक चौंका था। उसे याद आया था कि हल्दी घाटी को युद्ध भूमि बनाने का प्रताप का मनसूबा एक कारगर कदम था। लेकिन ..

“वक्त की बात ही कहो सोफी। वरना हल्दी घाटी से मुगल सेना का बच कर निकलना ही दुश्कर था। चल कर देखना कि किस तरह हल्दी घाटी घुडसवारों का स्वर्ग है और किस तरह से आंख बचा कर हमला करने के लिए उपयुक्त है! प्रताप के सैनिक कुशल घुड़सवार, जांबाज और जिंदा दिल थे। उन्हें विश्वास था कि जिस तरह बिल्ली कबूतरों को फाड़ खाती है वह भी मुगलों की सेना को जिंदा चबा जाएंगे।”

“लेकिन हुआ क्या?”

“वक्त ..! शायद तब वक्त मुगलों के पक्ष में था। उनके सितारे बुलंद थे।” रुका था राहुल। “पानीपत में भी तो यही आंकड़ा था। बाबर के पास क्या था? और लोधी के पास क्या नहीं था? लेकिन युद्ध का परिणाम बाबर के पक्ष में रहा।” राहुल ने सोफी की आंखों में देखा था। “काल चक्र! भाग्य! प्रारब्ध!” उसने गंभीर स्वर में कहा था। “हम न मानें इन्हें सोफी पर ये हैं तो!” जोर देकर राहुल बोला था।

“यू मीन मुगलों के सितारे ही बुलंद थे।” सोफी ने अंत में पूछा था।

“हां सोफी! वरना तो राजपूत ..?” राहुल कुछ ज्यादा ही भावुक हो आया था।

“तुम राजपूत हो शायद इसलिए शेखी बघारे जा रहे हो।” सोफी ने लांछन लगाया था। “युद्ध तो युद्ध होता है। सब आमने-सामने ही तो होता है। फिर और क्या कोसा काटी रह जाती है?”

“चलो युद्ध को लेकर ही बैठते हैं।” राहुल संभला था। “कुल चार घंटे ही तो युद्ध हुआ था। उन चार घंटों में ही इधर की हवा उधर मुड़ गई थी। उन चार घंटों में ही आजादी का एक जुनून – जो प्रताप ने पैदा किया था, ठंडा पड़ गया था। यह स्वाधीनता का पहला ही संग्राम था – जब प्रताप ने मुगलों को देश से बाहर खदेड़ने के लिए फतवा जारी किया था। और यह फतवा कुल चार घंटों में ..” रुका था राहुल। उसकी आवाज में एक दर्प था .. एक टीस थी।

“बहुत लगाव है तुम्हें अपने देश से?” सोफी ने पूछा था।

“हां! मैं इस बात का आज भी कायल हूं कि .. गुलामी ..”

“क्या है राहुल ये गुलामी और आजादी?” सोफी ने बात काटी थी। “मैं तो आज भी नहीं समझ पाती कि ये बला है क्या जिसके लिए लोग जान झोंक देते हैं, पागल हो जाते हैं, लड़ जाते हैं और ..?” सोफी राहुल को घूर रही थी। “अरे भाई! समझौते कर लो, बांट कर खा लो! अपना-अपना हक ले लो और फिर ..”

“पर ऐसा होता कहां है? आज भी देख लो! कोई आसमान पर बैठा है तो किसी को जमीन का एक टुकड़ा भी नसीब नहीं है।”

“डिसपैरिटी यू मीन ..?” सोफी ने पूछा था।

“हां! यही डिसपैरिटी तो हत्या की जड़ है सोफी।”

“और यह रहेगी भी, राहुल!” मैं भी महसूसती हूँ कि ऊंच नीच, छोटा बड़ा, और पागल पहलवान सब रहेगा। बराबरी पाना तो मात्र एक ख्वाब ही रहेगा!” रुकी थी सोफी। “तुम्हारे ये महाराणा अगर ..”

“अगर कामयाब हो जाते तो आज तुम्हीं कहतीं कि वाह राणा जी वाह। क्या हौसला था इस आदमी का?” राहुल ने सोफी को घूरा था। “जानती हो चेतक ने अपनी दोनों टापें मान सिंह के हाथी के मस्तक पर अड़ा दी थीं। महाराणा जी ने भाले से वार किया था – मान सिंह पर।” रुका था राहुल। “उनका भाला अचूक था। लेकिन .. लेकिन उस दिन मान सिंह डुबकी मार गया था और उसका महावत मर गया था।” एक लंबी आह छोड़ी थी राहुल ने। “बस यही वक्त का फल है सोफी। अगर वह वार ठीक बैठता तो .. मुगलों की लाशों को गिद्ध खा रहे होते और ..”

“चेतक का बड़ा किस्सा है, यहां?” सोफी ने पूछा था।

“हां! महाराणा प्रताप के साथ चेतक का नाम जुड़ा है। दे वर बॉडी एंड सोल!” राहुल बताता है। “वैसे भी घोड़े और सवार का मन मिला होता है। घोड़ा अपने सवार के इरादों से अवगत होता है। और चेतक प्रताप का हर इशारा समझता था और ..”

“तभी तो युद्ध भूमि पर कई दशकों तक घोड़ों का ही राज रहा है।” सोफी स्वीकारती है। “घोड़े खूब दौड़े!” वह हंसती है। “कितने ही सम्राट आए और कितने ही सम्राट गए लेकिन ये घोड़े ..”

“अब तो इतिहास में ही जुड़ गए हैं ये घोड़े!” राहुल हंसता है। “गया इनका जमाना भी। विडंबना तो यही है सोफी कि पुराना होते ही कोई किसी को नहीं पूछता।”

सोफी राहुल की बाते नहीं सुनती। अचानक ही उसे चेतक के स्थान पर अपना घोड़ा स्टॉर्म याद हो आता है। वह स्टॉर्म को हींसते हुए सुनती है। वह स्टॉर्म को घुर्राते नर्राते सुनती है। वह महसूसती है कि किस तरह स्टॉर्म उसका हर इरादा भांप लेता है और किस तरह वह उसके तनिक से इशारे पर दौड़ता है और किस तरह स्टॉर्म समझ लेता है कि वह कब नाराज है और कब प्रसन्न है।

शिद्दत के साथ आज सोफी को स्टॉर्म की याद सताने लगती है।

उसका मन होता है कि चले और घोड़े पर कूद कर सवार हो जाए। फिर भागे और स्टॉर्म को इशारे से जालिम के हाथी के सामने अड़ा दे। और जब उसकी दोनों टापें जालिम के हाथी के मस्तक पर जम जाएं तब वह वार करे। धांय, धांय, धांय! प्रताप की तरह ही वह भी वार करे एक निर्णायक वार।

लेकिन उसे प्रताप की तरह चूकना नहीं चाहिए।

वरना तो जालिम ..?

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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