राम चरन पागल हो गया था। वह अपनी सुध बुध भूल गया था। उसे केवल और केवल याद था – काशी। वो देख रहा था – पर्ण कुटीर में अकेली बैठी संघमित्रा। जो उसके आने का इंतजार कर रही थी। वो संघमित्रा जो एक प्रेमिका की तरह से पुकार रही थी।
एक लंबी थकाने वाली, पगलाने वाली यात्रा को राम चरन ने संघमित्रा के प्रणय पथ पर आंखें बंद कर दौड़ लगा कर पूरा किया था। उसने पर्ण कुटीर के आंगन में पहुंच कर ही कार में जोर से ब्रेक मारे थे।
आचार्य प्रहलाद का ध्यान टूटा था तो वो पर्ण कुटीर के बाहर चले आए थे।
“अरे रे आप? राम चरन जी ..” आचार्य जी ने प्रफुल्लित होते हुए राम चरन का स्वागत किया था। “अहो भाग्य। आप का मेरी कुटिया में आगमन ..?”
“काशी आया था – काम से!” राम चरन ने स्वर संभाल कर उत्तर दिया था। “रिसोर्ट बनाएगी कंपनी काशी में।” उसने सूचना दी थी। “सोचा, क्यों न आप का भी आशीर्वाद लेता चलूं?” वह मुसकुरा रहा था। उसकी निगाहें पर्ण कुटीर पर टिकी थीं। उसे अब संघमित्रा के बाहर आने का इंतजार था।
राम चरन हैरान था। पर्ण कुटीर किसी यतीमखाने से कम न थी। आचार्य प्रहलाद ने उसे पीतल के गिलास में लाकर जल पिलाया था। मूढ़े पर बैठा राम चरन पर्ण कुटीर में संघमित्रा को खोज रहा था। लेकिन ..
“काशी विश्वनाथ – जगत जीवन का ..” आचार्य प्रहलाद ने राम चरन को काशी से परिचय कराना उचित समझा था।
लेकिन राम चरन की उड़ती निगाहों ने सामने बहती विशाल गंगा को आश्चर्य चकित होते हुए देखा था। काशी और गंगा को एक साथ देख कर राम चरन के जेहन में सनातन का अनंत आ कर समा गया था।
“आओ-आओ मोनार्क।” लगा गंगा ने उसे बुलाया था। “आए हो तो अपनी मुराद पूरी करो।” गंगा ने उसे अनुमति दे दी थी।
और राम चरन काशी विश्वनाथ का इतिहास बताते आचार्य प्रहलाद को अकेला छोड़ संघमित्रा के साथ शाही लॉन्च पर सवार गंगा की सैर पर निकल गया था।
“ये हमारा ऐशियाटिक अंपायर है बेगम।” राम चरन संघमित्रा की नशीली आंखों में खो गया था। “तुम्हारे लिए मेरी जाने तमन्ना मैंने सारे संसार को जीता है। ये हमारी सल्तनत ..”
“इसकी क्या जरूरत थी मेरे सरताज?” संघमित्रा पूछ बैठी थी। “हम दोनों के लिए तो .. पर्ण कुटीर ही ..”
“यतीमखाना है – ये तो रे। हाहाहा। मैंने उसे देख लिया है। अब तुम्हारे मन को मैं माया से मिलाऊंगा मेरी मलिका। अब तुम देखना हमारा साम्राज्य, हमारा वैभव और हमारा ..”
“चाय लाया हूँ आपके लिए!” आचार्य प्रहलाद ने राम चरन के सुंदर सपने का कबाड़ा कर दिया था।
एक बेहद भौंड़े कप सॉसर में नारंगी नंगी चाय देख राम चरन का जी जल गया था। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं था। वह तो संघमित्रा की तलाश में अभी भी भटक रहा था।
“आप की वो बेटी भी तो ..?” राम चरन चाय का प्याला हाथ में थामे पूछ बैठा था।
“हां-हां! अभी-अभी तो दोनों आए थे। सुमेद का वो हिन्दू राष्ट्र का महा सम्मेलन होना है न – हैदराबाद में। अभी तो छह महीने पड़े हैं। लेकिन वो दोनों पूरे देश में घूम-घूम कर लोगों को अपना संदेश दे रहे हैं। आचार्य प्रहलाद बताते रहे थे।
हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए हैदराबाद में छह महीने के बाद होने वाले महा सम्मेलन ने राम चरन के दिमाग में प्रश्नों का तूफान उठा दिया था। उसे लगा था कि सुमेद सफल होगा इस बार। उसे लगा था कि संघमित्रा उसका पूरा-पूरा साथ देगी। उसे एहसास हुआ था कि गंगा में नहाते और काशी में सनातन की शिक्षा पाते ये हिन्दू कभी मिटेंगे नहीं।
“काशी को ब्रह्मा जी ने बसाया था।” आचार्य प्रहलाद के बोल सुनने लगा था राम चरन। “गंगा को शिव लाए थे। और ..”
“मैं मिटा दूंगा ये सारा काशी विश्वनाथ – ये गंगा ..” राम चरन सहसा गरज उठा था। “इस बार न काशी रहेगी न विश्वनाथ बचेगा। अब इस्लाम मीन्स एन ऐशियाटिक अंपायर ..”
“भोजन ..?” आचार्य प्रहलाद ने विनम्रता से पूछा था।
“नहीं-नहीं। मैं चलूंगा।” राम चरन ने आचार्य प्रहलाद के पैर छूए थे और प्रणाम कर चला आया था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड