“नहीं मुक्ति यों सारी प्रशंसा मुझ पर मत थोपो!” सोफी तनिक लजा गई है।

“और एक नया काम भी इन्होंने किया है!” मुक्ति हर सूचना एक वफादार नौकर की तरह मुझे पकड़ा देना चाहता है।

“वो क्या?” मैंने उत्सुकता से पूछा है।

“स्कूल की स्थापना!” मुक्ति ने सूचना को संक्षेप में कह सुनाया है।

“ओ आई सी ..!” प्रशंसक नजरों में भर मैं सोफी को प्यार कर गया हूँ।

“सर आप आराम कीजिए। मैं चलूंगा!” मुक्ति किसी जल्दी में हैं।

“लेकिन क्यों?”

“आगरा! वहां मेरा होना जरूरी है। मैंने सूचना भेज दी है। अब आने से पहले आप मुझे फोन पर बता दें तो ..”

“लेकिन क्यों?”

“आप का स्वागत समारोह भी तो ..?” मुक्ति हंसा है।

“अच्छा! तेरी चिड़ियाओं का क्या हो रहा है?” मैंने मजाक किया है।

“जाल में फंसी इंतजार कर रही हैं!”

“तो .. फिर ..?” मैं कारण पूछ लेना चाहता हूँ।

“आप नहीं थे फिर कैसे होता? मेरा तो कोई भी ..”

“ओह!” मैं गंभीर हुआ हूँ।

“लेकिन अब तो मेरा भी दिल करता है कि इंतजार करती चिड़िया को ..”

हम दोनों अट्टहास की हंसी हंसे हैं। सोफी का लज्जा से भरा मुख मंडल एक मोहक आभा से भरा लगा है। शायद अब समय आ गया है तभी सोफी ने दखल नहीं दी है। मुक्ति चला गया है। हम दोनों फिर अकेले हैं।

“और कुछ पूछना है?” सोफी ने पास आते हुए सवाल किया है।

“हां! उस बागी दलीप का क्या हुआ?” मैंने सोफी की चुटकी लेते हुए पूछा है।

“खो गया है! उसके चहेते मजदूर स्वागत में पलकें बिछाए बैठे हैं।”

“कि कब आए और कब साले को काले झंडे दिखाएं?” मैंने आत्मग्लानि पूर्वक मद का विद्वेष उगला है।

“नहीं दलीप! उनका कसूर नहीं है। उनमें शिक्षा की कमी है। उनका अभिप्राय क्या है वो स्वयं नहीं जानते। जब मैंने समझाया तो जान पर खेल कर मेरे साथ हो गए!” बड़े ही भावुक ढंग से सोफी ने मुझे समझाया है।

लगा है इन सब गलतफहमियों के शिकार हो कर अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं। स्वार्थी लोग झूठी भावनाएं भड़का कर उनका अहित कर जाते हैं और ये लोग संभल ही नहीं पाते।

“और उनकी थी एक सोफी – प्रेरणा, सहारा और आशा की अकेली किरण – उसका क्या हुआ?”

“बुरा हाल हुआ!”

“वो कैसे?”

“बेचारी अपना जोड़ीदार खो बैठी। और अब – नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ..”

“अभी तक नहीं मिला?”

“मिला तो है पर उसका अस्थि पिंजर ही बरामद हुआ है।”

“सही है। उसमें आत्मा क्यों नहीं फूंक लेतीं?”

मैंने सोफी को अपने आगोश में भर लिया है। उसने अपने हाथ मेरे शरीर पर रेंगने छुट्टे छोड़ दिए हैं जो एक अजीब आत्मीयता का स्पंदन और रोमांच खड़ा कर रहा है।

“लगता तो है कि शरीर गरमा रहा है .. पर ..”

“डर रहा है!” मैंने वाक्य पूरा किया है।

“लेकिन क्यों?” सोफी ने बहुत करीब आ कर पूछा है।

“इसलिए कि .. ये भी कहीं धोखा देने वाली परछाईं न हो, या कोई धोखा ही हो या पहले की तरह सताती कोई प्रेत आत्मा हो!”

कह कर मैं खिड़की से बाहर झांकने लगा हूँ। नीचे सामने के विस्तारों पर नजर दौड़ कर वापस चली आई है। मुझे जैसे – उड़ जहाज का पंछी उड़ जहाज पर आवे – वाली लाइन याद हो आई है। मस्ती में नारियल के झूमते पेड़ समुद्र की गोद सी भरते फल फूल रे हैं। चारों ओर चपटी पहाड़ियों पर उगी हरितिमा अब स्याह पड़ती जा रही है। लाइट जलने का सिलसिला शुरू हो चुका है। शायद अब अंधेरे नहीं होंगे – मैं सोचने लगता हूँ।

“देखो बाहर का कुहासा किस तरह छट गया है। शाम कितनी साफ सी हो गई है।” सोफी ने दो अर्थों वाला ये वाक्य खुशी-खुशी खिड़कियों से बाहर फेंक दिया है।

“सच ..?”

“हां दलीप! अब मैं हमेशा के लिए तुम्हारे पास आ गई हूँ। अपना सब कुछ ..”

“लेकिन तुम्हारा सब कुछ?”

“सब ऑक्शन कर दिया। देयर इज नो मोर ..” करुण स्वर में सोफी ने सूचना दी है।

“यू मीन .. बाबा?” मैंने इस तरह पूछा है जैसे बाप को गलत सर्वनाम से पुकारने के जुर्म में सोफी को सजा दे रहा हूँ।

“हां!” कहते हुए सोफी ने अपना जुर्म मान लिया है और निगाहें नीची कर ली हैं।

“और ये पैसा ..?”

“सारा स्कूल के नाम बैंक में जमा कर दिया है।”

“ये स्कूल क्या बला है?”

“अंतरराष्ट्रीय एक संस्था जिसमें हमने ये सिद्ध करके दिखाया है कि मनुष्य जन्म से न हिन्दू है, न मुसलमान, न ईसाई है और न अछूत। अगर भाषा अलग है तो इसका मतलब ये नहीं इंसान – इंसान से जुदा है। भाषा तो केवल माध्यम है!”

“कहना क्या चाहती हो?”

“यही कि हमारी शिक्षा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शुरू होगी। सभी देशों के विद्यार्थी इस तरह रहेंगे जिस तरह एक संस्था के हों। अरब को इज़राइली के साथ तथा हिन्दू को मुसलमान के साथ सब भेद भाव भूल कर रहना सिखाना हमारा उद्देश्य होगा।”

“वही विश्व कल्याण, विश्व शांति और सर्वे भवंतु सुखिन: ..?”

“हां!” सोफी ने गंभीरता पूर्वक स्वीकारा है।

“यू मीन – सेकिंड एनी बेसेंट?”

“कुछ भी कहो दलीप पर मैंने ये निर्णय कर लिया है।”

“लेकिन हिन्दुस्तान ही क्यों चुना तुमने?”

“इसलिए कि यहां मेरा कर्म क्षेत्र है, यहां अध्यात्मवाद और ब्रह्म ज्ञान जैसी बातें घटित हो चुकी हैं। हिन्दुस्तान आज का मोक्ष और मुक्ति जैसी बातों का समर्थक है। यहां आत्मा को सच्ची प्रेरणा मिलती है दलीप!”

मैं पल भर के लिए सोफी की ऊंचाई नाप कर दंग रह गया हूँ। अभी-अभी पाया मेरा आत्म विश्वास सिहर उठा है।

“मैं इस माहौल में कहां फिट होता हूँ?” सोफी से मैंने पूछ लिया है।

“ये संस्था तुम्हारे ही नाम से है।” सोफी ने मुझे बताया है।

“क्या ..?” मैं चौंक गया हूँ।

“हां दलीप! तुम भी मेरी प्रेरणा हो। तुम्हारे बिना मैं भी अधूरी हूँ!”

लगा है सोफी पूर्ण रूपेण मुझमें समा गई है। मैं ही सोफी मय नहीं हुआ लग रहा हूँ। बल्कि सोफी दलीप मय हो चुकी है। हमारी आत्माओं के कसाव अमर जंजीरें बन कर हमें जकड़े हैं।

“सोफी …?”

“यस लव!”

“इतना बड़ा त्याग ..?”

“ये तो कुछ भी नहीं मेरा मन तो कहता है – इन्हीं बांहों में मरना तेरी गति होगी सोफी!”

“शीइइइइइइ साली तू अभी से मरने का नाम लेती है?” मेरे ऊपर लेटी सोफी के गाल पर मैंने हल्की सी चपत जड़ दी है।

“हां-हां! अब तो मर कर ही तुझे छोड़ुंगी .. साले .. लुच्चे!”

हम दोनों ने फिर से एक दूसरे की आंखों में घूरा है। आज की तरह धधकते शाश्वत इरादे और निश्छल प्यार हमें आशीर्वाद दे गया है। किसी सुदूर स्थान से आता शहनाई का स्वर हमें पता नहीं कैसे-कैसे भावों से भरता रहा है। हम दुनिया के खोखले रीति रिवाजों का मजाक सा उड़ा रहे हैं। मैं अचानक एक उत्साह से भर गया हूँ। ऊपर लेटी सोफी को नीचे ले लिया है। फिर हम अपना ज्ञान खो बैठे हैं। चढ़ी ऊंचाइयों से थके पल भर कुछ पी कर स्वस्थ हो लेना चाहते हैं।

“लौट जाऊं ..?” सोफी ने मुझे वरजा है।

“कीप क्वाइट! आई वॉन्ट .. यू!” हांफते-हांफते मैं बोला हूँ।

“नॉट नाओ, लव!” एक झूंठा अवरोध सोफी ने सुझाया है।

“कीप क्वाइट सोफी! क्वाइट – आई वॉन्ट इट!” कह कर मैं कार्यरत हो गया हूँ।

पता नहीं क्यों आज मैं वायदा तोड़ने को व्याकुल हो उठा हूँ? शायद कुछ अपने रोमांस को जिला कर एक सुखी संसार बसा लेना चाहता हूँ जहां अकेलापन मुझे खा न सके। सोफी को एक लालच में फांस लेना चाहता हूँ ताकि वो कभी दूर न हो जाए। मैं पूर्ण रूपेण अपने प्यार में तिरोहित होता चला गया हूँ। सोफी देखती रही है – एक अमर प्यार का पुरुष। विश्व कल्याण के हित में अकेली इकाई और मैं उसके साथ हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गया हूँ। मैं इन अनाम बंधनों को शादी का नाम देने से फिर भी हिचक रहा हूँ क्योंकि आज शादी शब्द टिकाऊ नहीं है और अपनी गरिमा खो बैठा है।

एक अमरता जैसा ही संतोष सोफी ने मुझ में भर दिया है। मेरी स्मृति और विचारधारा बह चली है। अब आगरा में फूल मालाएं पहन हम मुसकुरा रहे हैं। वर मालाएं पहने हमारा स्वागत हुआ है। हम नई परंपराओं का प्रचार कर रहे हैं। विश्व कल्याण की बातें लोगों के जेहन में बिठा रहे हैं। विद्यार्थियों का तांता लगा है। अमेरिका जाते आधुनिक युगल हम एक सिलसिला संभाल रहे हैं और लोगों का हुजूम हमारे आसपास उठ खड़ा हुआ है।

“सोफी!”

“यस लव!”

“ये सब घटेगा न?”

“यस माई लव! सब कुछ घटेगा!” कह कर सोफी और मैं नई सफलता में लिपटे नई सांसें लेते रहे हैं।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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