जब चेत आया है तो लगा है कोई धीरे-धीरे मेरा मस्तक सहला रहा है। मैं स्पर्श से ही जान गया हूँ कि ये वैशाली है। यही जान कर मैं पता नहीं क्यों आंखे खोलना नहीं चाहता। फिर अचानक मुझे सोफी की फटकार याद हो आती है। अपनी अनधिकार चेष्टा पर मैं कुछ खीजने लगा हूँ। मैंने आंख खोल कर पाटी पर बैठी सच्चाई को सीधा आंखों में देखा है।
“अब कैसे हो?” आचार्य ने पूछा है।
“डॉक्टर से पूछो – मैं क्या बताऊं?” मैंने अपनी ओर आती वैशाली को देख लिया है।
“ज्यादा कुछ नहीं है। थकान थी और हलकी सी मोच!” वैशाली ने बड़े ही शांत स्वर में कहा है।
वैशाली का यों कहना मुझे चौंका गया है। मैं अपनी शारीरिक दुर्बलता जान कर और पिछली रात के सहे आघात याद कर कुछ ठंडा सा पड़ गया हूँ। शायद वैशाली को पता नहीं कि इस मोच और थकान के पार एक गहरा विद्रोह है जिससे मैं लड़ता रहा हूँ। वह नहीं जानती कि किस कदर मैं झूठे लांछनों के जहर को स्नायु मंडल में प्रवेश करने से रोकता रहा हूँ और अगर मेरा मन आता तो ..
“तुम्हारे गांव में इस रोग को कुछ नहीं कहते हैं क्या?” मैंने मजाकियेपन से बात की चुभन को कम करने का प्रयत्न किया है।
“रोगी को रोग की तुच्छता बता कर मनोवैज्ञानिक एक सहारा मिलता है।” आचार्य ने वैशाली की बात की पुष्टि की है।
“और असलियत बता कर ..?” मैंने कुतर्क में दक्ष छोटी दलील का सहारा लिया है।
“असलियत बता कर कभी-कभी गहरा आघात लगता है।” आचार्य ने बताया है।
वैशाली मुझे घूरती पकड़ी गई है। उसका उद्देश्य कुछ भी हो सकता था। मैंने अपने सरपट दौड़ते मन के घोड़ों की रास खींच कर रक्खी है।
“थोड़ा चल फिर कर देख लो .. ताकि ..” वैशाली ने सुझाव रक्खा है।
“हां-हां! चलो मैं साथ चलता हूँ। मैं वहीं कहीं किनारे बैठ संध्या वंदन कर लूंगा और तुम्हारी सैर हो जाएगी!” आचार्य जी आसन से उठे हैं।
मैं आचार्य का सहारा पा कर उठा हूँ। पैर वास्तव में लेप से नरम और स्वस्थ लगा है। मैं एक कदम चल कर खुश हुआ हूँ।
“ये बैंत ले लो!” वैशाली ने मुझे एक लट्ठ गंवार टाइप बैंत थमा दी है।
मैंने बैंत चुपचाप अपने साथ ले लिया है। मैं और आचार्य धीरे-धीरे यमुना की ओर चले जा रहे हैं।
“तुम शहर में क्या करते हो?” आचार्य ने बड़े ही आदर के साथ पूछा है।
इतनी देर से इस प्रश्न को आते देख मैं तनिक आचार्य की ओर आभार से झुक गया हूँ। यों मुझे घर ले आना, अकेले छोड़ चले जाना और अब आ कर पूछना – मुझे चुभने लगा था। पर अब जब प्रश्न सामने है तो उत्तर मेरे गले से बाहर नहीं आ रहा है।
“जी! अभी तो पढ़ता हूँ!” मैं झूठ बोल गया हूँ।
“तुम्हारे पिता जी?”
“व्यापार करते हैं।”
“और तुम्हारा ..?”
“जी! एडवेंचर … यानी कि साहसिक कार्य .. जोखिम का काम करना ..”
“क्यों?”
“ये मेरी हॉबी है! यानी कि फालतू समय में मैं ..”
“तो क्या कॉलेज की छुट्टियां हैं?”
“जी हां, जी हां! छुट्टियां हैं।”
“आज कल तो सुना है वैसे भी छुट्टियां ही रहती हैं?”
“जी हां! पढ़ाई लिखाई का नामोनिशान नहीं। बस पॉलिटिक्स, दादागीरी और हीरो बनने का शौक ही शेष रह गया है।”
“इस शिक्षा से देश कैसे उठेगा?” एक आह छोड़ी है आचार्य ने।
“क्यों?”
“देखो दलीप आज का युवक जो सीख रहा है वह गलत है। शिक्षा का मतलब होता है – स्वयं की खोज करने की क्षमता!”
“उससे क्या लाभ?”
“आप को अपने अंदर निहित गुण, सामर्थ्य का पता चल जाता है तो अपना मार्ग खोजने में कोई कठिनाई नहीं होती!”
“लेकिन समय बदल गया है। अब के भौतिकवाद में जीने के लिए धंधेबाज होना और ..”
“भौतिकवाद की ये दलील खोखली है, दलीप! जब तक इसके साथ अध्यात्म बल न जुड़ेगा – ये पूर्ण संज्ञा नहीं बनेगी। आदमी को धन से आगे भी कुछ चाहिए ..”
“लेकिन .. धन?”
“धन लंबे जीवन के रास्ते में पड़ता एक पत्थर है। एक आवश्यकता मात्र है।”
“धन के अभाव में टूटा आदमी मैंने रुकते नहीं देखा!” मैंने उनकी बात की पुष्टि की है। “लेकिन धन पा कर रुक जाना – उसके मोह पाश में फंस जाना और जुल्म करना गिरावट की ओर ले जाता है।”
“मैं मानता हूँ। पर इसका विकल्प भी क्या है?”
“है! अध्यात्मवाद, सही शिक्षा .. और ..”
“सही शिक्षा क्या है?” मैंने एक ऐसा प्रश्न पूछा है जिसका उत्तर आज कोई नहीं जानता। आज तक लोग शिक्षा देते आए हैं, लेते आए हैं पर किसी ने भी एक ठोस सत्य नहीं खोजा है .. कि ..”
“अब देखो! वैशाली संस्कारों से लालची नहीं है, परोपकार और सेवा में दक्ष है। बड़ों के लिए आदर है और अपनी इच्छा शक्तियों से लड़ने की सामर्थ्य है। अपने इन गुण विशेषों से वाे अवगत है।”
“लेकिन धन कमाने की गुणवत्ता, फास्ट सोसाइटी में जमने की उपादेयता उसमें नहीं है।” मैंने आचार्य को परास्त करना चाहा है।
“है! अगर चाहे तो वैशाली दवाइयों की फीस ले कर धन कमा ले। अगर चाहे तो यहां और चार भैंस रख कर दूध बेच धन कमा ले – पर वो पैसा नहीं चाहती!”
“क्यों?”
“इसलिए कि इस उमर में धन की अधिकता और लालच उसे बिगाड़ देगा। जवानी का पहला काम सात्विक होना चाहिए, परोपकार के लिए उद्यत होना चाहिए, जन सेवा में धन खर्चना ही उपकार होता है!”
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड