“ऐ .. दे दे जल्दी उपदेश – विश्व कल्याण! हाहाहा माई ब्लाडी फुट!”
मैं तनिक रुका हूँ। परछाई अब भी अवाक खड़ी है। मुझे उम्मीद थी कि अब वो बोलेगी पर उसकी जुबान से एक भी शब्द नहीं टूटा है। श्वास के उच्छवास में मिली आतुरता मुझे जगा नहीं पा रही है। हवा से अंधेरा अलग होता रोशनी का रास्ता रोक रहा है। मैं सोफी का विद्रूप चेहरा अब साफ-साफ देख पा रहा हूँ। मेरी बोझिल पलकों का भार जैसे सोफी ने संभाल लिया है और मैं पलक न झपकाने को मजबूर हूँ – अविराम उसे देखता रहा हूँ।
पल भर पहले की घृणास्पद दुनिया क्षितिज से मुखातिब हो सोफी बन गई है और मेरे किए विध्वंस का जायजा मांग रही है। सोफी जैसे अच्छाइयों का दूसरा नाम हो और उसे बुराइयों से परहेज हो – फिर एक अनजान पहेली बन कर सामने आ खड़ी हुई है। ये मुखर परछाईं फिर एक शक्ति में सिमिट गई है। उसी गरज से मैंने आज सर से हलका सा झटका दिया है। लेकिन वो बुत और साफ-साफ हो कर दूधिया देहधारी जीव से सोफी बन गया है।
अनवरत देखती सोफी आंखों की कोरों से चिपके आंसुओं में भिगो कर एक वशीकरण मंत्र मुझ में फूंकती लग रही है। मैं उसके ऊपर गिरने को हुआ हूँ पर एक पुरुष दंभ मुझे साधे खड़ा रहा है। अचानक मैं अतीत के सारे संदर्भ टटोल उसे वर्तमान से कहीं तारतम्य जोड़ने लगा हूँ। जहां से चला हूँ और जहां तक पहुंचा हूँ – सभी सोफी मय हो उठा है। शायद सोफी ने हर सांस गिन-गिन कर मुझे जिलाया है – अंधेरों में घसीटा है, भटकने से पहले दिशा दी है और अब ..?
“अब .. अब क्या लेने आई हो?” मैं संभल सा गया हूँ ताकि उसे मेरे नसेड़ीपन का पता न लग जाए।
आज पहली बार मैं सोफी से अपने अवगुणों को छुपा लेना चाहता हूँ। मेरे कहे वाक्य में मैंने भरपूर उलाहना देने का प्रयास किया है। आत्मा मेरे बिन कहे सोफी की आभारी हो गई है। परवेशगत विडंबना में सिमिटा मैं फिर से सोफी का गुणगान करने लगा हूँ।
“तुम्हें ..” सोफी ने कांपती आवाज में बहुत धीमे से कहा है।
मैं गदगद हो गया हूँ। लगा है मेरे जीवन की आवाजाही में सोफी ने कोई सहारे का अंतिम अध्याय जोड़ दिया है। पहाड़ियों के पीछे छुप कर सूरज महाप्रलय नहीं मंगल प्रभात पर बधाई देने आ रहा है। मेरे अंदर अब तक का उफनता हिंसात्मक प्रतिशोध फिजा पर जाकर ठहर गया है।
“अब ..?” मैंने इस तरह पूछा है जैसे सोफी में मैं कोई विश्वास खोज रहा होऊं।
“क्यों ..?” अचानक आगे बढ़ कर सोफी ने मुझे छू लिया है।
सोफी में मुझे छू लेने का अधिकार मुझे बेहद अच्छा लगा है। उसके मात्र स्पर्श से लगा है – हमारे बीच पराए पन का बासी पन चुक गया है। आत्मीयता जैसा ही कुछ दिल दिमाग की अनाम खिड़कियों से मैं अंदर कूद गया हूँ। लगा है मन बगिया में हेमंत की हरितिमा के साथ-साथ एक मोहक जूही का फूल खिल उठा है। एक निष्कर्ष सा मेरे सामने आ कर छप गया है – हार जाने पर ही हिंसा उभरती है और क्रोध खामियां पूरी करता है। यही सोच मेरा पुरुष प्रेम मुझमें घोलायित हो गया है और मैं गिरने को हुआ हूँ तो सोफी ने मुझे बाहों में भर लिया है।
“ओह .. डियर ..!” सोफी ने निश्वास छोड़ मुझे संभाला है।
उसका पड़ता पसीना मेरा थका शरीर चाहता रहा है। पल भर सोफी मुझे बांहों में भरे किसी यथार्थ को पा जाने का विश्वास खोजती रही है। उसकी नजर कुछ एक फासले पर पड़ी क्रिस्टीन पर बरसती रही है। मैं जान गया हूँ कि सोफी भी एक सच्चे मन की औरत है!
सोफी जैसा ठोस आधार पा कर मैं उस पर पूर्णतया लद गया हूँ। सोफी धीरे-धीरे मुझे किसी अज्ञात दिशा में घसीट रही है और मेरी चेतना मुझे छोड़ती जा रही है! सोफी को पा कर मैं और कुछ नहीं पाना चाहता और उसी के संरक्षण में स्थूल – देह छोड़ मैं उसकी आत्मा में जा रमा हूँ। अमर प्रेम जैसा ही कुछ घटता लग रहा है।
“मैं कहां हूँ?” चेतना आते ही मैंने पहला सवाल पूछा है।
आंखें एक सजे संवरे कमरे को देख चुकी हैं। शरीर सुखदायी बिस्तर में धंसा स्वर्ग भोग रहा है तथा हारा टूटा मन स्वस्थ लग रहा है! फिर भी मैं सच और सपनों का फर्क सा भूल गया हूँ। दिन और रात के अंतर ठीक-ठीक याद नहीं और इसी गरज से कोई छोटा उत्तर मांग रहा हूँ जो मेरी शंका दूर कर दे!
“सी व्यू होटल का कमरा नम्बर पैंतीस है। पंजिम शहर – गोआ!” सोफी ने ही बताया है।
सोफी पास बैठी ऊंघ रही लगती है। मैंने नजर घुमा कर सायास उसे देखा है। चेहरे पर चिंता की दो एक लकीरें ठहरी लग रही हैं।
“क्या समय होगा?” मैंने पूछा है।
“शाम के पांच बज रहे हैं!” सोफी ने बहुत शांत स्वर में उत्तर दिया है।
एक चुप्पी साधे हम दोनों अतिरिक्त बिलगाव के भाव को सहते लग रहे हैं। मुझे सोफी का धीमा और संयत स्वर खल गया है। लगा – सोफी मानवीयता के सहज स्पंदनों से रिक्त हो कर एक ठंडी लाश बन गई है। तो क्या इसे भी ये बीच का अंतराल बदल गया है?
“यहां क्या कर रहे थे?” सोफी का स्वर अब आ कर बदला है।
“संसार को जीत रहा था।” मैंने निर्लिप्त भाव से सच्चाई कह दी है।
“इस तरह ..?” दृढ स्वर में जैसे सोफी मुझे फटकारना चाहती है, पूछा है।
मुझपर यों चोट करती सोफी मुझे भली नहीं लग रही है। मन आया है कि बिस्तर का पेट तोड़ मोड़ डालूं। लेकिन पता नहीं इन दिनों में मुझ में एक अजीब सा आत्मसंयम भरता रहा है और इसी आत्मसंयम के साथ मैंने उत्तर दिया है।
“हां! यही एक तरीका शेष था जिस के सहारे अपनी आत्मा को संतोष दिला सकता था कि मैंने सब मंसूबे पूरे कर लिए!”
“लेकिन तुम जानते हो कि ये धोखा है .. फरेब है ..?” सोफी रोने को हुई है।
“और जो मेरे साथ हुआ है .. धोखा .. छल .. मक्कारी ..? शायद तुम नहीं जानती सोफी ..” मैं भावावेश में बिस्तर में उठ कर बैठ गया हूँ।
सोफी मुझे ठंडी चुभती नजरों से घूरती रही है। जैसे मैं अब भी उसका मुजरिम हूँ, कोई कातिल हूँ – जो हार कर संग्राम से इस तरह भाग आया हूँ। लगता है आज वो फिर से मुझे परख रही है। मैं भी अपना पक्ष गिरने नहीं देना चाहता – यही सोच मैंने उसकी आंखों में घूरा है!
“मैं सब जानती हूँ दलीप!” बड़ी ही सहृदयता से अबकी बार उसने कहा है।
“वो क्या ..?” मैं बात की पुष्टि करना चाहता हूँ।
“हां! लेकिन तुम्हारे चले जाने के बाद क्या हुआ – तुम नहीं जानते?”
“क्या हुआ? मुक्ति को ..?”
“मुक्ति ठीक है! यहीं है!”
“तो क्या पुलिस ने ..?”
“नहीं! मैं आ गई थी। मुक्ति ने मुझे सब कुछ बता दिया था!” सोफी एक तरतीब से मुझे सब कुछ बताती जा रही है।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड