“ऐ! तेरी सगाई हो गई!” मैंने ही वैशाली को अंदर जाकर सूचना सुनाई है।

“चुप! यों चिल्लाओगे तो ..?”

“सच! लड़का कोई डॉक्टर है। तुम दोनों की खूब पटेगी!”

वैशाली को मैंने किसी अपूर्व खुशी से भरते देखा है। पल भर के लिए वो आचार्य, मढ़ी और भारत का मोह भूल उस डॉक्टर के किसी प्रेत से जा जूझी है। मैं खड़ा-खड़ा सोच रहा हूँ कि इन पिछले दिनों में मैं वैशाली की चितवन से आत्मा तक फैले प्रसारों में एक बेहद आजादी से धूम फिर सका हूँ। पर आज मुझे हाथ उठा कर यहीं कहीं रोक कर एक खबर को आगे बढ़ा दिया है।

शादी का दिन तारीख निश्चित हुआ है। पैसे की करामात है। मैंने डॉक्टर को बुला कर आचार्य से संधि करा दी है। आचार्य की महिमा बता कर डॉक्टर को उन से पूर्ण सहयोग के लिए राजी कर लिया है। मैं ये सब इसलिए कर रहा हूँ कि अब चलूंगा!

बजती शहनाइयां मुझे अजीब से ढंग से बुलाती रही हैं। मैं यहां से इसी रात के अंधेरे में भाग जाना चाहता हूँ। वैशाली के दूल्हे को देख लिया है और अब कुछ करने को शेष नहीं है। फिर भी दुल्हन बनी वैशाली को देखने की अशेष कामना टूटी नहीं है।

“मैं चला!” मैंने आचार्य को एक अंधेरे कोने में घसीटते हुए कहा है।

“आज ..? अभी ..?”

“हां! कारण मत पूछना!” मैंने आचार्य को वर्ज दिया है।

“लो! ये रुपये रख लो!” आचार्य ने अपनी जेब से नोटों की गड्डी खींच मेरी जेब में ठूंस दी है।

“फिर मिलेंगे!” मैं कह कर चल पड़ा हूँ।

अब पीछे मुड़ कर नहीं देखूंगा – प्रण कर लिया है मैंने। सोफी कहीं अदृश्य में खड़ी मुझे मेरे जीत पर बधाई दे रही है।

“भइया!” वैशाली का स्वर है।

“तुम ..?” मैंने दबी-दबी आवाज में पूछा है।

“यों जाना ..? क्या कोई ..” वैशाली – लगा है आज एक नए रूप में प्रकट हुई है।

“नहीं विशु – कुछ नहीं। वैसा कुछ नहीं है पर मुझे जाना है।”

रोशनी की कोई दूर से भाग कर आई किरण गहन तिमिर को दहला रही है। हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह देख पा रहे हैं। दुल्हन बनी वैशाली एक अजीब से सौंदर्य से भरी है। मैं दूल्हा को उठा-उठा कर उसके साथ जोड़ रहा हूँ। रति अनंग की जोड़ी खूब फबती लग रही है।

“एक बात कहूँ?” मैंने वैशाली को निकट खींच लिया है।

“कहो!” वैशाली धीमे स्वर में कठिनाई से कह पाई है।

“खूब जोड़ी मिली है! डॉक्टर को ..” मैं रुका हूँ। “अब मैं चलूंगा!”

“भइया ..?” वैशाली ने फिर एक मरियल आग्रह अड़ा दिया है।

“तेरे भइया का आशीर्वाद है – सुखी रहो विशु ..!”

“लेकिन ..?”

“समय आया तो फिर मिलूंगा!” कह कर मैं अंधेरों की ओर बढ़ गया हूँ।

चलते-चलते फिर वैशाली का हंसों का सा जोड़ा मानस पटल पर उभरने लगा है। पता नहीं कहां से दुल्हन बनी शीतल श्याम की जोड़ी आ कर उस जोड़े में जुड़ गई है। मैं शीतल और वैशाली को अलग-अलग नाप रहा हूँ पर ये तरीका गलत लगा है। फिर सोचने लगा हूँ – शीतल, सोफी, वैशाली और वो अर्ध नग्न लड़कियों की पीछे छूटी कतारें – क्या ये सब औरत के ही रूप हैं? अंधेरे में चलते-चलते फिर एक बारगी रुक गया हूँ। आहत सा मन टीस गया है। कह उठा है – और यों कब तक चलते ही रहोगे मेरे दोस्त?

जेब में ठुसे नोट मुझे किसी सुदूर स्थान पर ले जाने के लिए राजी हैं। मन ने रूठ कर कहा है कि अबकी बार लंबी उड़ान भरो। एक परास्त सा विचार आया है – सोफी से बात करूं। पत्र लिखूं या ट्रंक कॉल पर बात करूं? लेकिन सोफी के फटे आंचल में जा कर छुप जाने से काम नहीं चलेगा – मैं जानता हूँ। शायद सोफी भी कायर मान ले – सोच नहीं पा रहा हूँ।

किशनगढ़ कस्बे से आखिरी बस पकड़ मैं आगरा पहुंच रहा हूँ। आगरा से पहली गाड़ी पकड़ कर मैं विलीन हो जाऊंगा क्योंकि वहां पकड़े जाने के ज्यादा मौके हैं। यों अब मेरा हुलिया भी तनिक बदल गया है और अपने आप को छिपाने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई है।

मैं यों दिन के अंतराल और जटिल रेल यात्रा में घक्का खा पूना पहुँच रहा हूँ। एक हिप्पियों के गुट में जा घुसा हूँ और पुराने संदर्भ ढूंढ नए संदर्भ ढूंढने लगा हूँ।

“स्नेह यात्रा ..? मैंने बात को जड़ से कुरेदा है।

“ओ यस! यस-यस! वहीं जाने को लगता है!” एक नशैड़ी ने खुश हो कर कहा है। “आपको भी चलना है?” सुनहरी बालों वाली लड़की ने पूछा है।

“यस-यस! पर चलना कहां है?” मैंने पूछ ही लिया है।

“पंजिम! गोआ ..” कह कर वो दोनों हंस गए हैं।

अब हम सब खूब घुल मिल गए हैं। गोआ तक का सफर उनके साथ खाते पीते गुजरा है। मैं जानता हूँ कि मेरी फ्री के नोटों की गड्डी अब अधिया गई है। फिर भी मन फिजूल खर्चने पर रोक लगाने को राजी नहीं है। मैं उस सुनहरी बालों वाली लड़की को निरुद्देश्य खुश करने का विफल प्रयत्न कर रहा हूँ।

अचानक मेरी नजर पास वाले व्यक्ति के हाथ में लगी अखबार पर पड़ गई है। बाएं कॉलम में मेरा चित्र छपा है और मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है – लापता इंडस्ट्रियलिस्ट मिस्टर दलीप! मैं घबरा गया हूँ। अचकचा कर उठा हूँ और बाथरूम में जा घुसा हूँ। घूर-घूर कर शीशे में अपनी बढी दाड़ी अंदर धसी आंखें, लंबे-लंबे अस्त व्यस्त बाल और पपड़ी पड़े होंठ देख कर अपने आप को पहचानता रहा हूँ। तुम्हें कोई नहीं पहचान पाएगा – वो मेरी फोटो तो बहुत पुरानी है .. जब तुम प्रिंस हुआ करते थे। दृश्यों का जमघट जुड़ आया है तो मैं बाथरूम से बाहर भाग आया हूँ। अब तक उस आदमी ने अखबार को तोड़ मरोड़ कर पटक दिया है। मन आया है कि पढ़ने को मांग लूं अखबार पर हिम्मत जवाब दे गई है। मैं भूखी प्यासी नजरों से अखबार पर छपे फोटो को देखता रहा हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading